हम आज कहना चाहेंगे कि-
जनतंत्र में भी यही भाव जागता है- सागर में कुम्भ कुंभ में सागर!
ऐसे में कौन दुश्मन कौन मित्र?कौन अपना कौन पराया?!
जब बसुधैव कुटुम्बकम.... विश्वन्धुत्व ...... सर्वेभवन्तु ....का भाव तो किससे?द्वेष किससे भेद?! कैसी हिंसा?! सबका अपना अपना स्तर, सबके अंदर चेतना व समझ का स्तर व बिंदु अलग अलग।सबकी ऊर्जा अलग अलग चक्र पर। ऐसे में तन्त्र कैसा खड़ा होना चाहिए?शासन कैसा खड़ा होना चाहिए?
सभी के अंदर दिव्यता की सम्भावनाएं छिपी हैं, उसको अवसर कैसे मिलें। किसी ने कहा है-यदि उपदेश, आदेश आदि महत्वपूर्ण होते तो न जाने कब की दुनिया स्वर्ग हो चुकी होती।
महात्मा गांधी ने कहा था-वातावरण ऐसा होना चाहिए जिसमें कोई गुंडा भी मनमानी न कर सके।
भक्ति, ईश्वर के नाम पर क्या क्या चल रहा है? सर्वव्यापकता, सार्वभौमिकता का मतलब क्या है?धर्मस्थलवाद का।मतलब है कि हम सर्वव्यापकता, सार्वभौमिकता आदि को महत्व नहीं देते।आत्मा, परम् आत्मा के गुणों से कोई मतलब नहीं रखना चाहते।
मूर्ति व्यबस्था को अभी तक हम समझ नहीं पाए हैं।
प्रकृति अभियान में स्वतः प्राण प्रतिष्ठित जीवन्त मूर्तियों/जीव जंतुओं, मनुष्यों को प्राण प्रतिष्ठा अर्थात उनमें उपस्थित दिव्यता को अवसर नहीं।
ऐसे में जनतंत्र भी पाखण्ड बन गया है।
" वर्तमान में कोई भी दल व नेता जन हित में नहीं है।"
जनतंत्र का मतलब क्या है?
जनता का शासन!!
लेकिन अभी वास्तव में जनता का शासन नहीं है।
जनसमूह, जन भीड़ का शासन रहता है।
जब जनतंत्र पैदा भी नहीं हुआ था, प्लेटो ने कह दिया था कि जनतंत्र भीड़ तन्त्र में बदल जाता है।
हम अभी देश में जनतंत्र नहीं मानते।
जनतंत्र में तो/'सागर में कुंभ कुंभ में सागर'-का भाव होना चाहिए।
एक व्यक्ति हो सब व्यक्ति हों-देश हित कानून व्यवस्था सर्वोपरि होना चाहिए।
लेकिन ऐसा नहीं है।
प्रत्येक क्षेत्र में कुछ जातियों, मजहब की चलती है। जिसमें माफिया, दबंग पल्लवित पोषित होता है।
सबका सम्मान जिसमें सुनियोजित नहीं होता।
गांव/वार्ड का गुंडा, दबंग, अपराधी आदि किसी न किसी नेता या दल का खास होता है।
न सपा न बसपा और न भाजपा आम जनता बनाओ अपनी ही सत्ता...
जय किसान-मजदूर-आदिवासी-दलित-छात्र-व्यापारियों की सत्ता...
क्षत्रिय ही विभिन्न पदों पर बैठने का हकदार अर्थात जो साहस के साथ जनतंत्र या जनता के हित मे,समाज सेवा में जीता हो।
#जनतंत्र
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