गुरुवार, 24 दिसंबर 2020

24-25दिसम्बर 2014ई0:: प्रथम प्राणाहुति दिवस

 20 - 27 दिसम्बर का समय हमारे लिए काफी महत्वपूर्ण रहा है। अनेक वर्षों से ये दिवस हम विशेष स्थितियों में रहे हैं। जिसके लिए लगभग 16 नबम्बर से ही संकेत/आभास मिलने लगते।आगे जिसका असर माघ के गुप्त नवरात्रि तक रहता। 





20दिसम्बर 2010 ई0 को श्री अर्द्ध नारीश्वर शक्ति पीठ, बरेली के प्रमुख  से संवाद व अनुभव के बाद अनेक दिन विशेष दशा।

20 दिसम्बर 2014 को श्री लाला जी महाराज दर्शन।

24 दिसम्बर 2014 को विश्व सरकार ग्रन्थ साहिब के दर्शन।

25दिसम्बर 2014 को श्रीरामचन्द्र मिशन में प्रथम प्राणाहुति ।

25 दिसम्बर धर्मवीर भारती का जन्मदिन।

25 दिसम्बर कल्पवृक्ष दिवस।

काया कल्प व्रत का प्रारंभ ।

अचेतन मन शुद्धिकरण क्रिया सप्ताह ।

रामप्राण / रमजान 40 दिवसीय पर्व।काया कल्प दिवस।

गुरुवार, 29 अक्तूबर 2020

हमारी जिंदगी नैतिक शिक्षा की वह किताब है जिसमें मोहम्मद व ईसा भी हैं।कोई बताए कि बसुधैव कुटुम्बकम का मतलब::अशोक बिंदु

 

काहे  का वसुधैव कुटुुंुंकम ,जगत का कल्याण  हो... चीखना?!   आचरण क्या है? ऋषि मुनि नबियों के बाद  आचार्य महत्वपूर्ण है  ,आचरण महत्वपूर्ण हैैै। इससे काम नहीं चलता कि जिंदगी भर चीखते रहो  -- जगत का कल्याण हो ,जगत का कल्याण हो । जगत में क्या  गैरमजहबी गैरजात के लोग नहीं रहते ?उनके प्रति भेदभावना रखना क्या उचित है ?जब वसुधैव कुटुंबकम ही है तो अपने परिवार तरह पूरे विश्व हो क्यों नहीं समझते ?जाति ,मजहब ,देश आदि की सीमाओं में क्यों बैठे हुए हो  ? विश्व सरकार ,विश्व बंधुत्व  की बात क्यों नहीं करते ?
दाल में जरूर काला है? हमें लगता है पूरी दाल ही काली है?
 ऐसे काम नहीं चलेगा । ये यह कहने से काम नहीं चलेगा कि हम पूजा पाठ के समय कहते रहते हैं जगत का कल्याण हो जगत का कल्याण हो हमारा आचरण क्या है हमारा नजरिया क्या है हम सीखते हैं अधर्म का नाश हो लेकिन हमें पहले यह तो बताओ धर्म क्या है धर्म क्या है एक जाट विशेष समूह के कर्मकांड अंधविश्वास क्या धर्म है दूसरी जाति दूसरे मजहब के कर्मकांड अंधविश्वास अधर्म है हमें इंसानियत से कोई मतलब नहीं हमें वसुधैव कुटुंबकम से कोई मतलब नहीं हमें विश्व बंद से कोई मतलब नहीं यह कैसा सीखना है कैसा चीखना की जगत का कल्याण हो लेकिन कर क्या रहे हो लोग लालच के लिए दूसरों के खिलाफ दूसरे जाति मजहब के खिलाफ हिंसा भी करने को तैयार हो जो गलत है तुम चाहते हो जो हमारे साथ ना हो वह दूसरे के साथ भी ना हो जो कुकर्म हम अपने साथ नहीं चाहते हैं वह कुकर्म हम दूसरों के साथ भी ना चाहे हमारी जाति हमारे मजहब का अपराधी अपराधी ही होना चाहिए हमारी जाति हमारे मजहब का नहीं आखिर तुम्हारे वसुधैव कुटुंबकम की भावना से मतलब क्या है?

आज मोहम्मद साहब का जन्मदिन हम भी मना रहे हैं क्योंकि हमारे लिए वसुधैव कुटुंबकम विश्व बंधुत्व का मतलब बहुत कुछ है तुम जियो जातिवाद में तुम जियो मजहब बाद में तुम जियो देश बाद में हम जीने चल रहे हैं वसुधैव कुटुंबकम विश्व बंधुत्व की भावना के साथ विश्व सरकार की कल्पना को लेकर आध्यात्मिक गुरु दलाई लामा का भी कहना है मानव समाज की समस्याएं विश्व सरकार विश्व बंधुत्व वसुधैव कुटुंबकम की भावना से ही समाप्त हो सकती हैं विश्व के सामने कोई समस्या नहीं है कुदरत के सामने कोई समस्या नहीं है जो भी समस्याएं हैं वह मनुष्य के समाज में हैं कुदरत की नजर से ब्रह्मांड की नजर से विश्व की नजर से आत्मा की नजर से परमात्मा की नजर से हाड मास शरीर की नजर से हम कहना चाहेंगे मनुष्य स्वयं एक समस्या बन गया है कुदरत की कोई जात नहीं कुदरत का कोई मजहब नहीं ब्राह्मण ब्रह्मांड की कोई जात नहीं ब्रह्मांड का कोई मजहब नहीं इस हार्मा शरीर का इस हाड मास शरीर का आत्मा का परम आत्मा का कोई मजहब नहीं कोई जात नहीं कोई निश्चित एक देश नहीं हमें आश्चर्य होता है आप कहते फिरते हो हम अपने धार्मिक कर्मकांड में कहते हैं जगत का कल्याण हो मात्र कहने से काम नहीं चलेगा उठो जागो अपने को पहचानो हमारे अंदर कुछ है जो अनंत से जुड़ा है जो स्वतः है जो निरंतर है उसकी कोई जात नहीं उसका कोई मजहब नहीं।


हम संत परंपरा का सम्मान करते हैं हम संत गुरु नानक का सम्मान करते हैं जिन की धमक काबा तक थी अब भी उनकी निशानियां काबा में काबा की हवा में मौजूद हैं हम मोहम्मद साहब की दोस्तों को सलाम करते हैं अंतर नमन करते हैं उस सम्मान देते हैं हम कैसे भूल सकते हैं एक दुष्ट महिला जो उन पर कूड़ा फेंका करती थी उसके स्वास्थ्य की चिंता के लिए बेहतर हो जाते हैं हम कहां पर खड़े हैं मोहम्मद साहब के अनुयाई कहां पर खड़े हैं हम अपनी असल जिंदगी में हम वास्तव में आचरण से मोहम्मद साहब के साथ क्या खड़े हैं अर्थात क्या हम उनके संदेशों से अपने जीवन को सुंदर बना देना चाहते हैं या फिर जातीय मजहबी पुरोहितों के जाल में फंस कर भीड़ हिंसा सांप्रदायिकता नफरत द्वेष आदि के समर्थन में खड़े होकर पूरे विश्व में मानव समाज में विकास खड़ा करना चाहते हैं धर्म क्या है धर्म है अपराध के खिलाफ खड़े होना धर्म है दूसरों को कष्ट ना देना जो हम अपने साथ नहीं चाहते जो हम अपनी बहू बेटियों के साथ नहीं चाहते वह हम दूसरों के साथ भी ना करें यही हमारा धर्म है कुदरत से बढ़कर कोई नहीं

बुधवार, 28 अक्तूबर 2020

आत्मा आत्मियता प्रकाश 360अंश विस्तृत::अशोकबिन्दु

 "अपना काम बनता भाड़ में जाए जनता"-ये कहने वाले जन्मजात उच्चवाद, जन्मजात व्यवस्था, शिक्षक, ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि ही कहते मिल जाते हैं।लेकिन इनके जीवन में कोई अधिकार नहीं कर्तव्य ही कर्तव्य होते हैं, जगत कल्याण इनका हेतु होता है।



हमारे लिए 'स्वार्थ' है-आत्मा के लिए, आत्मा के धर्म -आत्मियता के लिए जीना। जिसका प्रकाश 360 अंश हर ओर फैलता है।इसलिए हम हृदय पर ध्यान को महत्व देते हैं। कुंडलिनी जागरण व सात शरीर, विराट रूप,अनन्त यात्रा में रुचि रखने वाले जानते होंगे हृदय चक्र व आस पास के बिंदुओं का जीवन में क्या महत्व है।

साइंस भी इधर के सुप्रीम साइंस की ओर पहुंचना शुरू होगया।हर विषय का आधार दर्शन ही है। जगदीश चन्द्र बसु जंतुओं की भांति वनस्पतियों में भी सम्वेदना/आत्मियता की बात करते हैं। कोई वैज्ञानिक ये कहता है-हमें ईंट में भी रोशनी दिखाई देती है, तो आप उस पर हंस सकते हैं।हम तो कहेंगे कि आत्मसाक्षात्कार से जी जीवन व परम् आत्मा की ओर, अनन्त यात्रा की ओर की यात्रा शुरू होती है।

पौराणिक अनेक घटनाएं अनेक को बकवास लगतीं है।हमें भी बकवास लगती थीं लेकिन मेडिटेशन करते करते जब हम जितना गहराई पकड़ते हैं-सब छंटता जा रहा है।हनुमान का सूरज भी निगलना, विश्वामित्र का अन्य धरती, प्रकृति अवयवों के निर्माण की क्षमता प्राप्त करना, अपनी सोलह रानियों के साथ एक ही समय पर एक साथ पंहुचना आदि सहज मार्ग में विज्ञान के साथ अनुभव में है।


हमने देखा है जब हम पढ़ते थे तो कुछ टीचर वृत्त में विद्यार्थियों को बैठालते थे और स्वयं बीच में बैठ जाते थे।कुछ टीचर विद्यार्थियों को यू या सी आकार में बैठालते थे।अब भी कुछ उच्च स्तरीय व अंतरराष्ट्रीय विद्यालयों में क्लास c या u आकार में लगाए जाते हैं। इसके पीछे भी एक सनातन दर्शन छिपा हुआ है।


और.... स्वार्थ?!हमारे स्वार्थ का सम्मान होना चाहिए।किसी आध्यात्मिक व्यक्ति का बोलना क्या होता है?एक अंतर्मुखी का बोलना क्या होता है?एक चिंतन मनन में रहने वाले का बोलना क्या होता है?सहजता...... ये सहजता में बोलना क्या है? 


मंगलवार, 27 अक्तूबर 2020

वेद मत सर्वत्र लेकिन अंतर व अनन्त प्रवृत्ति::अशोक


 ये सब ठीक है लेकिन वर्तमान जो आस्तिक भी है वे भी भ्रम में है। जिनको देख कर अनेक को कहना पड़ा कि हम आपके ईश्वरों को नहीं मानते।ईश्वर को मानने के नाम पर भी क्या है? पास पड़ोस में लगभग सभी ईश्वर के नाम पर भ्रम में हैं।उन्हें इसका भी अहसास नहीं कि ब्रह्मा, विष्णु व महेश से ऊपर भी कोई है?उन्हें ये भी नहीं पता कि अपने अंदर की आत्मा के माध्यम से ही हम परम्आत्मा की ओर जा सकते हैं?और फिर एक बात ये भी  कि जो आस्तिक है वे अपने जीवन में चाहते क्या हैं?एक आस्तिक होने के नाते उनकी चाहते नहीं दिखती। इस क्षेत्र में भी अनेक शब्द प्रचलित कर दिए गए हैं;योग,भक्ति, आस्तिक, यथार्थ आदि लेकिन सबकी जड़ एक ही है-अनन्त यात्रा व प्रकृति अभियान(यज्ञ)।यथार्थ ये है कि जो भी दिख रहा है, वह प्रकृति है।उस बीच वह भी जो निरन्तर है, सनातन है, स्वतः है, अनन्त है।दूसरा बनाबटी, कृत्रिम आदि।जो के तीन स्तर हैं-स्थूल, सूक्ष्म व कारण।वह नजर पैदा हो जाना ही योग/आल/अल/all/आदि है जब हमें अनेकता में एकता, विविधता में एकता, अनेक में एक, वसुधैव कुटुम्बकम, सागर में कुम्भ कुम्भ में सागर....आदि दिखाने लगे।हमारी नजर में आर्य है वह व्यक्ति सभी प्राणियों में एक ईश्वर की रोशनी देखे और सिर्फ आत्मरक्षा के लिए हिंसा ऊपरी मन से करे। वेद?वेद सिर्फ पुस्तक ही नहीं है, एक वह दशा भी है जो प्रकृति, ब्रह्मांड, जीव जंतुओं  आदि पर सार्वभौमिक नजर दे जो कि स्वतः वेद स्वरूप जो जाएगा क्यों न उसे वेद का कोई श्लोक याद न हो।हर शब्द, हर वाक्य, हर श्लोक, हर आयत, हर पुस्तक के पीछे भी स्थूल, सूक्ष्म व कारण स्थितियां छिपी हैं।हमने कुछ सन्त देखे हैं जो  जमाने के ग्रन्थ नहीं पढ़े लेकिन वह भावना से ,नजरिया से,व्याख्या से वैदिकता व सनातन में ही है। कुछ शोध कह रहे हैं कि जहाँ जमाने के ग्रन्थ, धर्मस्थल,धर्म नहीं  पहुंचे वहाँ भी कुछ लोग जिस भाव, विचार, आस्था, नजरिया आदि में जीते थे वह सनातन, वैदिकता, मानवता आदि के समकक्ष ही थी।



अंतर जगत में अब भी सर्वव्याप्त मत है-वेद मत, जहां से सनातन की शुरुआत होती है लेकिन 98.8 प्रतिशत अभी इससे नीचे के मत/स्तर/क्लास में ही हैं। चेतना के अनन्त बिंदु अनन्त स्तर हैं।आत्मा अनन्त मुखी है। 

www.heartfulness.org/education


www.ashokbindu.blogspot.com

सोमवार, 26 अक्तूबर 2020

धर्म पथ बनाम अधर्म पथ::अशोकबिन्दु

 धर्म पथ बनाम अधर्म पथ!!

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आप लोगों के धर्म /मजहब /जाति /आस्था /श्रद्धा आदि हमारी समझ में नहीं आते ?

मार्टिन लूथर की तरह हम पढ़े लिखे हैं !

हमने जो जाना है जो जान रहे हैं वह महत्वपूर्ण है !

