रविवार, 24 अक्तूबर 2021

नजरिया व आस्था::अचेतन मन!!

 किसी संस्था या व्यक्ति को नजरिया ही महान बनाता है:::अशोकबिन्दु

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हमारा मानना है कि व्यक्ति का नजरिया व आस्था काफी महत्वपूर्ण है।सिर्फ कर्म ही नहीं।हमने लेबर वर्ग के लोगों को देखा है वे बड़े मेहनती होते हैं।हमसे ज्यादा कार्य व मेहनत करते है लेकिन वे महानता को नहीं बुनते। वे कठिन कार्य करते है, काम में जुटे रहते हैं।लेकिन मालिक उन्हें रुपया देता है, घर न जाकर सीधे मधुशाला पहुंच जाते हैं।जिन रुपयों से वे घर का छह सात दिन रोटी पानी चला सकते हैं, उसे कुछ मिनटों में खर्च कर देते हैं।और उनके बच्चे?!उनके पास बच्चों के प्रति कोई योजना नहीं होती। हम देखते हैं अनेक लेबर व्यक्ति हमसे दूना कमाते हैं, लेकिन उनके घर व बच्चों के लिए व्यवस्थाएं हमसे बेहतर नहीं होती।हम कर्म को ही नहीं वरन आस्था व नजरिया को महत्व देते रहे हैं।



किसी संस्था में अनेक लोग कार्य करते दिखते हैं लेकिन संस्था के लिए उनका नजरिया व आस्था महत्वपूर्ण होता है।संस्था में कार्य करने वाले अनेक तरह के होते हैं।यहां तक कि हमें आश्चर्य होता है कभी कभी उनको देख कर जो संस्था में खास होते हैं। 



किसी संस्था में उपस्थिति का समय माना सुबह 8.30am से 03.15pm है तो किसी का नजरिया है कि अरे क्या फर्क पड़ता है, 5-6 मिनट हो गए?या 5-6 मिनट पहले ही संस्था से निकल घर जाने की सोंचने लगे।या इससे ज्यादा भी समय के लिए ऐसा करने लगे। अब वे कभी क्या समय प्रबन्धन में बेहतर हो सकते हैं? वहीं दूसरी ओर कोई अन्य इस सोंच में रहता है कि हम समय से पहले पहुंचे, समय से पहले से संस्था से न जाएं या फिर आज पूरा कार्य निपटा कर ही बाहर से निकलें,इन दोनों तरह के व्यक्तिर्यों में धरती आसमान का फर्क होगा लेकिन देखने को समाज व संस्थाओं में कुछ और मिलता है।हमने कुछ लोग देखे हैं कि उनकी संस्थाओं में उनकी कोई आस्था नहीं नहीं होती, संस्था में और क्या बेहतर हो, इसके प्रति इनमें कोई आस्था व नजरिया नहीं होता,24घण्टे अपने घर, अपनी निजी भौतिक व्यवस्थाओं में रहते हैं, यहां तक कि अपने कार्य क्षेत्र में या संस्था के अंदर संस्था में जो खास होते हैं, उनके साथ भी सिर्फ उन निजी भौतिक व्यवस्थाओं की चर्चा में रहते हैं।