आत्म प्रबंधन व समाज प्रबंधन ग्रंथों महापुरुषों का हेतु रहा है ।

जिस की समस्याओं का हल मानवता व अध्यात्म से ही संभव है। मनुष्य निर्मित प्रबंधन से भी बढ़कर है प्राकृतिक व सार्वभौमिक प्रबंधन। हाड़ मास शरीर, दिल दिमाग आदि का प्रबंधन ही हमारा धर्म है ।जो आवश्यकता है इच्छा नहीं।

मार्टिन लूथर ने कहा था - "मैं शिक्षित हूं हमें तुम्हारी बातों से कोई मतलब नहीं हम स्वयं पढ़ सकते हैं ग्रंथों में क्या लिखा है? हम स्वयं महसूस कर सकते हैं ईश्वर को विभिन्न क्रियाओं के माध्यम से। हमें दलालों की जरूरत नहीं है।"


 धर्म के पथ पर अपना कोई नहीं होता ।अधर्म के पथ पर अपना कोई नहीं होता ।

जो पथ पर हमारे साथ है वही अपना है और न ही कोई अपना दुश्मन होता है। हम ही स्वयं अपने दुश्मन होते हैं और अपने मित्र होते हैं ।

हमें किन विचारों किन भावनाओं किन नियमों के आधार पर चलना है ?हमें ये स्वयं तय करना है ।लोग क्या कहते हैं -हमें इस से मतलब नहीं ।

हमारा चरित्र है जो , वह सिर्फ हमारे पास है उसे और कोई नहीं जान सकता ।समाज की नजर में हम चरित्र नहीं खड़ा कर सकते ।समाज में उन लोगों की नजर में जो जाति मजहब ,लोभ लालच, झूठ ,अज्ञानता, अंधविश्वास ,मनमानी आदि के आधार पर अपना जीवन जी रहे हैं ।हमें अपना चरित्र अपनी क्षमता ,अपनी प्रतिभा, अपने अंदर की दिव्य शक्तियों के आधार पर खड़ा करना है । हमारा चरित्र है -महापुरुषों के संदेशों से प्रेरणा लेकर चलने की कोशिश करना।हमारा चरित्र है मानवता के संदेशों को स्वीकार कर आगे बढ़ने की कोशिश करना। सारी कायनात का हम हिस्सा हैं ।

हम हाड़ मांस शरीर हैं। हम आत्मा हैं। हम बुद्धि हैं। हम दिल हैं ।हम  जो स्वयं अपनी आवश्यकताएं रखता है जो स्वयं अपना एक प्रबंधन रखता है उसको जाति मजहब से मतलब नहीं उसे देश विदेश से मतलब नहीं ।उसे उन नियमों से मतलब है जिनसे वह जुड़ा है ।जो प्रकृति अभियान का हिस्सा है। जो ईश्वरी अभियान का हिस्सा है। जो हमें अनंत - शाश्वत से जोड़ता है। हमें आपके धर्मों से कोई मतलब नहीं। हमारे अंदर वह है जो निरंतर है। हमरा वही धर्म है। 


 हिन्दुओ की मनुस्मृति कहती है-


धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः ।

धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् । ।


 पहला लक्षण – सदा धैर्य रखना, दूसरा – (क्षमा) जो कि निन्दा – स्तुति मान – अपमान, हानि – लाभ आदि दुःखों में भी सहनशील रहना; तीसरा – (दम) मन को सदा धर्म में प्रवृत्त कर अधर्म से रोक देना अर्थात् अधर्म करने की इच्छा भी न उठे, चैथा – चोरीत्याग अर्थात् बिना आज्ञा वा छल – कपट, विश्वास – घात वा किसी व्यवहार तथा वेदविरूद्ध उपदेश से पर – पदार्थ का ग्रहण करना, चोरी और इसको छोड देना साहुकारी कहाती है, पांचवां – राग – द्वेष पक्षपात छोड़ के भीतर और जल, मृत्तिका, मार्जन आदि से बाहर की पवित्रता रखनी, छठा – अधर्माचरणों से रोक के इन्द्रियों को धर्म ही में सदा चलाना, सातवां – मादकद्रव्य बुद्धिनाशक अन्य पदार्थ, दुष्टों का संग, आलस्य, प्रमाद आदि को छोड़ के श्रेष्ठ पदार्थों का सेवन, सत्पुरूषों का संग, योगाभ्यास से बुद्धि बढाना; आठवां – (विद्या) पृथिवी से लेके परमेश्वर पर्यन्त यथार्थ ज्ञान और उनसे यथायोग्य उपकार लेना; सत्य जैसा आत्मा में वैसा मन में, जैसा वाणी में वैसा कर्म में वर्तना इससे विपरीत अविद्या है, नववां – (सत्य) जो पदार्थ जैसा हो उसको वैसा ही समझना, वैसा ही बोलना, वैसा ही करना भी; तथा दशवां – (अक्रोध) क्रोधादि दोषों को छोड़ के शान्त्यादि गुणों का ग्रहण करना धर्म का लक्षण है ।


धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः । 

धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् । ।


हम तो इतना ही जानते हैं कि दिल, दिमाग, शरीर की कोई जाति, कोई मजहब नहीं।उसका एक सिस्टम है,उसकी आवश्यकताएं हैं।उसके प्रति कर्तव्य हैं। चारो ओर सामने प्रकृति है।सारी कायनात है।प्रबन्धन - कुप्रबन्धन है। हमारे लिए दुनिया में आचरण से दो ही तरह के लोग हैं-सुर व असुर।हमें जीवन को समझना है।मृत्यु से पूर्व जीवन(शाश्वत) से जुड़ना है। जहां जाति, मजहब आदि मायने नहीं रखते।हमारे पथ पर हमारे साथ कौन है, ये महत्वपूर्ण है।


हम अभ्यासी/शिष्य/सिक्ख हैं। हमें अभ्यास ही शिष्यत्व ही निरन्तर बनाए रख सकता है।हमारा विकास विकास नहीं है।विकासशील है।सनातन निरन्तर है...अनन्त है....सागर में कुम्भ कुम्भ में सागर.....


#अशोकबिन्दु


गुरुवार, 8 अक्तूबर 2020

कपाल क्रिया स्थूल से सूक्ष्म की ओर


 कपाल क्रिया सूक्ष्म से सूक्ष्म की ओर🌹🌹 प्रत्येक व्यक्ति उस इंद्रिय से मरता है, जिस इंद्रिय के पास जीया। 🙏🙏


यह जानकर तुम हैरान होओगे कि प्रत्येक व्यक्ति अलग इंद्रिय से मरता है। किसी की मौत आंख से होती है, तो आंख खुली रह जाती है—हंस आंख से उड़ा। किसी की मृत्यु कान से होती है। किसी की मृत्यु मुंह से होती है, तो मुंह खुला रह जाता है। अधिक लोगों की मृत्यु जननेंद्रिय से होती है, क्योंकि अधिक लोग जीवन में जननेंद्रिय के आसपास ही भटकते रहते हैं, उसके ऊपर नहीं जा पाते। तुम्हारी जिंदगी जिस इंद्रिय के पास जीयी गई है, उसी इंद्रिय से मौत होगी। औपचारिक रूप से हम मरघट ले जाते हैं किसी को तो उसकी कपाल—क्रिया करते हैं, उसका सिर तोड़ते हैं। वह सिर्फ प्रतीक है। समाधिस्थ व्यक्ति की मृत्यु उस तरह होती है। समाधिस्थ व्यक्ति की मृत्यु सहस्रार से होती है।


जननेंद्रिय सबसे नीचा द्वार है। जैसे कोई अपने घर की नाली में से प्रवेश करके बाहर निकले। सहस्रार, जो तुम्हारे मस्तिष्क में है द्वार, वह श्रेष्ठतम द्वार है। जननेंद्रिय पृथ्वी से जोड़ती है, सहस्रार आकाश से। जननेंद्रिय देह से जोड़ती है, सहस्रार आत्मा से। जो लोग समाधिस्थ हो गए हैं, जिन्होंने ध्यान को अनुभव किया है, जो बुद्धत्व को उपलब्ध हुए हैं, उनकी मृत्यु सहस्रार से होती है।


उस प्रतीक में हम अभी भी कपाल—क्रिया करते हैं। मरघट ले जाते हैं, बाप मर जाता है, तो बेटा लकड़ी मारकर सिर तोड़ देता है। मरे—मराए का सिर तोड़ रहे हो! प्राण तो निकल ही चुके, अब काहे के लिए दरवाजा खोल रहे हो? अब निकलने को वहां कोई है ही नहीं। मगर प्रतीक, औपचारिक, आशा कर रहा है बेटा कि बाप सहस्रार से मरे; मगर बाप तो मर ही चुका है। यह दरवाजा मरने के बाद नहीं खोला जाता, यह दरवाजा जिंदगी में खोलना पड़ता है। इसी दरवाजे की तलाश में सारे योग, तंत्र की विद्याओं का जन्म हुआ। इसी दरवाजे को खोलने की कुंजियां हैं योग में, तंत्र में। इसी दरवाजे को जिसने खोल लिया, वह परमात्मा को जानकर मरता है। उसकी मृत्यु समाधि हो जाती है। इसलिए हम साधारण आदमी की कब्र को कब्र कहते हैं, फकीर की कब्र को समाधि कहते हैं—समाधिस्थ होकर जो मरा है।


प्रत्येक व्यक्ति उस इंद्रिय से मरता है, जिस इंद्रिय के पास जीया। जो लोग रूप के दीवाने हैं, वे आंख से मरेंगे; इसलिए चित्रकार, मूर्तिकार आंख से मरते हैं। उनकी आंख खुली रह जाती है। जिंदगी—भर उन्होंने रूप और रंग में ही अपने को तलाशा, अपनी खोज की। संगीतज्ञ कान से मरते हैं। उनका जीवन कान के पास ही था। उनकी सारी संवेदनशीलता वहीं संगृहीत हो गई थी। मृत्यु देखकर कहा जा सकता है—आदमी का पूरा जीवन कैसा बीता। अगर तुम्हें मृत्यु को पढ़ने का ज्ञान हो, तो मृत्यु पूरी जिंदगी के बाबत खबर दे जाती है कि आदमी कैसे जीया; क्योंकि मृत्यु सूचक है, सारी जिंदगी का सार—निचोड़ है—आदमी कहां जीया।


🙏🏻आपका दिन उन्नति कारक हो🙏🏻


# अज्ञात लेखक

गुरुवार, 10 सितंबर 2020

स्वच्छता ही ईश्वर है::महात्मा गांधी

 जहां सोच है वहां शौंचालय है!

सन्तों ने कहा है-न काहू से दोस्ती न काहू से बैर।

महात्मा गांधी से हमें न बैर है न दोस्ती। हमारा धर्म कहता है, सबका सम्मान करो।जब सागर में कुम्भ कुम्भ में सागर।

भारतीय स्वच्छता अभियान को गांधी जोड़ने के पीछे जो मंशा है, वहां तक लोग नहीं पहुंचते हैं।

इस पर भी नहीं पहुंचते हैं-जहां सोच है वहां शौचालय है।

हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं।हमने इसे महसूस किया है।हम इसे जिए हैं। स्वच्छता ही ईश्वर है, इसे गांधी को क्यों कहना पड़ा?

जब हम सहज हुए हैं, डेढ़ साल के बच्चे की तरह हुए हैं, हमने स्वयं अपने अंदर अनेक जीव जंतुओं के अंदर प्रकाश या चेतना या  जगदीश चन्द्र बसु की सर्वव्याप्त सम्वेदना/आत्मियता/आत्मात्व को देखा है।



स्वच्छता का हर व्यक्ति, हर पन्थ में महत्व रहा है।लेकिन हम देखते हैं, ये स्वच्छता  सिर्फ  स्थूल  तक ही सीमित है। विचारात्मक, भावात्मक, मनस आदि स्तर पर स्वच्छता को महत्व नहीं दिया जाता है। हम स्थूल,सूक्ष्म व कारण स्तर पर हम व हमारा सिस्टम स्वच्छता पर ध्यान नहीं दे रहा है।


स्वच्छता के साथ आत्मा का क्या सम्बन्ध है?स्वच्छता का परम् आत्मा के साथ क्या सम्बन्ध है? 

हमारा अपने व अन्य हाड़ मास शरीरों के साथ क्या भाव, विचार व समझ होनी चाहिए?

हमारा प्रकृति के अन्य वस्तुओं के साथ क्या भाव, विचार व समझ होना चाहिए?

यही भाव, विचार व समझ ही हमारी स्वच्छता या अस्वच्छता को व्यक्त करता है।

यहां पर हमारे अपने व अन्य हाड़ मास शरीरों, प्रकृति की अन्य वस्तुओं के कर्तव्य महत्वपूर्ण करता है न कि उम्मीदें/इच्छाएं/भोग।

हमारी सहज मार्ग प्रार्थना में पंक्तियां आती हैं-

"हम अपनी इच्छाओं के गुलाम हैं 

जो हमारी उन्नति में बाधक है।"


ये सहज मार्ग प्रार्थना क्या है?


"हे नाथ!

तू ही मनुष्य जीवन का वास्तविक ध्येय है।

हम अपनी इच्छाओं के गुलाम हैं

जो हमारी उन्नति में बाधक है।

तू ही एक मात्र ईश्वर एवं शक्ति है

जो हमे उस लक्ष्य तक ले चल सकता है। "

हम आत्मा व परम् आत्मा से प्रकाशित कब हो सकते हैं?

पवित्रता से ,स्वच्छता से।

ये पवित्रता व स्वच्छता अनेक स्तर पर है। अनेक तरह से है।



रविवार, 6 सितंबर 2020

विज्ञान और आध्यात्मिकता::अशोकबिन्दु

 


पृष्ठ 139,

विज्ञान और आध्यात्मिकता,

पुस्तक-वे, हुक्का और मैं

बाबूजी महाराज!


" आज आधुनिक विश्व में या कहें कि विश्व मंच पर विज्ञान और आध्यात्मिकता पर बहस होती रहती है। क्या विज्ञान ऐसी कोई चीज है। मुझे ठीक से पता नहीं पर शायद शताब्दियों से पुनर्जागरण के समय से विज्ञान पूरी तरह से स्वीकृत हो चुका है। आरंभ में अंधविश्वास माना जाता था। उन दिनों मेरे विचार में विज्ञान और अंधविश्वास दोनों थे। क्या ये सच है कि बारूद से ...!?हां, परीक्षण द्वारा सिद्ध है ।जिस चीज का भी आप परीक्षण कर सकते हैं ।वह प्रमाणित हो जाती थी ।और विज्ञान की मांग यह है कि उसे सिद्ध किया जाए ।एक बार नहीं बार-बार ।चाहे जो भी उस परीक्षण को करें ।विज्ञान की समस्या यही है। मैं ईश्वर को अनुभव करता हूं ।मगर मुझे वह दिखाई नहीं देता । अरे,वह कुर्सी पर बैठे हैं लेकिन मुझे दिखाई नहीं देते ।जबकि विज्ञान में परीक्षा और परिणाम किसी के भी द्वारा और हर एक के द्वारा बार-बार दोहराने लायक होने चाहिए ।  "


पुस्तक'वे, हुक्का और मैं' के इस अध्याय -'विज्ञान और आध्यत्मिकता' की कुछ पंक्तियां हम ये लिख रहे है। ये पुस्तक हम अनेक केंद्रों, आश्रम व यहाँ तक कान्हा में भी तलाश कर चुके हैं लेकिन प्राप्त हुई है।जब हमें ऐसे पढ़ना होता है तो नगर में ही एक अभ्यासी श्री ब्रह्माधार मिश्रा के यहां से पढ़ने के लिए ले आते हैं। हां, तो-