इसी तरह हमें देखा है, कोई बच्चा को किसी विषय में पहला पाठ ही तैयार नहीं है,अब उसे दूसरा तीसरा.... यहाँ तक कि सत्र भर में उसे पूरा पाठ्यक्रम परोस दिया जाता है।हमारे नजर में यह भारतीय शिक्षा जगत की खामी है।हमारी नजर में बच्चों का विभाजन वर्तमान क्लास स्तर के आधार पर न होकर सेमिस्टर के आधार पर होना चाहिए।जैसे कि विश्व के अनेक संस्थाओं में ऐसा होता है कि जब तक बच्चा पहले सेमेस्टर की जानकारी एकत्र नहीं कर लेता उसे आगे नहीं बढ़ाया जाता।उसे क्लास स्तर पर आगे नहीं बढ़ाया जाता वरन सेमेस्टर व विषय के आधार पर आगे बढ़ाया जाता है।एक ही बच्चा गणित आदि एक ही सत्र में या अगले सत्र में भी पिछला सेमेस्टर का ही पढ़ रहा होता है अन्य विषय में आगे के सेमेस्टर का।भारत में भी ऐसा होना चाहिए।बच्चे को क्लास के आधार पर नहीं वरन विषय व विषय के सेमेस्टर के आधार पर आगे बढ़ाया जाए। खैर, यहाँ तो हम नजरिया व आस्था की बात कर रहे थे। हमने देखा है कि हम या सामने वाला जिस स्तर के हैं, उस स्तर पर कार्य हो ही नहीं रहा होता है।ट्यूशन।में..!? शिक्षा विद्यार्थी केंद्रित होनी चाहिए। ऐसे में हम विद्यालयों में पाठ्यक्रम के आधार पर बच्चों का विद्यार्थीकरण व कक्षाकरण विकार युक्त मानते ही हैं,विद्यालयों में हमारी मजबूरी है।सरकार से जो पाठ्यक्रम तय है वह हमें विद्यार्थियों के सामने परोसना ही है, क्यों न विद्यार्थी उस पाठ्यक्रम के लिए उपयोगी हो या न हो लेकिन होम ट्यूशन में में तो काफी गड़बड़ है।


लोग कहते मिल जाते हैं;अरे!इससे क्या फायदा?ऐसा जो कहते हैं, उनसे हमारा कहना होता है कि बस!खा लो,पी लो।कपड़े पहन लो।अपने शरीर की परेशानियों के लिए रोते रहो, बस!यही है जीवन? जीवन में अपनी अंतर प्रतिभाओं के माध्यम से अपने अनुकूल संस्थाओं या मंच के सहयोग से सक्रिय रहो। पाठ्य सहगामी क्रियाओं को जीवन में महत्व देकर जीवन को सुंदर बनाते हैं। साहित्यसंगीतकलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः । तृणं न खादन्नपि जीवमानस्तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ॥

अन्वय : साहित्य-संगीत-कला-विहीनः पुच्छ-विषाण-हीनः साक्षात् पशुः तृणम् न खादन् अपि जीवमानः, तद् पशूनाम् परमम् भाग-धेयं ।

अर्थ – जो मनुष्य साहित्य, संगीत, कला, से वंचित होता है वह बिना पूंछ तथा बिना सींगों वाले साक्षात् पशु के समान है । वह बिना घास खाए जीवित रहता है यह पशुओं के लिए निःसंदेह सौभाग्य की बात है ।



गीता के 18 अध्याय से स्पष्ट है कि आस्था व नजरिया जीवन में काम आता है।मनोविज्ञान कहता है-हमारे अचेतन मन में क्या चल रहा है?वह इस तन के नष्ट होने के वाद भी हमारा सूक्ष्म शरीर को मजबूरन ढोहना पड़ता है। किशोरावस्था, जवानी की हमारी आदतें, दिनचर्या हमारे नजरिया व आस्था ,नियति के निर्माण में काफी सहायक होती हैं।




आदमी की असलियत बुढ़ापा आने पर दिखती है कि वास्तव में उसने क्या कमाया अपने जीवन में? 


हमारे जीवन में दिनचर्या और आदतों का प्रभाव मरते दम तक रहता है संतों की माने तो इस हाड़ मास शरीर के मरने के बाद भी उससे छुटकारा नहीं मिलता हमने जीवन में क्या किया है इसका असर स्पष्ट रूप से बुढ़ापे में लिखता है।



40-50 के बाद स्पष्ट होता है कि हमने जीवन में क्या कमाया हमने जीवन में क्या ग्रहण किया? अनेक लोगों को देखा गया है कि इससे पूर्व अपने इंद्रियों,दिमाग ,बाहु बल, धन बल, पद बल आदि के माध्यम न जाने क्या-क्या समाज में प्रदर्शन करते रहे हैं। 