"   और विज्ञान का दावा है कि वैज्ञानिक सब कुछ जानते हैं ।दार्शनिक अपने अंदाज में दावा करते हैं कि वह बहुत कुछ जानते हैं ।रहस्यवादी कभी-कभी भिखारी जैसे प्रतीत होते हैं ।तभी वे मौजूद होते हैं। कभी गायक ।और अपने बारे में बहुत कम बताते हैं। उनमें से बहुत  से संकोची और गंभीर स्वभाव के होते हैं। लेकिन उनमें असाधारण शक्तियां होती हैं । इससे सवाल उठता है कि क्या ज्ञान और शक्ति दो भिन्न चीजें हैं या जैसा हम समझते हैं या जैसा कि पाश्चात्य विज्ञान कहता है ।विज्ञान से ज्ञान प्राप्त होता है । यदि यह सच है तो फिर रहस्यवाद न होता न संत होते न ही ऋषि। तो फिर वही पुराना सवाल आता है - पहले अंडा हुआ या मुर्गी ? पहले बीज हुआ या वृक्ष? किसी ने मजाक में बाबू जी से पूछा इस बारे में आपका क्या ख्याल है पहले बीज निर्मित हुआ था या पहले वृक्ष बनाया गया था पहले बाबू जी ने कहा ईश्वर मूर्ख नहीं है कि अपने साथ में लेकर चले सैकड़ों हजारों पेड़ । और फिर जहां चाहा वहां लगा दिया। जबकि वह अत्यंत छोटे-छोटे बीज बना सकता था । और वह अपनी जेब में लाखों बीज लेकर चल सकता था । अतः जब हम ईश्वर को बुद्धिमान   मानते हैं जैसा कि पश्चिम के लोग कहते हैं, ईसाई धर्म कहता है। हमें मान लेना चाहिए था कि उन्हें इस सवाल का जवाब मालूम होगा। वास्तव में यह बात सच है । स्पष्ट है स्वत: ही प्रमाणित है कि ऐसे सवाल कभी पूछो ही नहीं जाने चाहिए थे। पर उन्होंने पूछा और मेरे बाबूजी महाराज ने इसका जवाब दिया ईश्वर मूर्ख नहीं है कि वह पेड़ बनाए और उन्हें साथ लिए लिए फिरता रहे। यह तो फ्रांसीसी चित्र कथा एस्ट्रिक्स की तरह है। जिसमें वह पीठ पर भारी भारी पत्थर लेकर चलता है। जो तय करता है कि वह गाल अर्थात फ्रांस देश का प्राचीन नाम को ढूंढ निकालेगा। और गाल को ढूंढ निकालता है । किस किस्म की समझदारी है ।उन्हें पता होता है कि वे क्या खोजने जा रहे हैं जो निहायत बेवकूफी की बात है ।क्योंकि हम किसी चीज के बारे में उसकी खोज ही जाने के बाद ही जानते हैं। फिर एस्ट्रिक्स    की खूब बिक्री होती है। कुछ लोग इसे कला मानते हैं ।कुछ ऐसे साहित्य मानते हैं ।इत्यादि इत्यादि। माइटी माउस , माइटी मैन इस सब चित्र कथाएं.... किसी न किसी प्रकार मानव को अपने पर्यावरण का अधिकार प्राप्त करने की इच्छा दर्शाती हैं। देखिए जब एस्ट्रिक्स के उस आदमी की बात करते हैं जो अपनी पीठ पर क्या कहते हैं उसे ?ओबेलिस्क?  हां - 'मेंहिर' - हम मान लेते हैं कि कुछ ऐसे लोग रहे होंगे जो अपनी पीठ पर 200 टन का बोझ लेकर चल सकते हो तो महान बनने की शक्तिशाली और ताकतवर बनने की मानवी आकांक्षा है। हमारे पुराणों की, शास्त्रों की सारी कहानियां, जो गधे के जबड़े की हड्डी की कहानी या वह गुलेल जिससे डेविड ने गोलियथ को मार डाला। इन सभी में या तो मानवी शक्ति मानवी कल्याण मानवीय श्रेष्ठता प्रदर्शित होती है। या फिर वे दिखाती हैं कि वह एक नरम स्वभाव वाला आदमी है दब्बू किस्म का आदमी है छोटा सा साधारण आदमी है जिसमें स्वयं   परमात्मा की शक्ति मौजूद है  जैसी डेबिट मे थी और जब गोलियथ आया उसने उसके ललाट पर इस तरह चोट की और गोलियां जैसा विशालकाय राक्षस मर गया । यही बात गधों के जबड़े की हड्डी की या फिर शेर की कहानी में है अतः या तो हमें शारीरिक श्रेष्ठता है या फिर मनुष्य में ईश्वर का वास होने के कारण उसे श्रेष्ठता प्रदान की गई है । उसे ईश्वरी सामर्थ्य का वरदान दिया गया है । बाइबिल में बे बार-बार कहते हैं-😢 हे इजराइल के ईश्वर ...! 

विज्ञान और धर्म के अनुसार हम इनमें से कोई एक  चुन सकते हैं या तो आप धार्मिक हो सकते हैं । पर इससे भी आपको ऐसा व्यक्ति होना पड़ेगा जिसने अपने को भुला दिया हो जो आप अपने लिए नहीं जीता जिसने स्वयं को सर्वशक्तिमान परमात्मा के प्रति समर्पित कर दिया हो और सब परमात्मा एक प्रकार से उस में प्रवेश कर जाता है । वह आवेशित हो जाता है किसी दुष्ट आत्मा से नहीं बल्कि स्वयं परमात्मा से । तब हम आध्यात्मिक व्यक्ति की सामर्थय देखते हैं। जो अपने समय  के महानतम शासकों से भी विरुद्ध खड़े हुए चाहे वह हिरोद हो या फिर सीजर हो। यही बात हम अपनी हिंदू परंपरा हिंदू धर्म में भी देखते हैं नन्हा प्रहलाद और उसका पिता राक्षस सम्राट । एक और दो सामान्य मनुष्य राम और लक्ष्मण दूसरी ओर रावण एक राजा । अपनी पूरी ताकत के साथ जिसमें तपस्या से प्राप्त किए गए , ऐसे वरदान की शक्तियां भी शामिल थी जिन्हें उनकी तपस्या के फलस्वरूप प्रसन्न होकर भगवान ने स्वयं प्रकट होकर वरदान मांगने के लिए कहा और उन्होंने जो भी वरदान माला उसके लिए कह दिया - तथास्तु । लेकिन जब उन्होंने मागा तो वे भूल गए तो वे भूल कर गए। प्रहलाद के पिता हिरण्य कश्यप ने कहा , न मैं घर के के अंदर मरूं न  बाहर ना जमीन पर न आसमान में न ठोस वस्तु से न तरल वस्तु से, न दिन में न रात में , न आदमी से और न ही जानवर से मारा जाऊं ," इत्यादि । और परमात्मा ने स्वयं नरसिंह रूप धारण कर यह संभव कर दिखाया । न आदमी न जानवर , उन्होंने उसे संध्या के समय मारा। जब न दिन था न रात । उन्होंने उसे देहरी पर मारा न । घर के अंदर न बाहर । उन्होंने उसे अपनी गोद में मारा न जमीन पर न आसमान में । अतः ईश्वर क्या कर सकता है ? हम सोच भी नहीं सकते । इसी प्रकार रावण ने भी कहा था- मैं न देवता से मारा जाऊं न असुर से, लेकिन नर और वानर जो इतनी मामूली और कमजोर थे कि उनके विषय में सोचना भी उसकी शान के खिलाफ था इसलिए मैं उसने उसे शामिल नहीं किया मैं नया वानर द्वारा ना मारा जाऊं और बे ही उसकी मृत्यु का कारण बने अतः यह परंपराएं रही हैं वह ताकतवर रावण वेदांती वेदों का ज्ञाता फिर भी ज्ञान उसके काम नहीं आया एक प्रकार से आप यहां ज्ञान और भक्ति साथ-साथ पाते हैं ज्ञान व्रत है उसे संपूर्ण ज्ञान था उसके पास भक्ति नहीं थी हालांकि उसके पास पृथ्वी की बड़ी से बड़ी शक्ति थी परंतु वह भी उसे अपने स्वयं के बिना से नहीं बचा सके दूसरी ओर हरियाणा कश्यप आप जो कुछ चाहा सकते हैं वे सारी शक्तियां उसके पास ही मगर जब उसके पुत्र ने कहा आपको नारायण से प्रार्थना करनी चाहिए उनकी शरण में जाइए तो उसने अपने पुत्र को अनेक बार मारने की चेष्टा की किंतु असफल ही रहा उसने उसे पहाड़ की चोटी से समुद्र में टिकवा दिया परमात्मा ने उसे अपने हाथों में आमलिया उसे महल के एक दुष्ट हाथों से कुछ अल्वा ने की कोशिश की गई अपनी सूंड उठाकर हाथी चिंघाड़ा और चला गया। तो,ऐसा विश्वास रक्षा करता है।"मेरा मालिक मेरी रक्षा करेगा"-क्या हममे वह विश्वास है? या की यह केवल एक मानसिक विचार भर है जो मौका आने पर अपना विश्वास सिद्ध करेगा लेकिन हम उसे मौका नहीं देना चाहते मैं एक व्यक्ति को जानता हूं जो यहां मद्रास में था जिसे दिल की कोई बीमारी हो गई थी और जिसने सेटिंग देना बंद कर दिया उसने बताया की उसके डॉक्टर ने कहा है तुम्हें दिल की बीमारी है तुम्हें सेटिंग नहीं देनी चाहिए तुम्हें ध्यान नहीं करना चाहिए और बाबू जी ने कहा देखो उसे पता है कि उसकी रक्षा करने के लिए मैं हूं मगर उसे विश्वास नहीं है मान लो मैदान के दौरान मर भी जाए तो इंसान के लिए क्या इससे बेहतर और कोई मृत्यु हो सकती है लोग मरने के लिए समाधि लगाते हैं ,और  वह ध्यान करने से डरता है कहीं मर ना जाए जबकि यदि वह ध्यान के दौरान मरता तो सीधे लक्ष्य पर पहुंचता देखिए व्यक्ति के ऐसे डर भी होते हैं हमें विश्वास होना चाहिए हम मुंह से बोलते तो हैं कि हमें विश्वास है मजा हमारे दिल में जरा भी विश्वास नहीं होता हमारे पास ताकत है मगर हम इसे इस्तेमाल नहीं कर पाते क्योंकि हम डरते हैं इस सामने वाले के पास हमसे ज्यादा ताकत है जबकि ईश्वर के सामने तो कुछ भी ठहर नहीं सकता अतः हम सब एक प्रकार से'सी-सॉ' की दुनिया में रह रहे हैं, जहां पर ना यह सच है ना वह कभी कभी वह और हम एक प्रकार से विज्ञान और अध्यात्म के बीच उलझे हैं आज आधुनिक विश्व में या कहें की विश्व मंच पर विज्ञान और आध्यात्मिकता पर बहस होती रहती है क्या विज्ञान जैसी कोई चीज है मुझे ठीक से पता नहीं पर शायद शताब्दियों से पुनर्जागरण के समय से विज्ञान पूरी तरह से स्वीकृत हो चुका है आरंभ में अंधविश्वास माना जाता था उन दिनों मेरे विचार से विज्ञान और अंधविश्वास दोनों थे क्या यह सच है बारूद से हां परीक्षण द्वारा सिद्ध है जिस चीज का भी आप परीक्षा कर सकते हैं वह प्रमाणित हो जाती थी और विज्ञान की मांग यह है कि उसे सिद्ध किया जाए एक बार नहीं बार-बार चाहे जो भी उस परीक्षण को करें विज्ञान की समस्या यही है मैं ईश्वर को अनुभव करता हूं मगर मुझे वह दिखाई नहीं देता अरे देवा कुर्सी पर बैठे हैं लेकिन मुझे दिखाई नहीं देते जबकि विज्ञान में परीक्षण और परिणाम  किसी के द्वारा भी और हर एक के द्वारा बार-बार दोहराने लायक होने चाहिए तो इस तरह की लड़ाई चलती आ रही है लेकिन अब ऐसे कहीं अधिक प्रमाण सुलभ हैं तथाकथित वैज्ञानिकों के द्वारा भी काफी हद तक स्वीकार किए जाते हैं और फिल्म  -"व्हाट द ब्लिप डू वी नो?' जिसमें क्वांटम विश्व, क्वांटम भौतिक विज्ञान की चर्चा की गयी है, उन्हीं सबके बारे में  है। उसमें कुछ बहुत सुंदर घटनाएं हैं; कैसे कोई चीज दो स्थानों पर या कई स्थानों पर हो सकती है आप देखते हैं एक लड़का फर्श पर एक बड़ी गेम को टप्पा मार्कर उछलता है और जब यह सब देखने वाली महिला ने निघा घुमाई तो देखा चारों ओर असंख्य में उछल रही हैं और बे कहते हैं की क्वांटम जगत है और वह क्वांटम वास्तविकता है यह कहीं भी हो सकता है हर जगह हो सकता है लेकिन जब हम गौर करते हैं हम गौर करने से उस वस्तु को एक जगह पर स्थिर कर देते हैं अब जैसे कि आज सुबह मैं अपने कुछ साथियों से बात कर रहा था इस विषय पर मैंने एक बात गौर की क्वांटम के क्षेत्र में चीजें हर जगह मौजूद मालूम पड़ती है हर जगह हो सकती हैं मगर ध्यान से एक जगह पर स्थिर कर देता है मुझे एक विचार आया ईश्वर भी हर जगह है सभी जगह है जब मैं उस पर गौर करता हूं तो मैं उसे वहीं पर स्थिर कर देता हूं जहां मैं उनकी मौजूदगी चाहता हूं लेकिन तब क्वांटम क्षेत्र भंग हो जाता है और दिखाई देने वाली वास्तविकता का क्षेत्र बन जाता है और सब कुछ मिलकर वही बन जाता है जो हम देखना चाहते हैं जबकि ईश्वर तो हर समय हर जगह मौजूद है बात सिर्फ इतनी है कि यदि मुझ में विश्वास हो और उसे वहां स्थित करने की क्षमता हो तो मैं उसे वही देख सकता हूं वही देख सकता हूं जहां मैं देखना चाहता हूं।"



गुरुवार, 3 सितंबर 2020

बाबू जी महाराज ,क्रमिक विकास व पल्ला झड़ना :अशोकबिन्दु


 पृष्ठ - 295-296,

रामचन्द्र की आत्मकथा भाग-2,

रामचन्द्र की सम्पूर्ण कृतियाँ!

" अपने को इस तरह प्रदर्शित करो कि लोग तुम्हारा आदर करने लगे । तुम्हारे अनादर का अर्थ सारे संतो और मुक्त आत्माओं का अनादर है। तुम्हारी अवज्ञा करने वालों को प्रकृति दंड दे सकती है। इसलिए मैं चाहता हूं कि तुम्हारी ऊंची उपलब्धियां लोगों के सामने उजागर रहे ।तुम्हारे अंदर दिव्य शक्तियों की भीड़ लगनी शुरू हो गई है ।खुश रहो।"



पृष्ठ 295 - 296 पर जो दिया गया है, वह यहाँ कह रहे हैं।

"08जून1945: पूज्य लालाजी ने जनसाधारण को आध्यात्मिक लाभ प्रदान करने की विधि बताइए हिंदुओं के धार्मिक इतिहास के अंधकार कोण युग में विधि विस्मृत हो गई थी ऐसा कहा जाता है जी भगवान श्री कृष्ण इस विधि के आविष्कारक हैं बी है दूसरे के फूट शरीर का विचार उसके शरीर के कणों को बरकरार रखते हुए धारण करना चाहिए तब जिन्हें नैतिक गुणों की किसी भी व्यक्ति से अपेक्षा की जाती है उनको उस शरीर के अंदर प्रणाहूति से ठेल देना चाहिए परंतु पहली पूजा में ही ऐसा ना करके कुछ समय बाद जब अंदर से प्रकाश का संकेत मिलने लगे तब करना चाहिए। भगवान श्री कृष्ण द्वारा एक आदेश दिया गया जो स्पष्ट नहीं था। लालाजी: " अब तुम्हारे अपने रुतबे के हिसाब से अपने को थोड़ा बदल लेना चाहिए। अपने को इस तरह प्रदर्शित करो कि लोग तुम्हारा आदर करने लगें ।तुम्हारे अनादर का अर्थ सारे संतो और मुक्त आत्माओं का अनादर है । तुम्हारी अवज्ञा करने वालों को प्रकृति दंड दे सकती है । इसलिए मैं चाहता हूं की तुम्हारी ऊंची उपलब्धियां लोगों के सामने उजागर रहे । तुम्हारे अंदर दिव्य शक्तियों की भीड़ लगनी हो गई है ।खुश रहो ।" इसके बाद स्वामी विवेकानंद:.........!"



अब हम(अशोकबिन्दु) कुछ वर्षों से हम कुछ घटनाएँ महसूस कर रहे हैं। जिसके लिए हमने ऊपर की पंक्तियों को लिखा है ताकि समाज में अपनी बात को मजबूती दिला सकें।हमारा एक स्तर होता है।दुनिया हमारे को जिस स्तर से आंकती है, उससे हट कर हमारा स्तर होता है।कोई ये भी कहता है-"हो कौन?क्या कोई अधिकारी, विधायक बगैरा हो?उच्च जाति से हो? " यदि ऐसा नहीं है तो भी क्या बड़े पूंजीपति हो,हमारा काम निकलने वाले हो?जमाने में जो जितना ऊंची हांकने वाला,अपनी उल्लू सीधा करने वाला, हां में हां मिलने वाला, हमारी बिरादरी, सम्प्रदाय, सोच, आचरण आदि में साथ खड़ा होने वाला। यदि ये सब नहीं तो ,मतलब ओर अरे, गधे को भी बाप बना लिया जाता है। ये सब सिर्फ हाड़ मास शरीर,हाड़ मास शरीरों ,बोलचाल तक,आवश्यकताओं तक। हम इससे आगे भी हैं?सामने वाला इससे भी आगे है... सच्ची नियति, सच्चा सौदा,पारदर्शीता, स्प्ष्ट छवि....आदि आदि ,इससे मतलब नहीं।अरे, चूतिया है।.....इससे आगे भी एके विचार धारा, भावना.... इससे भी आगे,और भी।लेकिन इससे मतलब नहीं। स्थूल, सूक्ष्म व कारण...... इसमें भी अनेक स्तर।स्तर में भी अनेक स्तर।चेतना व समझ के अग्रिम अनेक अनन्त स्तर ।अरे, उसकी कोई बात नहीं।टिकाऊ नहीं।स्थूल जगत में भी अनेक स्तर हैं।ऊर्जा या चेतना कभी इस बिंदु पर तो कभी उस बिंदु पर,कभी इस स्तर पर कभी उस स्तर पर, कभी उस चक्र पर,कभी उस चक्र पर। भीड़ में,अन्य के बीच अकेला खड़ा,कोई साथ नहीं।अकेले में लाड़ दिखते फिरते हैं?समाज में समाज की हां में हां, तब अकेला छोड़ दिया।चाहे उस अकेला व्यक्ति के साथ मानवता का, ईमानदारी का स्तर कितना भी उच्च हो? 



कुछ वर्ष पहले हम स्वप्न देख रहे थे, "वह लड़का कुछ ब्राह्मणों के खिलाफ खड़ा था, कुछ सच्चों के खिलाफ खड़ा था। हम अलग खड़े थे, एक समूह और था जो अलग खड़ा था।हम उस समूह द्वारा उस लड़के को कहीं लेजाते देख रहे थे।आगे जाकर उस लड़के का एक्सीडेंट हो जाता है।" इस स्वप्न को देखने के दूसरे दिन ही पता चलता है कि रेलवे लाइन पार करते वक्त वह एक ट्रेन से कट कर मर जाता है। 

इस घटना के एक साल बाद उन्हीं दिनों हम फिर स्वप्न देखते हैं, "गब्बरसिंह के मकान के पीछे दो यम दूत आते हैं और हमसे कहते हैं, चलो आओ। एक बालक हमें दूसरी जगह चलने को कहता है लेकिन हम उन दोनों यमदूतों के साथ चल देते हैं।एक यमदूत का फरसा हम अपने हाथ में ले लेते है।(www.ashokbindu.blogspot.com/अशोकबिन्दु भईया:दैट इज...?!पार्ट10/...) हम पश्चिम-पूरब की ओर कालोनी मध्य चल देते हैं।एक गली में पहुंच कर एक लड़के को पुकारते हैं।वह लड़का जब अपने घर से बाहर निकलता है तो हम उसे फरसा से काट डालते हैं।" इसी तरह के अन्य स्वप्न भी... पॉजीटिव स्वप्न भी।अभी कल भी एक स्वप्न्न। .....ये सब क्या है?

जो हम देखते हैं, सोंचतेहै, करते हैं.... वही सिर्फ दुनिया नहीं है। एक बार एक अखण्ड ज्योति पत्रिका में लिखा था, व्यक्ति अकेला नहीं होता, उसके साथ पूरा एक ग्रुप होता है। पन्द्रह साल पहले एक बार हम सुमित त्रिपाठी के साथ स्टेशन रोड पर निकले थे,फटकीया तक गए थे।हम सुमित से दूर, लोगों से दूर चलने लगे थे।हमें अपने साथ अतिरिक्त शक्ति नजर आ रही थी।हमने मालिक को धन्यवाद दिया।एक दुकान पर पहुंचे तो भी हम लोगों से दूर ही थे। "पास आ जाओ।"ठीक है।इसी क्षण हम कहीं पर बोले थे, व्यक्ति अकेला नहीं होता। एक साधक ने लिखा है कि साधना में सफलता के साथ जीवन यात्रा का मतलब है- सूक्ष्म यात्रा,सूक्ष्मतर से सूक्ष्म तर यात्रा की ओर बढ़ना... आगे बढ़ना।आत्मा जब गर्भ धारण करती है, तो उसके पास उस वक्त, उससे पूर्व व बाद की उसके पास योजना होती है। लेकिन शरीर धारण करने के बाद उन योजनाओं के साथ नहीं, उन योजनाओं के नीचे के स्तर की योजनाओं रूपी चादर से अपने/आत्मा को ढकते जाते हैं। गीता में-कर्म क्या है? कर्म है-यज्ञ।हर स्तर पर यज्ञ अलग अलग है।

"अजगर करे न चाकरी......!" एक कर्म ऐसा भी है, जो कर्म है भी नहीं।कर्म हो कर भी कर्म नहीं है।एक नेटवर्क है-आत्माओं का।आगे और.... अनन्त यात्रा का साक्षी...!! दुःख, सुख कब है?जब हम इंद्रियों में हैं, इच्छाओं में हैं।चेतना के सागर में...अनन्त यात्रा में तो हम सिर्फ कठपुतली है।"हमारा एक शुभेछु... हमारा लाडला... एक कोचिंग खोलता है, हम उद्घाटन में पहुंचते हैं.... हमारा मन फीका हो जाता है।पता चलता है कि वे चेयरमैन से उदघाटन करने को हैं?हम नेताओं के ज्यादा पीछे पड़ने के खिलाफ रहे हैं।अनेक सन्तों ने राजनीतिज्ञों से,राजनीति से अलग रहने को कहा है।हमें वहां रुकना चाहिए था, ये भी अभी आबश्यक है लेकिन हम नहीं रुके वहां।


पल्ला झाड़ना?!.....अरे, उससे पल्ला झाड़ लिया ठीक रहा।उसने उससे तलाक ले लिया, अरे ठीक रहा।उसे संस्था से आफिस से निकल दिया या ट्रान्सफर करवा दिया ठीक रहा।अरे, वह करता भी क्या?कब तक बर्दाश्त करता?मजबूरी थी उसकी उसका मर्डर करना।....लेकिन क्या ठीक रहा?!जीवन किस काल खंड तक ठीक?कब तक ठीक? भविष्य में इसका परिणाम?सूक्ष्म जगत, कारण जगत अभी शेष बचा है।

02अक्टूबर सन1869 ई0 को जन्मे मोहन दास बैरिस्टरी पास करने के लिए इंग्लैंड गए।और वहां माता के बताए हुए आदर्शों और निर्दशों का पालन किया।उनमें धार्मिक आस्था व सादगी का गहरा प्रभाव था। सन 1857 की क्रांति व अंग्रेजी, सामंती, जातीय अत्याचार एवं 1931 तक का समय....!? वर्तमान में जो है वह अतीत का परिणाम है।भविष्य में जो होगा वह हमारे वर्तमान का परिणाम होगा। वर्तमान में जो है वैसा भविष्य नहीं होगा।



ईसामसीह को सूली पर लटका दिया गया, सुकरात को जहर देकर मार डाला गया, गांव के उस ईमानदार ,सज्जन व्यक्ति को मार दिया गया........ आदि आदि?!क्या पल्ला झाड़ लिया?सुकून मिल गया?चैन मिल गया क्या? अमुख अमुख इंजीनियर, ठेकेदार, पत्रकार आदि मार दिया गया, आप समझते हो कि सुकून मिल गया?चैन मिल गया?पल्ला झड़ गया?जनता हितैषी डीएम ,एस डी एम,तहसीलदार आदि का ट्रांसफर करा दिया गया?बस, हो गया काम?जीवन कोई विशेष काल खंड तक ही सीमित नहीं है।जिससे हमारी सांसारिक इच्छाएं पूरी होती हैं,आवश्यक नहीं कि वही जगत, व्यवस्था, समूह के अलावा कुछ भी हमें प्रभावित करने वाला नहीं? आत्मा जब गर्भ धारण करती है तो उस वक्त व उससे पहले व बाद में उसकी अपनी योजना होती है।हम दुनिया की चकाचौंध में उस योजना को भूल जाते हैं।


दस साल पहले पूर्व में एक युवक को फांसी दे दी गयी।उसकी अंतिम इच्छा थी कि अगला जन्म मैं भारत में न लूं।उसे निर्दोष फंसा दिया गया था, मर्डर व रेप में। वास्तविक अपराधी क्या मौज में होंगे? हमें ध्यान है पिता जी के चाचा जी की मृत्यु हो गयी।पिताजी #प्रेमराज ने कहा था- चाचा गांव के अमुख अमुख परिवार में जन्म लेंगे।अब वह परिवार तबाह हो जाएगा। उस परिवार में चाचा पैदा हुए.... हालात ऐसे बने, वह परिवार बर्बाद हुआ।वह परिवार ने चाचा को काफी परेशान किया था, प्रताड़ित किया था।गांव के अन्य लोग भी। पल्ला झड़ता नहीं।हमारे साथ जो होता है, हम जो अन्य संग करते हैं-असर बहुत दूर तक जाता है।हम जो सिर्फ सोंचते है उस तक का असर दूर तक जाता है।


योगांग में पहला अंग-यम दूसरा अंग -नियम।यम दूत-सत्य, अहिँसा,अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य। नियम- पवित्रता, सन्तुष्टि, तपस्या, अध्ययन, समर्पण। इसका असर भी दूर तक जाता है। हम जो कर रहे हैं, उसका भी असर दूर तक जाएगा। अतीत से हम जो अपना सूक्ष्म ढोह कर लाएं हैं उसका असर वर्तमान में और जो हम वर्तमान में सूक्ष्म बना रहे हैं, उसका असर भविष्य में जाएगा। सूक्ष्म व कारण वर्तमान में भी कार्य कर रहा होता है लेकिन हमें होश नहीं  शारीरिक,इंद्रिक लालसाओं की चकाचौंध में।

बाबू जी महाराज ने कहा है कि ये हमारी भूल है कि जैविक क्रमिक विकास की पराकाष्ठा मानव है।हम यहां पर मानव के स्थान पर मानव के वर्तमान स्थूल, हाड़ मास शरीर, उसके लिए ही सिर्फ व्यवस्था हमारी पराकाष्ठा नहीं है।




यहां पर....



 पृष्ठ - 295-296,

रामचन्द्र की आत्मकथा भाग-2,

रामचन्द्र की सम्पूर्ण कृतियाँ!

" अपने को इस तरह प्रदर्शित करो कि लोग तुम्हारा आदर करने लगे । तुम्हारे अनादर का अर्थ सारे संतो और मुक्त आत्माओं का अनादर है। तुम्हारी अवज्ञा करने वालों को प्रकृति दंड दे सकती है। इसलिए मैं चाहता हूं कि तुम्हारी ऊंची उपलब्धियां लोगों के सामने उजागर रहे ।तुम्हारे अंदर दिव्य शक्तियों की भीड़ लगनी शुरू हो गई है ।खुश रहो।"

यहां पर हमें क्या प्रेरणा मिलती है? हम स्वयं ऐसा कार्य करे जिससे हमारा सम्मान हो। 'हमारा'....?! ये हमारा क्या है?इसके साथ ही हम जो कर देख रहे हैं, कर रहे हैं,हमारी इंद्रियों की जहां तक पहुंच है, हाड़ मास शरीर की जहां तक पहुंच है.......उससे आगे की यात्रा का साक्षी हुए बिना हम अपनेपन/आत्मियता की ही अपूर्णता में हैं। हम ये भी न समझे कि सामने वाले की अमुख अमुख की हमारे सामने क्या औकात?आप हम अपनी औकात को किस पैमाने से नाप रहे हैं?जन्मजात तथाकथित उच्चता,कुल की सम्पन्नता, धन बल, दबंग बल, माफियागिरी, पद, जातिबल, सत्ताबल, जनबल...... आदि आदि?!



बुधवार, 2 सितंबर 2020

चलो ठीक है घर में माचिस,मोमबत्ती रखी जाती है लेकिन इससे व वर्तमान शिक्षा से मानवता मुस्कुराने वाली नहीं:अशोकबिन्दु

 ये माचिस, तीलियां, मोमबत्तियां क्या...?!

बाबू जी ने कहा था कि.......हमारी हर योजना दुर्घटना बन सकती है::श्री पार्थसारथी राजगोपालाचारी


पृष्ठ 46,

 लाला जी महाराज

पुस्तक-"वे, हुक्का और मैं"!