किशोरावस्था तूफानी अवस्था होती है, इसके बाद 25 साल तक का जीवन भी भविष्य के लिए काफी  महत्वपूर्ण होता है।इस समय के खवाब, चिंतन, मनन, स्वप्न, नजरिया, आस्था आदि मरने के बाद भी छुटकारा नहीं छोड़ता। अनेक बुजुर्ग देखे गए हैं।जिनका शरीर, इंद्रियां, दिमाग कमजोर हो चुका होता है लेकिन कुछ आदतें, नजरिया, आस्था जो पहले जी होती है, उसका असर मन में खूब आ आकर परेशान करता है।बुढ़ापा पर हम उनसे छुटकारा चाहते हैं लेकिन छुटकारा नहीं मिलता।वह अचेतन मन की काफी गहराई तक प्रवेश कर चुका होता है।उसको भूलने के लिए न जाने क्या क्या प्रयत्न किए जाते हैं लेकिन उससे छुटकारा नहीं मिलता हां, वह कुछ समय के लिए दब अवश्य जाता है। एक बुजुर्ग थे, डॉक्टर ने उन्हें मना कर दिया कि मीठा खाना छोंड़ दो लेकिन उनको उसकी तलब लगी रहती। किशोरावस्था, युवावस्था में उन्होंने रसगुल्ला, छेना आदि खाने पर कंट्रोल नहीं क्या था।जब इच्छा होती थी, खा लेते थे लेकिन अब बुढ़ापा पर क्या करें? मन में काम भावना अब भी परेशान कर देती है लेकिन क्या करें?लोक मर्यादा आदि के कारण, शरीर व इंद्रियों की कमजोरी के बाबजूद मन नहीं मानता।



भारत में शिक्षा में जो बदलाव होना चाहिए था, वह अभी तक नहीं हुआ। मन प्रबन्धन के लिए शिक्षा, कुल व समाज का वातावरण कुछ भी नहीं परोसता। समाज में जो आध्यत्म, धर्मकांड आदि दिखते भी हैं, वे भी सिर्फ भौतिक प्रशिक्षण तक सीमित रह जाते हैं।धर्मस्थल आदि में भी जाते हैं तो वहां भी प्रार्थना भौतिक लालसाओं की पूर्ति के लिए होती है ,मोक्ष के लिए नहीं।

#अशोकबिन्दु


गुरुवार, 2 सितंबर 2021

पयुर्षण पर्व :: एक आध्यत्मिक पर्व::अशोकबिन्दु

 

पर्यूषण पर्व




 दशलक्षण जैन समाज का एक महत्वपूर्ण पर्व है। जैन धर्म धर्मावलंबी भाद्रपद मास में पर्यूषण पर्व मनाते हैं। श्वेताम्बर संप्रदाय के पर्यूषण 8 दिन चलते हैं। ८ वें दिन जैन धर्म के लोगो का महत्वपूर्ण त्यौहार संवतसरी महापर्व मनाया जाता है। इस दिन यथा शक्ति उपवास रखा जाता है। पर्यूषण पर्व कि समाप्ति पर क्षमायाचना पर्व मनाया जाता है। उसके बाद दिगंबर संप्रदाय वाले 10 दिन तक पर्यूषण मनाते हैं। उन्हें वे 'दसलक्षण धर्म' के नाम से भी संबोधित करते हैं।

जैन धर्म के दस लक्षण होते है। जैन धर्म के दस लक्षण इस प्रकार है:-

१) उत्तम क्षमा, २) उत्तम मार्दव, ३) उत्तम आर्जव, ४) उत्तम शौच, ५) उत्तम सत्य, ६) उत्तम संयम, ७) उत्तम तप,८) उत्तम त्याग, ९) उत्तम अकिंचन्य, १०) उत्तम ब्रहमचर्य।

कहते हैं जो इन दस लक्षणों का अच्छी तरह से पालन कर ले उसे इस संसार से मुक्ति मिल सकती है। पर सांसारिक जीवन का निर्वाह करने में हर समय इन नियमों का पालन करना मुश्किल हो जाता है और बहुत शुभ और अशुभ कर्मों का बन्ध हो जाता है। इन कर्मो का प्रक्षालन करने के लिए श्रावक उत्तम क्षमा आदि धर्मों का पालन करते है।