"बाबू जीने एक बार मुझसे कहा था कि सारी अप्रत्याशित घटनाएं, ईश्वरीय योजना के अनुरूप होती हैं, जबकि हमारी हर  योजना दुर्घटना बन सकती है।"-श्री पार्थ सारथी राजोपलाचारी।



 आदि शंकराचार्य ने  ऐसी तीन बातों के बारे में बताया है इनकी कुछ लोग कल्पना भी नहीं कर सकते पहली बार इस भूलोक में मानव लोक में जन्म लेना और मोच केवल इसी लोक में संभव है किसी अन्य लोक में नहीं साथ ही ऐसे समय पर जन्म हो जब कोई महान गुरु इस धरती पर विद्यमान हो अर्थात समर्थ सद्गुरु हमारे बीच मौजूद हो यह दूसरा आशीर्वाद है क्योंकि हो सकता है आप तब पैदा हो जब कोई गुरु उपलब्ध ही ना हो ऐसी कोई हस्ती उपलब्ध ना हो ऐसी सहायता उपलब्ध ना हो और तीसरी सबसे महत्वपूर्ण बात है की वे धरती पर विद्यमान हो और आप भी हो साथ ही आप उन तक पहुंचने में सक्षम हो पाए उन्हें गुरु के रूप में स्वीकार करें और उन्हें समर्पण कर दें ए तीन सबसे बड़े आशीर्वाद है जो एक आत्मा को एक आकांक्षी आत्मा को ईश्वर के द्वारा प्रदान की जा सकते हैं।



बाबू जी ने एकदम शुरू से ही कहा है अगर तुम आध्यात्मिक बनना चाहते हो तो बुद्धि को दरकिनार कर दो बाबूजी ने एक बार मुझसे कहा था की सारी अप्रत्याशित घटनाएं 30 योजना के अनुरूप होती हैं जबकि हमारी हर योजना दुर्घटना बन सकती है जैसे कोई कहीं से माना अर्जेंटीना से पेरू जाने का निश्चय करता है और अचानक उसका हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हो जाता है जैसे 2 दिन पहले वहां भयंकर विमान दुर्घटना हुई थी क्या हुआ उनकी योजना धरी की धरी रह गई जैसा के अंग्रेजी साहित्य में कहा जाता है छोटे से छोटे जीव से लेकर मनुष्य तक की अच्छी से अच्छी योजना भी अक्सर तहस-नहस हो जाती है चूहे से लेकर इंसान तक किसी भी जीव की तो अपनी योजनाओं पर भरोसा मत करो इसीलिए कई बार खास तौर पर विदेशियों द्वारा मेरी आलोचना हुई है कि आप अपनी योजनाओं के अनुसार काम नहीं करते मैंने अपनी योजनाओं पर हमेशा अमल किया है लेकिन उन लोगों का मानना है भारत की हमेशा देरी से आते हैं भारतीय समय विलंब का पर्याय बन गया है जबकि वास्तव में इसका उल्टा है। आप जर्मनी जाते हैं और जहाज ढाई घंटे लेट हो जाता है ओहो फ्रैंकफर्ट में तूफान रहा होगा अर्पणा हर कोई अपना सेब और सॉसेज लेता है और मुस्कुराते हुए हवाई जहाज में जाकर बैठ जाता है क्योंकि जर्मनी में हवाई जहाज कभी देरी से नहीं उड़ते अब अगर वहां तूफान आया हो तो आप कर भी क्या सकते हैं अगर पैसा मौसम भारत में हो और हवाई जहाज लेट हो जाए ,"भारत में ,हा ! इम्मर ,इम्मर "जर्मन भाषा में जिसका अर्थ है," भारत में हमेशा हमेशा ही ।" यह गोरों का अहंकार ही है कि यूरोप में ट्रेन भले ही लेट आए, फिर भी वह सही समय पर ही होती है ।"क्योंकि एक ट्रेन की गलती नहीं है, कहीं, कोई अड़चन आ गई होगी ।" आप समझे?



हम(अशोकबिन्दु)उपरोक्त को पढ़ते पढ़ते ,हमें ध्यान आया कि-हम पुरानी बात ही दोहराते हैं। आत्मा गर्भ धारण करते वक्त व इससे पहले ही अपनी योजना लेकर आती है।हमने यहां पर कुरु आन के शुरुआती सात आयतों "अल-फातिहा"सम्बंधित पृष्ठ की भी तश्वीर डाली है।इसको आदि शंकराचार्य की उल्लखित उपरोक्त बात को ध्यान में रख कर देखने की कृपा करें। हां, आत्मा जब गर्भ धारण करती है तो उस वक्त व उससे पहले ही उसकी योजना तय होती है।



दोष अपना ही होता है हम औरों को दोष देते हैं।





मंगलवार, 1 सितंबर 2020

बाबूजी ने कहा है कि विज्ञान में धर्म से अधिक अंधविश्वास हैं:: पार्थसारथी राजगोपालाचारीजी

 

एट पुस्तक है -'वे, हुक्का और मैं'।

" जिसमें श्री पार्थ सारथी राजगोपालाचारी द्वारा दिए गए भाषण संकलित हैं । जिसके पृष्ठ 45 पर कहा गया है बाबूजी महाराज के साथ हुई मेरी शुरू की वार्ताओं में से एक में उन्होंने इसका खंडन किया था उन्होंने कहा विज्ञान में धर्म से अधिक अंधविश्वास है।"


हम (अशोकबिन्दु) किशोरावस्था से ही जितना पढ़े है न उससे ज्यादा चिंतन मनन किए है। किसी ने कहा है विद्यार्थी वही है जिसकी समझ, नजरिया शिक्षा व पाठ्यक्रम के विषयों पर चिंतन मनन की ओर अग्रसर होती है न कि सिर्फ रटना। हम इन दिनों 'वे, हुक्का और मैं' का दूसरी बार अध्ययन कर रहे हैं।


 पृष्ठ 45-46 पर का जो है, उसे अपने हिसाब से हम लिख रहे हैं।

फ्रायड जिसने विज्ञान को आधार बनाया और कहा धर्म बहुत सारी बातों की व्याख्या उस प्रकार नहीं कर सकता जिस प्रकार विज्ञान कर सकता है एक प्रसिद्ध कहावत है जिसके अनुसार विज्ञान केवल यह बता सकता है चीजें कैसे घटित होती हैं परंतु इस प्रश्न क्यों का उत्तर वह नहीं दे सकता क्लोरो क्लोरोफिल हरा होता है क्लोरोफिल हरा क्यों होता है विज्ञान इसका उत्तर नहीं दे सकता तीन टांगे क्यों नहीं तीन टांगों वाली किसी चीज से हमारा सामना नहीं हुआ है शिवाय स्टूल के दो टांगे चार टांगे खेता में 1000 टांगों वाला जिओ कनखजूरा लेकिन तीन टांगे नहीं शिवाय वैज्ञानिक काल्पनिक उपन्यासों के तो देखिए हम तो यह कहेंगे यह धारणा रखना अपने आप में एक प्रकार का अंधविश्वास है विज्ञान सारे प्रश्नों के उत्तर दे दे देगा मुझे याद है एक बार डॉ वरदाचारी अंधविश्वास की व्याख्या कर रहे थे जो दो शब्द सूपर और स्टीशिया से बना है:कोई चीज जो किसी अन्य चीज के आधार पर खड़ी है,और जिस आधार पर खड़ी है, उसी पर अपना प्रभुत्व प्रदर्शित कर रही है। तो हम विज्ञान का आधार ले कर खड़े हैं और दावा करते हैं कि विज्ञान में कोई अंधविश्वास नहीं हैं।बाबू जी के साथ हुई मेरी शुरू की वार्ताओं में से एक में उन्होंने इसका खंडन किया था,उन्होंने कहा, " विज्ञान में धर्म से अधिक अंधविश्वास है।"



धर्म में जो अंधविश्वास है बे कम से कम न्याय संगत तो हैं जो हमारी सहायता करते हैं जैसे आप ईश्वर से प्रार्थना करते हैं आपको कुछ राहत मिलती है लेकिन विज्ञान में कभी कोई राहत नहीं है कोई आदमी पागल हो जाता है और वहां कोई राहत नहीं है विज्ञान बताता है वह पागल कैसे हो गया मेरा मतलब है विज्ञान स्पष्ट करने का प्रश्न करता है वह सदमे में था वह उस सदमे में था लेकिन उससे ज्यादा कुछ नहीं कर सकता तो हमें बहुत सतर्क रहना होगा हम विज्ञान का उपयोग किस प्रकार करते हैं और इसीलिए बाबू जी ने एकदम शुरू से ही कहां है अगर तुम आध्यात्मिक बनना चाहते हो तो बुद्धि को दरकिनार कर दो अभ्यासी कि जीवन में बुद्धि का कोई स्थान नहीं है आपकी सांसारिक जरूरतों के लिए क्या मैं आलू खरीदो या पनीर क्या मैं इस लड़की से शादी करूं या उस लड़की से क्या नौकरी के लिए मैं जर्मनी जाऊं या टोक्यो इन सब के लिए जहां तक संभव हो सके आपको अपनी मानसिक शक्ति का उपयोग करना चाहिए क्योंकि वहां भी भाग्य कहां जाने वाला घटक आड़े आता है और वह उनकी योजना होती है जो आप की योजना के विरुद्ध हो सकती है या शायद आप की योजना के अनुरूप हो सकती है इसलिए बाबूजी महाराज में एक बार मुझसे कहा था सारी अप्रत्याशित घटनाएं ईश्वरी योजनाओं के अनुरूप होती हैं जबकि हमारी हर योजना दुर्घटना बन सकती है ।



हमें एक बात अवश्य समझ लेनी चाहिए हमारी हर गतिविधि नियंत्रित होती है चाहे हम समर्पण करें या ना करें इस प्रकार के जीवन के अनुरूप सबसे बढ़िया उदाहरण अंतरिक्ष यात्री का जीवन है।




 हम भारतीय ईश्वरी आदेश का पालन करने के लिए मानव आदेश पर संदेह करने के आदि होते हैं क्योंकि मानवी आदेश निश्चित रूप से मानवीय सोच मानवी अभिलाषा ओं मानवी उत्कंठा ओं और अधिकार करने की मानवी इच्छाओं पर साथ ही लूटने की चुराने की जन्मजात मानवीय प्रवृत्ति पर भी आधारित होते हैं।



पृष्ठ 334 पर कहा गया है--" हम यहां भौतिक संसार की बात नहीं कर रहे हैं । हम यहां आध्यात्मिक क्षेत्र के बात कर रहे हैं ।ईश्वर का क्षेत्र - जो आकाश और काल के परे होता है ,जहां आइंस्टीन का असीमितता का सिद्धांत लागू होता है। ठीक है , और आत्माओं को ले आओ ,आत्माएं दूसरे अनगिनत स्थानों पर चली जाएंगी और आपके पास असंख्य आत्माओं के लिए फिर भी स्थान उपलब्ध रहेगा। "


आध्यात्मिकता कहती है," आपका कुछ नहीं है । आपकी कोई इच्छाएं नहीं है। आपसे इच्छाएं रखने की अपेक्षा नहीं की जाती । आपसे अभिलाषा रखने की अपेक्षा की जाती है।" इच्छा संग्रह के लिए होती है जबकि अभिलाषा विकास के लिए होती है । आप विकास करते हैं, नियम इसकी अनुमति देता है।" जैसा  पोर्शिया ने कहा," कानून इसकी इजाजत देता है , अदालत इसे प्रदान करती है।"और ईश्वरी अदालत कहती है, " हां, मेरे पुत्र, विकास करो, तुम्हें इस का हक है । हर सीमा से आगे विकास करो क्योंकि विकास की कोई सीमा नहीं होती।" अर्थशास्त्र में एक पुस्तक है,जिसका नाम है ' विकास की सीमाएं '। परंतु इसलिए कानून के अंतर्गत ऐसा नहीं है। वहां विकास की कोई सीमा नहीं होती। जितना भी विकास कर सकते हो,करो।" " लेकिन, क्या वह इसके लिए स्थान होगा?" मेरे पुत्र, पृथ्वी पर अगर 40 लाख आबादी और बढ़ जाए तो आप एक दूसरे को समुद्र में धकेलने लगेंगे,हम यहां भौतिक संसार की बात नहीं कर रहे हैं यहां हम आध्यात्मिक क्षेत्र की बात कर रहे हैं। यहाँ हम आध्यत्मिक क्षेत्र की बात कर रहे हैं,ईश्वर का क्षेत्र - जो आकाश और काल के परे होता है, जहां आइंस्टीन का असीमितता का सिद्धांत लागू होता है । ठीक है ,और असंख्य आत्माओं को ले आओ , अन्य आत्माएं दूसरे अनगिनत स्थानों पर चली जाएंगी और आपके पास असंख्य आत्माओं के लिए फिर भी स्थान उपलब्ध रहेगा ।" तो आज सुबह मुझे बस इतना ही कहना है।




श्री पार्थसारथी राजगोपालाचारी
















सोमवार, 31 अगस्त 2020

पार्थसारथी राजगोपालाचारी जी कहते हैं-"प्रसाद एक सिद्धांत" ::अशोकबिन्दु

प्रसाद एक सिद्धांत है-पार्थसारथी राजगोपालाचारी!


"जो चीज प्रसाद में आ जाती है वही चीज हमें अपने जीवन में लानी है जब वह विशेष चीज हम अपने जीवन में ले आते हैं तो हमारा खुद का अस्तित्व समाप्त हो जाता है वही हमारी जगह ले लेता है । एक तरह से देखा जाए तो हमारी मृत्यु हो जाती है ।मेरा मतलब यहां शारीरिक मृत्यु से नहीं बल्कि वास्तविक मृत्यु से है जिसमें खुद के लिए हमारा अस्तित्व समाप्त हो जाता है"


एक पुस्तक है- " प्यार और मृत्यु", जिसमें पार्थसारथी राजगोपालाचारी के प्रवचन संकलित हैं। इसमें पृष्ठ 124 पर लिखा गया है -.......अगर प्रेम संबंध में पवित्रता की भावना है तो जब तक यह पवित्रता दो व्यक्तियों के मध्य एक स्थापित तथ्य बनी रहती है उस प्रेम संबंध को दूषित नहीं किया जा सकता। उस पवित्र वातावरण में वे युगल वैवाहिक जीवन के समस्त पहलुओं के साथ स्वयं को संयुक्त करते हैं ।यह तो तय है पवित्र भावना के साथ जो भी कर्म किया जाता है वह पवित्र ही होता है। उन कर्मों के फल भी पवित्र ही होते हैं ।अगर प्रसाद खाकर हमारा स्व रूपांतरित हो जाता है तो हमें यह सोचना चाहिए की इसमें ऐसा कौन सा तत्व है ?जबकि प्रसाद में तो केवल कुछ किसमिस ,कुछ मिठाई या कुछ चॉकलेट ही रहता है ।आखिर किशमिश में ऐसी कौन सी बात है जो हमें प्रसाद बना देती है । कुछ न कुछ तो है ही और अगर आपने प्रसाद की महत्ता समझ ली तो यह निश्चित है कि आप उसे भूमि पर नहीं गिराएंगे और न ही इसे पैरों के नीचे लेंगे। अब जो चीज प्रसाद के साथ में आ जाती है वही चीज हमें अपने जीवन में लानी है ।जब वह विशेष हम अपने जीवन में ले आते हैं तो हमारा खुद का अस्तित्व समाप्त हो जाता है वही हमारी जगह ले लेता है । एक तरह से देखा जाए तो हमारी मृत्यु हो जाती है । मेरा मतलब यहां शारीरिक मृत्यु से नहीं बल्कि वास्तविक मृत्यु से है जिसमें खुद के लिए हमारा अस्तित्व समाप्त हो जाता है।

हम (अशोकबिन्दु) इसे पढ़ते पढ़ते चिंतन में खो गए । न जाने कितनी बार हमें वही पुरानी बातें दोहराने होती हैं ।बाबूजी महाराज ने भी कहा है जीवन में हमें बार-बार जो दोहराना चाहिए हम वह नहीं दोहराते हैं । अच्छी बातें जो हमारा रूपांतरण करती हैं ।उनको बार-बार दोहराना चाहिए । कहने के लिए अनेक लोग मिल जाएंगे कि हम धार्मिक हैं ,हम भक्त हैं ,हम ईश्वर को मानते हैं लेकिन उनकी समझ क्या है ?उनका नजरिया क्या है? हमें बार-बार उन बातों को दोहराना ही चाहिए जो हमारे रूपांतरण में सहायक है । इसलिए हम अभ्यासी हैं हम प्रयत्न पन्थ/अभ्यास पन्थ को स्वीकार किए हैं तो मैं कह रहा था कि कुछ बातें हम अनेक बार दोहराते हैं ।आज फिर दोहरा रहा हूं । किसी ने कहा है - आचार्य है मृत्यु। किसी ने कहा है- योग का पहला अंग यम है मृत्यु । कोई कहता है इस धरती पर वह व्यक्ति बेकार है जिसके जीवन में ऐसा कोई लक्ष्य नहीं जिसके लिए वह मर न सके । आखिर यह सब क्या है? यह मृत्यु क्या है? इसको समझने की जरूरत है। कोई कहता है कि मैं महामृत्यु सिखाता हूं । इसका मतलब क्या है ?