इन दस लक्षणों का पालन करने हेतु जैन धर्म में साल में तीन बार दसलक्षण पर्व मनाया जाता है।

  1. चैत्र शुक्ल ५ से १४ तक
  2. भाद्र शुक्ल ५ से १४ तक और
  3. माघ शुक्ल ५ से १४ तक।

भाद्रपद महीने में आने वाले दशलक्षण पर्व को लोगों द्वारा ज्यादा धूमधाम से मनाया जाता है।[1] इन दस दिनों में श्रावक अपनी शक्ति अनुसार व्रत-उपवास आदि करते है। ज्यादा से ज्यादा समय भगवन की पूजा-अर्चना में व्यतीत किया जाता है।

दसलक्षण धर्मसंपादित करें

{{मुख्य|दशलक्षण धर्म]] जैन ग्रन्थ, तत्त्वार्थ सूत्र में १० धर्मों का वर्णन है। यह १० धर्म है:[2]

  • उत्तम क्षमा
  • उत्तम मार्दव
  • उत्तम आर्जव
  • उत्तम सत्य
  • उत्तम शौच
  • उत्तम संयम
  • उत्तम तप
  • उत्तम त्याग
  • उत्तम आकिंचन्य
  • उत्तम ब्रह्मचर्य

दसलक्षण पर्व पर इन दस धर्मों को धारण किया जाता है।

उत्तम क्षमासंपादित करें

  • (क) हम उनसे क्षमा मांगते है जिनके साथ हमने बुरा व्यवहार किया हो और उन्हें क्षमा करते है जिन्होंने हमारे साथ बुरा व्यवहार किया हो॥ सिर्फ इंसानो के लिए हि नहीं बल्कि हर एक इन्द्रिय से पांच इन्द्रिय जीवो के प्रति जिनमें जीवन है उनके प्रति भी ऐसा भाव रखते हैं ॥
  • (ख) उत्तम क्षमा क्षमा हमारी आत्मा को सही राह खोजने मे और क्षमा को जीवन और व्यवहार में लाना सिखाता है जिससे सम्यक दर्शन प्राप्त होता है ॥ सम्यक दर्शन वो भाव है जो आत्मा को कठोर तप त्याग की कुछ समय की यातना सहन करके परम आनंद मोक्ष को पाने का प्रथम मार्ग है ॥
इस दिन बोला जाता है-

॥ मिच्छामि दुक्कडं ॥ ॥ सबको क्षमा सबसे क्षमा ॥

उत्तम मार्दवसंपादित करें

  • (क) अकसर धन, दौलत, शान और शौकत ईनसान को अहंकारी और अभिमानी बना देता है ऐसा व्यक्ति दूसरो को छोटा और अपने आप को सर्वोच्च मानता है॥

यह सब चीजें नाशवंत है यह सब चीजें एक दिन आप को छोड देंगी या फिर आपको एक दिन जबरन ईन चीजों को छोडना ही पडेगा ॥ नाशवंत चीजों के पिछे भागने से बेहतर है कि अभिमान और परिग्रह सब बूरे कर्म में बढोतरी करते है जिनको छोडा जाये और सब से विनम्र भाव से पेश आए सब जिवो के प्रति मैत्री भाव रखे क्योंकि सभी जिवो को जिवन जिने का अधिकार है ॥

  • (ख) मार्दव धमॅ हमे अपने आप की सही वृत्ति को समझने का जरिया है

सभी को एक न एक दिन जाना हि है तो फिर यह सब परिग्रहो का त्याग करे और बेहतर है कि खूद को पहचानो और परिग्रहो का नाश करने के लिए खूदको तप, त्याग के साथ साधना रुपी भठठी में झोंक दो क्योंकि इनसे बचनेका और परमशांति मोक्ष को पाने का साधना ही एकमात्र विकल्प है ॥

उत्तम आर्जवसंपादित करें

  • (क) हम सब को सरल स्वभाव रखना चाहिए बने उतना कपट को त्याग करना चाहिए॥
  • (ख) कपट के भ्रम में जीना दूखी होने का मूल कारण है॥