गीता में अनेक शब्द ऐसे आए हैं जो जीवन के लिए बड़े उपयोगी हैं । जैसे कि तटस्थता ,शरणागति, समर्पण, योग ,क्षेत्रज्ञ ,अनुराग...... आदि। एक भाष्यकार तो अर्जुन को अनुराग कहकर पुकारते हैं। जहां अनुराग है ,जहां प्रेम है वहां अंधभक्ति है। यह अंधभक्ति क्या है? अंधभक्ति यह है कि हमें जिस से प्रेम है उसमें खो जाना ,उसमें लीन हो जाना । अपनी इच्छाओं का खत्म हो जाना । अहंकारशून्यता आ जाना..... आदि आदि।

बात हो रही थी - "प्रसाद एक सिद्धांत " है। आखिर "प्रसाद का सिद्धान्त" क्या है?
दर्शन को अनेक शब्दों व वाक्यों में उलझा दिया गया है। हम अनेक बार कह चुके हैं की जगत में जो भी कुछ है उसके तीन स्तर हैं स्थूल सूक्ष्म और कारण यह तीन स्तर भी अर्थात प्रत्येक स्तर पर अनेक स्तर हैं और आगे चलकर तो जहां सनातन है जहां निरंतर है वहां तो अनंत प्रवृतियां हैं ऐसे में भी अभी हम सिर्फ स्थूल रूप से ही या फिर स्थूल रूप में भी निम्न स्तर पर टिके हुए हैं बाबूजी महाराज ने कहा है यह हमारी भूल है कि हम समझते हैं जैविक क्रमिक विकास में मानव पराकाष्ठा है लेकिन ऐसा नहीं है।




शनिवार, 29 अगस्त 2020

मोहर्रम हमारा मोहन/परम् आत्मा में रम कर मृत्यु तक को गले लगा लेना:अशोकबिन्दु

 किसी ने कहा है-उसका जीवन बेकार जो किसी लक्ष्य के लिए मरने को तैयार नहीं।




रविवार, मु010 बं 13.

ताजिया/मुहर्रम,

हिजरी1441-42!


हजरत मो0 हुसैन की याद करते हुए!

हम बता दें एक समय वह भी था जब दुनिया कम ही शरहदों में विभक्त थी।कोई भी कहीं भी जा सकता था।दुनिया के सभी सन्त एक दूसरे का सम्मान करते थे।

कर्बला की लड़ाई में 500 देवल ब्राह्मण मो0हुसैन की मदद के लिए गए थे। मुंशी प्रेम चन्द्र ने भी उसे काफी याद किया है।


इसके साथ ही हम राजा बलि के दान, त्याग, कर्ण के दान त्याग, गुरु गोविंद सिंह के त्याग व संघर्ष को याद करते हैं।


हम किसी जाति-मजहब से परे हैं।जब हम कुदरत, ब्रह्म के दरबार में होते हैं। तब हम सिर्फ हाड़ मास शरीर, आत्मा होते हैं।


अर्जुन पूछते हैं-कर्म क्या है?श्री कृष्ण कहते हैं - यज्ञ।यज्ञ के अनेक रूप है।अनन्त यात्रा में,प्रकृति में कुछ है जो स्वतः है निरन्तर है।वही हमारा यज्ञ है, मिशन है, अभियान है।जिसमें हर पल मृत्यु है, हर पल जन्म है। निरन्तर परिवर्तन है। क्रमिक विकास में हमारा होना जीवन की पराकाष्ठा नहीं है। विकासशीलता है, विकसित नहीं।


उसी में न्योछावर हो जाना यम है।योग(अल/आल/all/यल्ह/एला/इला/सम्पूर्णता/आदि) में आठ चरण/योगांग है न। हर चरण में अनेक स्तर है। पहला चरण है -यम।यम को हम मृत्यु कहते हैं। जो यज्ञ करते है।वे व हम अभी इसको ही स्वीकार नहीं कर पाए है। यम दूत हैं-सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह व ब्रह्मचर्य। इसको हमें करीब से देखा है। लेकिन अभी जीता नहीं।  सर्च करें:

www.ashokbindu.blogspot.com/अशोकबिन्दु:दैट इज...?!पार्ट10 ! जीवन सिर्फ हमारे हाड़ मास शरीर, स्थूलताओं तक ही सीमित नहीं। मो0साहब ने कहा है-हर स्वास का कारण वह है, हर स्वास उसकी है।हर स्वास में वही होना जीवन है।

सहज मार्ग में हम उपनिषद के-'प्राणस्य प्राण' पर ध्यान देते हैं। सूफी संतों में इससे पूर्व राजा दशरथ व जनक तक प्राणाहुति/दम भरने की क्षमता रखने के गुरुत्व में प्रशिक्षण की व्यवस्था थी।जो क्षमता हजरत किबला मौलवी फजल अहमद खान साहब रायपुरी सेउनके शिष्य श्रीराम चन्द्र,फतेहगढ़ को प्राप्त हुई।जिसका विकास शाहजहाँ पुर के बाबूजी महाराज ने किया। प्राणाहुति का ऐसा चमत्कार हमने कहीं न देखा। वर्तमान में हमारे वैश्विक मार्गदर्शक है-कमलेश डी पटेल दाजी।जो इसकी  व्यवस्था देख रहे हैं।


आज हम मो0हुसैन की कुर्बानियों के साथ साथ अतीत के सभी महापुरुषों की कुर्बानियों को याद करते हैं।

सभी को अन्तरनमन!!

#अशोकबिन्दु





बुधवार, 26 अगस्त 2020

मानव से महामानव की ओर::अशोकबिन्दु

 "यद्यपि मैं पिछले 25 वर्षों से बोलता आ रहा हूं, मैंने पाया है कि जब हम बोलते हैं तो प्रायः जो बोला जाता है वह ऐसे कानों तक पहुंचता है जो उसे अनसुना कर देते हैं ।कम से कम उनमें से अधिकांश ।और कुछ ऐसे कानों तक पहुंचता है जो सुनने के तो इच्छुक हैं लेकिन समझते नहीं। देखिए यदि एक या दो लोग भी ऐसे हैं जिन्होंने सुना है समझा है आत्मसात किया है तो वह निश्चय ही मेरे ऐसे लंबे जीवन का पारितोषिक होगा। जिसमें मैंने अपने मालिक की शिक्षकों और उनके द्वारा दिए गए अनुभवों को व्यक्त करने का प्रश्न किया है।"


श्री पार्थ सारथी राज गोपालाचारी जी,

अंधकार में प्रकाश,प्रस्तावना

पुस्तक-'वे, हुक्का और मैं'

10 मार्च,2007ई0



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विश्व शिक्षक दिवस को 25 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं।

हमारे द्वारा शिक्षण कार्य करते हुए 25 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं।


ऐसा हम भी महसूस करते रहे हैं। हम सुनील वाजपेयी, अरविंद मिश्रा से कहते आये हैं कि यदि कोई दो भी अपने जीवन के लिए हमें धन्य मानता है तो हम उत्साहित होंगे। हमने महसूस किया है कि विभिन्न संस्थाओं के सत्संगों,कथा वाचकों के प्रवचनों आदि में उमड़ी भीड़ में से कितने जागे हुए हैं? रात्रि में जागरण कराने वालों में कितने जागे हुए है ? रात्रिभर जागरण में जागने वाले जीवन में कितना जागे हुए हैं?ऐसा ही हम विद्यार्थियों, शिक्षकों, शिक्षितों के सम्बंध में भी कहते हैं?कितने ज्ञान की धारा में बह रहे हैं? हमें प्रति दिन दो लोग ध्यान से सुनते हैं, हम उससे उत्साहित हैं लेकिन जिधर भीड़ दौड़ी चली जा रही है सुनने को ,उधर से कितना सुना जा रहा है?कितनों के द्वारा सुना जा रहा है?


हमारे आदि ऋषियों, नबियों का जो मकसद था-पशु मानव को मानव बनना, मानव से महामानव बनना, देव मानव बनना.....ऐसा कौन चाहता है?


मंगलवार, 18 अगस्त 2020

आस्तिकता में नास्तिकता व हमारी प्रार्थनाएं::अशोकबिन्दु

 हमारी इच्छाएं हमारी आस्तिकता की पहचान नहीं नास्तिकता की पहचान हैं।

आत्मा है आत्मीयता ,आत्मा है वह स्थिति जो हमें अनन्त का ।परम् का अहसास कराती रहती है। वह तो सागर में लहर की भांति होती है।सागर वह ,वह में सागर। उसकी सागर में डूब ही प्रेम है। संसार की वस्तुओं से प्रेम प्रेम नहीं काम है, लोभ है, लालच है।आस्तिकता में प्रेम सिर्फ अंतर स्थिति है।जगत में तो-न काहू से दोस्ती न काहू से बैर।


हम आराध्य के समक्ष की हेतु में खड़े हैं?सांसारिक इच्छाओं की खातिर। प्रेम तो अंधा है, मौत भी सामने आ जाए तो भी प्रेम है।


प्रेम हमारेसूक्ष्म, कारण, परम् आत्मा, आत्म गुणों में डूब है।

ऐसे में कैसी प्रार्थनाएं?


ऐसे में तो बाबर की प्रार्थना ठीक है, यदि बेटे से प्रेम है तो?मेरी जान लेले लेकिन हुमायूं को बचा दे।


हमारी प्रार्थनाएं अज्ञानता से उपजी हैं।

कोई कहता है, हे मालिक बरसात रुक जाए।एक कहता है, माको लिक ठीक।और बरसा।बेचारा मालिक को किस उलझन में डालते हो?


मालिक को मन्दिर में जा चढ़ाए जा रहे हो, चढ़ाए जा रहे हो?मालिक के दर पर पर ढेर ही ढेर।बेचारे क्या करते होंगे?



सहज मार्ग में प्रार्थना मालिक से लिंक के लिए है, एक स्थिति है।


हे नाथ!

तू ही मनुष्य जीवन का वास्तविक ध्येय है।

हम अपनी इच्छाओं के गुलाम हैं,

जो हमारी उन्नति में बाधक है।

तू ही एक मात्र ईश्वर व शक्ति है

जो हमें उस लक्ष्य तक ले चल सकता है।


हमारे लिए इस से बेहतर अन्य प्रार्थना क्या हो सकती है?शरणागति में, समर्पण में, प्रेम में अन्य प्रार्थनाओं का क्या महत्व? वे नास्तिकता का ही परिचय हैं।

#अशोकबिन्दु



बात बहुत दूर तक जाती है, अनेक जन्मों तक भी।संस्कार बन कर भाग्य बन कर::अशोकबिन्दु

 कभी कभी हम महसूस करते हैं कि ध्यान हमें जितना ऊंचा बनाता है, सहस्राधार से भी ऊपर अनन्त यात्रा का साक्षी! उतना ही नीचा भी ऊर्जा को पहुंचा देता है, मूलाधार की निम्न निकृष्ट दशा पर ! ऐसे में अपने आराध्य के प्रति शरणागति, समर्पण व हालातों के प्रति तटस्थता आवश्यक है।  जब तक हम इस शरीर में हैं, गिरने की भी सम्भावनाएं हैं।कुछ चीजें ऐसी हैं जो समाज,समाज के धर्मों, जातियों,संस्थाओं, शासन वर्ग, सरकारी कर्मचारियों ,पूंजीपतियो,पुरोहितों के लिए गलत होती हैं लेकिन वे ग्रंथों, सन्तों की वाणियों, इतिहास की चमक में हमें सम्मान दिलाती है। शिक्षक, शिक्षित की नजर में भी नहीं।हम अकेले हैं इसका मतलब ये नहीं है कि हम गलत हैं। देखा गया है शासन, समाज ने किसी व्यक्ति को गलत साबित कर दिया, उसे जहर दिया गया, सूली भी दी गयी लेकिन समय ने करवट बदली ,जिसको झाड़ समझ कर किनारे कर दिया गया वह हीरो बन गया। जिंदगी यहीं अभी जीवन यापन करने, हाड़ मास शरीर सिर्फ इसी हाड़ मास शरीर तक सीमित नहीं नही है, सूक्ष्म जगत है, कारण जगत है आगे भी अनेक जगत हैं।हर जगत में अनेक स्तर है।आप समझते होंगे कि हमने अमुख अमुख व्यक्ति से पल्ला झाड़ लिया लेकिन ऐसा इन्हीं।...और हर खामोशी या हर वार्ता में हमें गिरने का मतलब  तुम्हारी जीत नहीं।बात बहुत दूर तक जाती है।संस्कार व भाग्य बन अनेक जन्मों तक पीछा करती है।


 अहंकार शून्य होना आवश्यक है।निरा प्रेम में।प्रेम में तो बड़ी से बड़ी ऋणात्मकता भी झिल जाती है। सन्त तुलसी के अनुसार यश अपयश की भी चिंता नहीं, मीरा के अनुसार कुल मर्यादा ,लोक मर्यादा की भी चिंता नहीं। ऐसे में सामने अमीर हो गरीब, जन्म जात उच्च हो या निम्न, अधिकारी हों हो या भिखारी, राजा हो या रंक... आदि आदि कोई मायने नहीं रखता।वहां तो एक ही मायने रह जाता है-सागर में कुम्भ ,कुम्भ में सागर।

#अशोकबिन्दु


कबीरा पुण्य सदन



सोमवार, 17 अगस्त 2020

वह अकेला है लेकिन उसमें सब हैं, सबमें वह है::अशोकबिन्दु

 भीड़ का कोई धर्म नहीं होता।सम्प्रदाय होता है।

अरे उसका कौन है?उसके संग जैसा चाहो वैसा व्यवहार कर लो?

उबन्तु उबन्तु:: मैं हूँ क्योंकि हम सब हैं:अशोकबिन्दु


      कुदरत के बीच जो हैं वे असभ्य हैं क्या?

इंसानी समाज जो कुदरत के बीच है-असभ्य है ? जो जंगल के बीच है?


आज कोरोना संक्रमण के दौरान पागल, सड़क छाप, खानाबदोश जीवन जीने वाले, भिखारी ,जंगल में रहने वाले इंसान कितना कोरोना से संक्रमित हैं?


किसी ने कहा है- कुदरत में कौन कुदरती ज्ञान के साथ जी रहा है?असल ज्ञान तो अंतर ज्ञान है, जो प्राणी के अंदर स्वतः है।


वहां न तुम्हारे ग्रन्थ हैं, न भगवान, न धर्म स्थल, न पुरोहित।अरे, वे तो असभ्य हैं जंगली कहीं के। उनके तन पर कपड़े भी कम हैं या नहीं भी हैं।


उनके शरीरों में क्या आत्माएं हैं ही नहीं? उनकी आत्मा मर चुकी है क्या?


ब्रह्मांड व प्रकृति में जो भी है, उसकी आत्मा मर चुकी है क्या?

हम ही हैं, जो जिंदा हैं।हमारी आत्मा जिंदा है। 



ब्रह्मांड में सब कुछ स्वतः है, नियम से है।नियम में बंधा है। 

मनुष्य जब जब प्रकृति की स्वतः चलिता से दूर हुआ है वह स्वयं का ही नहीं, अपने कुल व पासपड़ोस के  पतन का कारण बना है।

हम तो अब कहेंगे कि हमें अब कबीलाई संस्कृति में विश्वबंधुत्व,बसुधैव कुटुम्बकम की भावना, सहकारिता, समूह में त्याग के साथ जीना आदि परम्परा फिर से शुरू होनी चाहिए। हमारी संस्कृति चाहें कितनी भी पुरानी हो, हम क्यों न अपने को सनातनी होने का दम्भ भरते हों? अभी काफी निम्न स्तर पर जी रहे हैं। दक्षिण ेेशया में कही से भी किधर से भी 100 मकानों के अध्ययन कर लीजिए, पता चल जाएगा कि विचारों, भावनाओं, समझ, चेतना का क्या स्तर है? पश्चिम के देशों में जिन्हें काफिर, चोर, लुटेरा कहा गया, आखिर उन्हें क्यों कहा गया। महत्वपूर्ण ये नहीं है कि हमारे ग्रन्थ, महापुरुष क्या कहते हैं? महत्वपूर्ण ये है कि हमारा नजरिया व समझ का स्तर क्या है? कमलेश डी पटेल दाजी को कहना पड़ता है ,महत्वपूर्ण ये नहीं है कि  हम आस्तिक हैं नास्तिक ,महत्वपूर्ण है कि कि हमारी समझ, चेतना का स्तर क्या है?अनुभव व अहसास क्या है ?आइंस्टीन ने कहा है-परिवर्तन परिवर्तन को स्वीकार करने की माप ही बुद्धिमत्ता है।



अमेरिका की एक रिसर्च संस्था होती है जंगल में  जीवन यापन करने वालों का अध्ययन करती होती है।

उबन्तु उबन्तु!!

उस संस्था के कुछ लोग अफ्रीका के जंगलों में रहने पहुंचते है। 

कुछ दिन के बाद घुल मिल जाने के बाद जंगल के कुछ बच्चों को इकट्ठा करके उनके बीच फलो की एक टोकरी रखी जाती है बच्चों से कहा जाता है यह फल की टोकरी उस पेड़ पर रख दी जाएगी यहां से जो बच्चा उस पर तक जल्दी पहुंचेगा वह टोकरी उसकी हो जाएगी इसके बाद फलों की टोकरी को पेड़ पर रख दिया गया जंगली बच्चे दौड़ कर उस पीने की ओर जाने लगे एक बच्चा जो सबसे आगे था उस टोकरी को छू लेता है इसके बाद फिर क्या होता है वह बच्चे एक दूसरे का हाथ पकड़कर उस पेड़ के चारों ओर चक्कर लगाने लगे और चीखने लगे - उबन्तु उबन्तु। वे फल जंगलियों ने मिल जुल कर खा लिए।

कुछ दिनों बाद पता चला कि उबन्तु उबन्तु का मतलब है," मैं हूं  क्योंकि हमसब हैं।"


समस्या मानव समाज है,हमारे समाज में हैं।

जहाँ  आपके ग्रन्थ नहीं, आपके धर्मस्थल नहीं। वहां क्या सब गलत है? जहां आपके देवी देवता नहीं वहां क्या सब गलत है।




शनिवार, 8 अगस्त 2020

अभ्यास, दिनचर्या, आदत बनाम वृद्धावस्था::अशोकबिन्दु

 

सोमवार, 3 अगस्त 2020

आत्म सम्मान, आत्म प्रतिष्ठा, आत्मबल, प्राण प्रतिष्ठा, प्राणायाम, प्राणाहुति आखिर क्या::अशोकबिन्दु



















जब हम आत्मा की ओर मुड़ जाते है तो स्वत: विश्व बंधुत्व व बसुधैब कुटुम्बकम की ओर मुड़ जाते हैं।

सागर में कुम्भ, कुम्भ में सागर के भाव से जुड़ जाते हैं।



खुद से खुदा की ओर!


आखिर ऐसा क्या है?

हमारे तीन स्तर हैं-स्थूल, सूक्ष्म व कारण।

हम सभी अपनी ही सम्पूर्णता से नही जुड़े हैं।

स्थूल से सूक्ष्म, सूक्ष्म से कारण की ओर जा हम अपने सम्पूर्णता से नहीं जुड़े है,जिससे हम अनन्त यात्रा की शुरुआत करते हैं।

खुद से खुदा की ओर क्या है?

हम भी अपने अंदर आत्मा रखते हैं ,हम अपने अंदर कितना रखते हैं । कोई मजार पर जाता है ,कोई पीपल थान पर जाता है। ठीक है जाता है।हम उसका विरोध नहीं करते। लेकिन हमारे अंदर जो आत्मा बैठी है,उसको वक्त कब?उसकी आवश्यकताओं में कब?

जब हम आत्म केंद्रित होते हैं,तो उस वक्त की अपेक्षा ज्यादा ऊर्जावान होते है जब हम हाड़ मास शरीर, शरीरों, इंद्रिक आवश्यकताओं व संसारिकता में होते हैं।


ये हाड़ मास शरीर?सब कुछ  इसके लिए ही? दूसरे का सम्मान भी.... किसी का शिष्यत्व कैसा?किसी का गुरुत्व कैसा? किसी को महत्व देने का मतलब?जीवन में सिर्फ खान पान, वस्त्र, धन आदि से केंद्रित सब कुछ? सम्मान किसका?आत्मा का सम्मान कहाँ? आत्मा की प्रतिष्ठा कैसी? आत्मा का बल कैसे?



ऐसे में नीच क्या? जन्मजात उच्चता क्या?ब्राह्मणत्व क्या?क्षत्रियत्व क्या? कौन नीच?वहां तक पहुंच किसकी?!जगत व ब्रह्मांड में जो कुछ भी दिख रहा है, मानव जीवन से परे, वह सब प्रकृति है।वहां प्रकृति के सिवा कुछ भी यदि है तो वह है-सर्व व्याप्त स्वत :,निरन्तर,शाश्वत।जो हमें अनन्त यात्रा से जोड़ता है। मानव जीवन मे इस सब के सिवा भी है- कृत्रिम, बनाबटी, पूर्वाग्रह, छाप, अशुद्धियां, जटिलताएं आदि।जो मानव व उसके समाज को विकृत ही  किए हुए है।



मानव व ब्रह्मांड में जो अन्तर्यामी शाश्वत, निरन्तर, स्वत: आदि है वही सनातन है। वही अन्तर्यामी जीवन है।वही राम है।वही खुदा है।वही आत्मा है।वही प्राण है।वही हमारा निजत्व है।वही आत्मीयता है।उसी के आयाम से बंधा है -मनुष्य शरीर,जगत व ब्रह्मांड। जब हम अंतर मुखी होते हैं ,उसकी याद में गुरु की कृपा से  तो हम अपने अंदर की चेतना व समझ को अपने वर्तमान  स्तर से अग्रिम ऊपर के स्तरों पर महसूस करना शुरू करते हैं। सागर में कुम्भ, कुम्भ में सागर - की स्थिति में होना शुरू करते हैं।अपने आसपास अन्य चेतनाओं को भी महसूस करना शुरू करते हैं। यही वेद है जो हम ये महसूस करना शुरू करते हैं।वेद के छह अंग हैं, छठवां अंग ज्योतिष=ज्योति+ईष को महसूस करना शुरू करते हैं।आस पास का  पूर्वआभास शुरू हो जाता है।जब हमारी साधना जारी रहती है तो हम आगे बढ़ते हैं। आध्यत्म में कोई साधन पूर्ण नहीं होती, आगे अनन्त स्तर होते हैं।



बाबू जी महाराज ,साक्षात्कार, पुस्तक सत्य का उदय में कहते हैं-

" एक उचित प्रशिक्षण विधि में उन सभी भौतिक तथ्यों के प्रति साधक को असावधान कर दिया जाता है तथा  गुरु की ध्यान शक्ति द्वारा उन्हें पार करने में सहायता दी जाती है जिससे उसका मन केवल शुद्ध आध्यात्मिक विषय के अतिरिक्त अन्य किसी और आकृष्ट न हो । वह तब अपने ऊपर सौंपे हुए छोटे-मोटे दैवी कार्य करने की स्थिति में हो जाता है  उसका कार्य क्षेत्र उस अवस्था में एक छोटा स्थान होता है जैसे एक कस्बा एक जिला अथवा कोई और बड़ा खंड । उसका कार्य अपने क्षेत्र के अंतर्गत सभी क्रियाशील वस्तुओं की प्रकृति की मांग के अनुरूप उचित व्यवस्था करना है । वह अपने क्षेत्र में वांछित तत्वों का सन्निवेश करता है और अवांछित तत्वों को हटाता है ।
उसे ऋषि कहते हैं और उसका पद वसु होता है ।
उससे ऊंची स्थिति एवं पद ध्रुव का है  ।.... उसकी श्रेणी मुनि की होती है।" इसके आगे भी अनेक पद हैं।


98 प्रतिशत से भी ज्यादा लोग अपने अहसास से,अपने अस्तित्व से ही नहीं जुड़े हैं।आत्मा का ही अहसास नहीं करते है।अपनी चेतना का ही अहसास नहीं Lकरते है।तो आस पास की चेतना का,आत्मा का अहसास क्या करने? परम् आत्मा की ओर होना दूर की बात।सभी शारिरिक व इंद्रिक आवश्यकताओं,इच्छाओं में डूबे रहते हैं। "उसके बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता"-पर बखान देने वाले भी इसे महसूस नहीं करते या इस भाव में अपना आचरण नहीं रख पाते।अपने को खुदा का बन्दा कहने वाले भी छोटी छोटी बात पर खुद निर्णय लेने को तैयार हो जाते हैं। अनेक लोग बहस बाजी करते मिल जाते हैं लेकिन जो अनुभव का विषय है, महसूस होने का विषय है ,वह बहस बाजी से नहीं, ग्रंथों को रटने से प्राप्त नहीं होता।

हमारे अंदर आत्मा है, वही से हम परम् आत्मा की ओर अग्रसर हो सकते है।उसके सहयोग से जो इसमें हमारे वर्तमान सहयोगी है। इसके लिए हमे अब अन्य कर्मकांड, नाम जाप, धर्म स्थलों आदि की आवश्यकता नहीं है। 








आखिर दिल पर ध्यान क्यों:::अशोकबिन्दु

प्रश्न. चिकित्सा विज्ञान के लिहाज से मेडिटेशन क्यों जरूरी है?
उत्तर. जन्म लेने से मृत्यु तक दिल लगातार काम करता है। दिल रोज़ाना सात हजार लीटर रक्त पम्प करता है। इसमें 70 फीसदी रक्त दिमाग में जाता है बाकी 30 फीसदी पूरे शरीर में।
प्रश्न. दिल इतने सक्षम और प्रभावशाली तरीके से कैसे काम कर लेता है?
उत्तर. दिल इतने प्रभावशाली तरीके से इसलिए काम कर लेता है क्योंकि यह अनुशासित रहता है। सामान्य स्थितियों में दिल को सिकुड़ने में 0.3 सेकेन्ड लगते हैं और रिलैक्स होने में 0.5 सेकेन्ड।
इस तरह दिल को एक बीट पूरा करने में 0.3+0.5=0.8 सेकेंड लगते हैं। यह एक चक्र हुआ।
इसका सीधा मतलब यह हुआ कि एक मिनट में दिल 72 बार धड़कता है। इसे सामान्य हार्ट बीट माना जाता है।
0.5 सेकेन्ड के रिलैक्सिंग फेज़ (चरण) में अशुद्ध रक्त फेफड़ों से होकर गुजरता है और सौ फीसदी यानी पूरी तरह शुद्ध हो जाता है।
तनाव होने पर शरीर कम समय में ज्यादा खून चाहता है और इस स्थिति में दिल का रिलैक्सिंग पीरियड 0.5 सेकेन्ड से घटकर 0.4 सेकेन्ड हो जाता है। इस तरह इस मामले में दिल एक मिनट में 82 बार धड़कता है और सिर्फ 80 फीसदी खून ही शुद्ध हो पाता है।
और ज्यादा माँग बढ़ने पर रिलैक्सिंग टाइम और भी कम होकर 0.3 सेकेन्ड हो जाता है। तब सिर्फ 60 फीसदी खून ही शुद्ध होता है।
जरा सोचिए हमारी धमनियों में जब कम ऑक्सीजनयुक्त खून दौड़ेगा तो क्या होगा!
खून में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ाने में गहरी साँसें काफी कारगर होती हैं।
दिमाग की गतिविधियों को प्रभावित करने वाले कारक कई हैं:
1. 25%-30%  हमारी डाइट के कारण होता है।
2. 70%-75%  हमारी भावनाओं, प्रवृत्तियों, स्मृतियों और दिमाग की दूसरी प्रक्रियाओं के कारण होता है।
इस प्रकार दिमाग को शान्त करने और दिल में ज्यादा से ज्यादा खून पंप करने की मांग को कम करने के लिए दिमाग को आराम देने की ज़रूरत होती है।
ध्यान अशान्त मन को शान्त करने का सबसे उपयोगी उपकरण है।
जब हम आँखें बन्द करके बैठते हैं तो हमारा दिमाग शान्त हो जाता है, दिल को सुकून पहुँचता है। इस तरह यह हमें दिल और दिमाग की बीमारियों से अलग कर देता है।
ध्यान ही असल हीलिंग की कुंजी है।
हमारे पूर्वजों ने इसके बारे में हजारों साल पहले ही सोच लिया था। आज कितनों को यह हकीकत पता है?


लेखक:अज्ञात
Heartfulness!!

रविवार, 2 अगस्त 2020

तुम्हारे आस्तिक या नास्तिक होने से कोई फर्क नहीं पड़ता:अशोकबिन्दु

 हम जिधर भी निगाह डालते हैं हमें उधर कुदरत नजर आती है ।

इस कुदरत के बीच में हमें मनुष्य द्वारा निर्मित बनावटी कृत्रिम चीजें भी देखने को मिलती हैं।

 इस सबसे हटकर कुछ और भी है, जो सर्व व्याप्त है। जो हम में भी है तुम्हारे में भी है। कुछ लोगों ने इस दुनिया में प्राणियों को विशेषकर मनुष्यों को सुर और असुर में बांटा है। यह सुर और असुर क्या है?
जिन्हें असुर कहा जाता है-वे भी हवन करते थे।ब्रह्मा, विष्णु, महेश के लिए आराधना, तपस्या आदि करते थे।हम सब भी ये करते हैं।मूर्ति के व्यपारियों द्वारा मूर्ति खरीद कर उसे मन्दिर आदि में स्थापित कर उसको पूजते हैं, हवन करते हैं। दिन रात हम किस में, किन भावनाओं,आचरणों में व्यस्त रहते हैं?