आत्मा ज्ञान, खुशी, प्रयास, विश्वास जैसे असंख्य गूणो से सिंचित है उस में ईतनी ताकत है कि केवल ज्ञान को प्राप्त कर सके॥ उत्तम आजॅव धर्म हमें सिखाता है कि मोह-माया, बूरे कमॅ सब छोड छाड कर सरल स्वभाव के साथ परम आनंद मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं ॥

उत्तम शौचसंपादित करें

  • (क) किसी चिज की इच्छा होना ईस बात का प्रतीक की हमारे पास वह चिज नहीं है तो बेहतर है की हम अपने पास जो है उसके लिए परमात्मा का शुक्रिया अदा करे और संतोषी बनकर उसी में काम चलाये ॥
  • (ख) भौतिक संसाधनों और धन दौलत में खूशी खोजना यह महज आत्मा का एक भ्रम है।

उत्तम शौच धमॅ हमे यही सिखाता है कि शुद्ध मन से जितना मिला है उसी में खूश रहो परमात्मा का हमेशा शुक्रिया मानों और अपनी आत्मा को शुद्ध बनाकर ही परम आनंद मोक्ष को प्राप्त करना मुमकिन है ॥

उत्तम सत्यसंपादित करें

  • (क) झूठ बोलना बूरे कमॅ में बढोतरी करता है ॥
  • (ख) सत्य जो 'सत' शब्द से आया है जिसका मतलब है वास्तविक होना॥

उत्तम सत्य धमॅ हमे यही सिखाता है कि आत्मा की प्रकृति जानने के लिए सत्य आवश्यक है और इसके आधार पर ही परम आनंद मोक्ष को प्राप्त करना मुमकिन है ॥ अपने मन आत्मा को सरल और शुद्ध बना लें तो सत्य अपने आप ही आ जाएगा ॥

उत्तम संयमसंपादित करें

पसंद नापसंद ग़ुस्से का त्याग करना। इन सब से छुटकारा तब ही मुमकिन है जब अपनी आत्मा को इन सब प्रलोभनों से मुक्त करे और स्थिर मन के साथ संयम रखें ॥ ईसी राह पर चलते परम आनंद मोक्ष की प्राप्ति मुमकिन है ॥

उत्तम तपसंपादित करें

  • (क) तप का मतलब सिर्फ उपवास भोजन नहीं करना सिफॅ इतना ही नहीं है बल्कि तप का असली मतलब है कि इन सब क्रिया के साथ अपनी इच्छाओं और ख्वाहिशों को वश में रखना ऐसा तप अच्छे गुणवान कर्मों में वृद्धि करते है ॥
  • (ख) साधना इच्छाओं की वृद्धि ना करने का एकमात्र मागॅ है ॥ पहले तीर्थंकर भगवान आदिनाथ ने करिब छह महीनों तक ऐसी तप साधना (बिना खाए बिना पिए) कि थी और परम आनंद मोक्ष को प्राप्त किया था ॥

हमारे तीर्थंकरों जैसी तप साधना करना इस जमाने में शायद मुमकिन नहीं है पर हम भी ऐसी ही भावना रखते है और पर्यूषण पवॅ के 10 दिनों के दौरान उपवास (बिना खाए बिना पिए), ऐकाशन (एकबार खाना-पानी) करतें है और परम आनंद मोक्ष को प्राप्त करने की राह पर चलने का प्रयत्न करते हैं ॥

उत्तम त्यागसंपादित करें

  • (क) 'त्याग' शब्द से हि पता लग जाता है कि इसका मतलब छोडना है और जीवन को संतुष्ट बना कर अपनी इच्छाओं को वश में करना है यह न सिर्फ अच्छे गुणवान कर्मों में वृद्धि करता है बल्कि बूरे कर्मों का नाश भी करता है ॥

छोडने की भावना जैन धर्म में सबसे अधिक है क्योंकि जैन संत सिफॅ घरबार नहीं यहां तक कि अपने कपडे भी त्याग देता है और पूरा जीवन दिगंबर मुद्रा धारण करके व्यतित करता है ॥ ईनसान की शक्ति इससे नहीं परखी जाती की उसके पास कितनी धन दौलत है बल्कि इससे परखी जाती है कि उसने कितना छोडा कितना त्याग किया है !

  • (ख) उत्तम त्याग धमॅ हमें यही सिखाता है कि मन को संतोषी बनाके ही इच्छाओं और भावनाओं का त्याग करना मुमकिन है ॥ त्याग की भावना भीतरी आत्मा को शुद्ध बनाकर ही होती है ॥

उत्तम आकिंचन्यसंपादित करें

  • (क) आँकिंचन हमें मोह को त्याग करना सिखाता है ॥ दस शक्यता है जिसके हम बाहरी रूप में मालिक हो सकते है; जमीन, घर, चाँदी, सोना, धन, अन्न, महिला नौकर, पुरुष नौकर, कपडे और संसाधन इन सब का मोह न रखकर ना सिफॅ इच्छाओं पर काबू रख सकते हैं बल्कि इससे गुणवान कर्मों मे वृद्धि भी होती है ॥
  • (ख) आत्मा के भीतरी मोह जैसे गलत मान्यता, गुस्सा, घमंड, कपट, लालच, मजाक, पसंद नापसंद, डर, शोक, और वासना इन सब मोह का त्याग करके ही आत्मा को शुद्ध बनाया जा सकता है ॥

सब मोह पप्रलोभनों और परिग्रहो को छोडकर ही परम आनंद मोक्ष को प्राप्त करना मुमकिन है ॥

उत्तम ब्रह्मचर्यसंपादित करें

  • (क) ब्रह्मचर्य हमें सिखाता है कि उन परिग्रहो का त्याग करना जो हमारे भौतिक संपर्क से जुडी हुई है

जैसे जमीन पर सोना न कि गद्दे तकियों पर, जरुरत से ज्यादा किसी वस्तु का उपयोग न करना, व्यय, मोह, वासना ना रखते सादगी से जीवन व्यतित करना ॥ कोई भी संत ईसका पालन करते है और विशेषकर जैनसंत शरीर, जुबान और दिमाग से सबसे ज्यादा इसका ही पालन करते हैं ॥

  • (ख) 'ब्रह्म' जिसका मतलब आत्मा, और 'चर्या' का मतलब रखना, ईसको मिलाकर ब्रह्मचर्य शब्द बना है, ब्रह्मचर्य का मतलब अपनी आत्मा मे रहना है ॥

ब्रह्मचर्य का पालन करने से आपको पूरे ब्रह्मांड का ज्ञान और शक्ति प्राप्त होगी और ऐसा न करने पर आप सिर्फ अपनी इच्छाओं और कामनाओ के गुलाम हि हैं ॥

इस दिन शाम को प्रतिक्रमण करते हुए पूरे साल मे किये गए पाप और कटू वचन से किसी के दिल को जानते और अनजाने ठेस पहुंची हो तो क्षमा याचना करते है ॥ एक दूसरे को क्षमा करते है और एक दूसरे से क्षमा माँगते है और हाथ जोड कर गले मिलकर मिच्छामी दूक्कडम करते है॥


उद्देश्यसंपादित करें

पर्यूषण पर्व मनाने का मूल उद्देश्य आत्मा को शुद्ध बनाने के लिए आवश्यक उपक्रमों पर ध्यान केंद्रित करना होता है। पर्यावरण का शोधन इसके लिए वांछनीय माना जाता है। आत्मा को पर्यावरण के प्रति तटस्थ या वीतराग बनाए बिना शुद्ध स्वरूप प्रदान करना संभव नहीं है। इस दृष्टि से'कल्पसूत्र' या तत्वार्थ सूत्र का वाचन और विवेचन किया जाता है और संत-मुनियों और विद्वानों के सान्निध्य में स्वाध्याय किया जाता है।

पूजा, अर्चना, आरती, समागम, त्याग, तपस्या, उपवास में अधिक से अधिक समय व्यतीत किया जाता है और दैनिक व्यावसायिक तथा सावद्य क्रियाओं से दूर रहने का प्रयास किया जाता है। संयम और विवेक का प्रयोग करने का अभ्यास चलता रहता है।

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