हमारी नजर में, प्राण सर्वत्र व्याप्त हैं।प्राण ही सुर है।जो उसके अहसास में नहीं है, वह क्या असुर नहीं है? हम किस लिए जी रहे हैं?हाड़ मास शरीर, इन्द्रियक आवश्यकताओं के लिए सिर्फ।हमारे अंदर जो प्राण हैं, आत्मा है उसके लिए क्या करते है?विश्वास किस पर है?आत्मा पर?प्राण पर?


अपनी अपनी आस्था ...? अपनी अपनी आस्था कैसे?!हम तो यही कहेंगे कि आस्था एक ही होती है, दिल एक ही होता है। हां,आस्था का स्तर अलग अलग हो सकता है।दिल का स्तर अलग अलग हो सकता है। प्रतिदिन मन्दिर जाते हो, मस्जिद जाते हो?क्या फर्क पड़ता है ?यदि अपने धर्म स्थल से निकलने के बाद फिर -"अरे, सब चलता है।" फिर कर्म कैसे?सोंच कैसी?भाव कैसा?नजरिया कैसा?दुनिया को देखने की प्रतिक्रिया कैसी? चाहत कैसी? लक्ष्य कैसा?   प्रेम की दशा का स्तर  क्या? 

अपने इंद्रिक व शारीरक इच्छाओं के लिए झूठ-प्रपञ्च, षड्यंत्र, हिंसा, मनमानी, कुप्रबन्धन, अपराध...... सुरता.... कि... असुरता..?!अब अपने को कहीं का तीरंदाज समझो।जन्मजात  उच्चता के घमण्ड में जिओ। अपने जाति, धन, पद,हाड़ मास तन बल आदि पर गर्व का मतलब क्या? अपने स्वार्थ के लिए दूसरों को कष्ट?अपनी ऊंची हांकने के लिए दूसरों बातों ही बातों नीचे गिरना? हम अब ऐसे में क्या कहें-सुरत्व या असुरत्व में? बात ये नहीं कि किस जाति, किस मजहब के?बात ये नहीं कि किस घर से,किस संस्था से,किस देश से?किन आराध्यों,महापुरुषों की तश्वीरों - मूर्तियों के बीच?

शनिवार, 1 अगस्त 2020

विश्व बंधुत्व से मानव कल्याण व विश्व शांति की ओर:अशोकबिन्दु

14,15 व16 अगस्त2020ई0!

विश्व शांति व विश्व कल्याण की ओर पथ....
 ऐसा क्यों? खाने के लिए घर में नहीं चले विश्व शांति की बात करने?
हम कहाँ पर हैं?हमारी चेतना कहाँ पर है....

इस दुनिया का क्या?वह जिस के पीछे दौड़ रही है, वे व उनके समकक्ष ही तन्त्र में हाबी हैं, कितना निपटा ली समस्याएं?

अध्यात्म व मानवता ही सभी समस्यायों का समाधान है।

आत्मा से ही परम् आत्मा की ओर सफर है। परिवार भाव  में पूरी दुनिया को देखना परम् आत्मा की ओर देखने का  रास्ता है।

शेष सब तुम्हारा हमारे लिए  किस काम का?

फ्रांस की क्रांति, रूस की क्रांति से हमें क्या सीख मिलती है? सबको साथ लेकर चलने से ही जगत का कल्याण है मानवता का कल्याण है विश्व शांति संभव है अन्यथा फ्रांस की क्रांति रूस की क्रांति के जो कारण थे बे कारण क्या वे अब भी मौजूद नहीं हैं?

सरकारें व दल समस्याएं निपटाने से रहे।
8वी-15 वीं शताब्दी में जो हुआ वह किस कारण हुआ?जो हुआ उसके लिए क्या विदेशी ही दोषी थे?

पूंजीवाद, पुरोहितवाद, सामन्तवाद, जन्मजात उच्चतावाद, जातिवाद, माफ़ियावाद आदि की एक हद भी है।उस हद के बाद क्या होता है?इतिहास गबाह है।

सुकून मानवता व आध्यत्म से ही सम्भव है।

आओ हम सब आध्यत्म व मानवता को स्वीकार करें।
विश्व बंधुत्व, बसुधैव कुटुम्बकम को स्वीकार करे।



शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

धरती का सबसे खतरनाक प्राणी कौन:::अशोकबिन्दु

सत्तावाद, पूंजीवाद, पुरोहितवाद, जातिवाद, मजहबवाद, सामन्तवाद, जन्मजात उच्चतावाद आदि मिल कर धरती, मनुष्य समाज का बंटाधार करने में लगे है। आक्सीजन के अभाव, पेय जल के अभाव आदि की किसे चिंता?धर्म स्थल चाहिए?अपनी जाति पर गर्व चाहिए?

उफ़.....

*अब यदि आप इस लेख को न पढ़ें तो आपकी गलती , लिखने वाले ने तो 2-4 घंटे की मेहनत से लिख दिया*

कल्पना कीजिए उस देश की, जहाँ दुनिया की सबसे ऊँची मूर्ति होगी, जगमगाता हुआ भव्य राम मंदिर होगा, सरयू में देशी घी के छह लाख दीयों की अभूतपूर्व शोभायमान महा आरती हो रही होगी। सड़कों, गलियों और राष्ट्रीय राजमार्गों पर जुगाली और चिंतन में संलग्न गौवंश आराम फरमा रहा होगा। धर्म उल्लू की तरह हर आदमी के सर पर बैठा होगा ।

लेकिन, अस्पतालों में ऑक्सीजन नहीं होगी, दवाइयां, बेड, इन्जेक्शन नहीं होंगे। दुधमुंहे बच्चे बे-सांस दम तोड़ रहे होंगे। मरीज दर-ब-दर भटक रहे होंगे। देश में ढंग के स्कूल-कॉलेज नहीं होंगे, बच्चे कामकाज की तलाश में गलियों में भटक रहे होंगे। कोविड-19 जैसी महामारियां देश पर ताला लगा रही होगी और देश का प्रवासी मजदूर भूखे-प्यासे सैकड़ों मील की पैदल यात्रा कर रहे होंगे, आम जनता घुट-घुट कर जी रहे होंगे और तिल-तिल कर मर रहे होंगे ।

बेटियां  स्कूलों, कॉलेजों, मेडिकल, इंजीनियरिंग संस्थाओं में न होकर सिर्फ़ सड़कों पर दौड़ रहे ट्रकों के पीछे बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के नारों में ही होंगी और न्याय एक महँगा विलासिता की चीज होगा। बेटियों, महिलाओं के हत्यारों, बलात्कारियों और दूसरे जघन्यतम अपराधियों को पुलिस बल गार्ड-ऑफ़-ऑनर पेश कर रहे होंगे। अलग-अलग वेषभूषा में मुनाफ़ाखोर और अपराधी-प्रवृत्ति के लोग देश के सम्मानित और गणमान्य नागरिक होंगे और मीडिया उनका जय-जयकार कर रही होगी ।

 विश्व स्तर के उत्कृष्ट शिक्षा संस्थान नहीं होंगे,अस्पताल नहीं होंगे, बेहतरीन किस्म की शोध संस्थान और प्रयोगशालाएं भी नहीं होंगी, भूख और बेरोजगारी से जूझती जनता के लिए चूरन होंगे, अवलेह और आसव होंगे, सांस रोकने-छोड़ने के करतब होंगे, अनुलोम-विलोम होगा, काढ़े होंगे और इन सबसे ऊपर, कोई शातिर तपस्वी उद्योगपति होगा, जो धर्म, अध्यात्म, तप-त्याग, और दर्शन की पुड़ियाओं में भस्म-भभूत और आरोग्य के ईश्वरीय वरदान लपेट रहा होगा। परंतु हमारे पास कुछ तो होंगे । हमारे पास गायें होगी, गोबर होगा, गोमूत्र होगा ।

सुव्यवस्थित और गौरवशाली राष्ट्रीयकृत बैंक भी नहीं होंगे, बीमा कंपनियां नही होंगी। महारत्न और नवरत्न कहे जाने वाले सार्वजनिक उपक्रम नही होंगे। अपनी-सी लगती वह रेल भी गरीबों की पहुँच से दूर होगी ।

देश एक ऐसी दुकान में बदल चुका होगा, जिसका शक्ल-सूरत किसी मंदिर जैसा होगा। देश ऐसा बदल चुका होगा जहाँ युवकों के लिए रथयात्राएं, शिलान्यासें और जगराते होंगे। गौ-रक्षा दल होंगे, और गौरव-यात्राएं होंगी। मुंह में गुटके की ढेर सारी पीक सहेजे बोलने और चीखने का अभ्यास साधे सैकड़ों-हजारों किशोर-युवा होंगे, जो कांवर लेकर आ रहे होंगे या जा रहे होंगे, या किसी नए मंदिर के काम आ रहे होंगे और खाली वक्त में जियो के सिम की बदौलत पुलिया में बैठे IT Cell द्वारा ठेले गए स्रोत से अपना ज्ञान बढ़ा रहे होंगे।

शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक-सामाजिक उन्नति के हिसाब से हम 1940-50 के दौर में विचर रहे होंगे। तर्क, औचित्य, विवेक से शून्य होकर पड़ोसी की जाति, गोत्र जानकर किलस रहे होंगे अथवा हुलस रहे होंगे। हम भूखों मर रहे होंगे परंतु अपने हिसाब से विश्वगुरु होंगे । हमारा आर्थिक विकास इतना सुविचारित होगा कि दुनिया का सस्ता डीजल, पेट्रोल हमारे यहां सबसे महंगा होगा। कोविड-19 जैसे महामारी के दौर में भी हम मास्क, सैनेटाइज़र और किट पर जीएसटी वसूल रहे होंगे।

हमारी ताक़त का ये आलम होगा कि कोई कहीं भी हमारी सीमा में नहीं घुसा होगा, फिर भी हमारे बीस-बीस सैनिक बिना किसी युद्ध के वीरगति को प्राप्त हो रहे होंगे। दुश्मन सरहद पर खड़ा होगा और हम टैंकों को जे.एन.यू. सरीखे विश्वविद्यालयों में खड़े कर रहे होंगे।

कोई खास मुश्किल नहीं है। बस थोड़ा अभ्यास करना होगा, उल्टे चलने और हमेशा अतीत की जुगाली करने और मिथकों में जीने की आदत डालनी होगी। शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली, पानी, रोजगार, न्याय, समानता और लोकतंत्र जैसे राष्ट्रद्रोही विषयों को जेहन से जबरन झटक देना होगा। अखंड विश्वास करना होगा कि धर्म, संस्कृति, मंदिर, आरती, जागरण-जगराते, गाय-गोबर, और मूर्तियां ही विकास हैं। बाकी सब भ्रम है। यकीन मानिए शुरू में भले अटपटा लगे, पर यह चेतना बाद में बहुत आनंद देगी। मैंने अभ्यास प्रारम्भ कर दिया है ।

*लेख लिखने वाले सज्जन को दिल से सलाम*

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शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

24जुलाई -पार्थ सारथी राजगोपालाचारी जी जन्म दिन पर विशेष/उनकी नजर में शिक्षा::अशोकबिन्दु




हमारा पूरा जीवन शिक्षा जगत में ही बीत गया,बीत रहा और बीतेगा। हमने बीएड सत्र के दौरान एस एस कालेज, शाहजहांपुर से आकुल जी से पढ़ा था कि शिक्षा तो व्यक्ति की संभावनाओं को विकसित करना है।विवेकानंद ने कहा है-शिक्षा है अंतरनिहित शक्तियों का विकास। इन दिनों में सहज मार्ग में सन्त व  ऋषि श्री पार्थसारथी राजगोपालाचारी की याद व उनके साहित्य के अध्ययन में हैं। वे शिक्षा पर क्या महसूस करते थे?इस पर हम कुछ व्यक्त करने का प्रयत्न कर रहे हैं।


इस समय हमारे हाथ में है उनकी पुस्तक युवावस्था प्रतिज्ञा और प्रयास का समय भाग 2 एक निर्देशित जीवन।

 इस पुस्तक में उनकी उन की उन वार्ताओं का संकलन प्रस्तुत किया गया है जो भारत और विदेश के विभिन्न स्थानों पर उनके और युवाओं के मध्य हुई युवाओं के जोश और ही आवश्यकता और प्रयासों को ध्यान में रखते हुए इन्होंने सारे विश्व के युवाओं को परिवर्तन और भविष्य के नव निर्माण के लिए प्रेरित किया है श्री रामचंद्र मिशन में सहज मार्ग प्राकृतिक मार्ग अध्यात्म के प्रशिक्षण की एक व्यावहारिक पद्धति प्रस्तुत करता है वस्तुतः सर्व ज्ञात राज योग की पुरानी पद्धति है जिसे आधुनिक जीवन की आवश्यकताओं के अनुरूप हाल कर सरल कर दिया गया है इसका दे आंतरिक पूर्णता या ईश्वर साक्षात्कार है श्री रामचंद्र जी की शिक्षाओं के अनुसार ईश्वर अनंत किंतु सरल है इसलिए उस तक पहुंचने का मार्ग भी सरल होना चाहिए एक पहुंचे हुए समर्थ गुरु की सहायता एवं मार्गदर्शन में मन का नियमन करके अभ्यासी उच्चतम अवस्था प्राप्त कर सकता है यह अवस्था गुरु प्रणाहूति अर्थात योगिक संप्रेषण द्वारा देता है और हृदय में देवी ऊर्जा का संचार करते अभ्यासी के अंतर त मां को परिष्कृत कर देता है सहज मार्ग की एक खास विशेषता है की श्री रामचंद्र जी की महासमाधि के बाद भी आज उनकी जगह एक समर्थ सद्गुरु श्री पार्थ सारथी राजगोपालाचारी जी के रूप में हमें उपलब्ध होने के बाद अब श्री कमलेश डी पटेल दाजी जिनकी सहायता पाकर कोई भी व्यक्ति कुछ समय तक इस प्रणाली का अभ्यास करके प्रार्थी का अनुभव कर सकता है श्री पार्थ सारथी राज गोपालाचारी का कहना का कहना था किसी भी मनुष्य की बाहर क्षमता तभी प्रकट हो सकती है जब वह अपने उस मन का नियमन करने की योग्यता अर्जित कर ले जो उसे प्राप्त उपकरणों में से सर्वाधिक परिपूर्ण है वह कैसा बनेगा इस बात से तय होगा की वह अपने मन का प्रयोग कितने अनुशासन और नियमन से करता है क्या वह ऐसा मजदूर बनने जा रहा है जो केवल लोहा काटने की आरी यक्षी मशीन को ठीक से चलाना जानता है या वह कोई वैज्ञानिक बनने जा रहा है या वह उच्चतम उदाहरण बनेगा मानवीय पूर्णता का एक संत ।

 श्री पार्थ सारथी राजगोपालाचारी के गुरु बाबूजी महाराज से जब एक बार पूछा गया की वास्तव में शिक्षित कौन है तब उनका कहना था जब कोई व्यक्ति शिक्षित हो जाता है तब उसके अधिकार खत्म हो जाते हैं उसके कर्तव्य बच जाते हैं वास्तव में शिक्षित व्यक्ति के सामने सिर्फ उसके लिए कर्तव्य है शिक्षक या प्रशिक्षक के कर्तव्य और भी बड़े हैं शिक्षक या प्रशिक्षक शिक्षा जगत में ज्ञान के आधार पर अनेक प्रयोग निरीक्षण आचरण रखने का आवश्यक कर्तव्य रखता है।


श्री पार्थ सारथी राजगोपालाचारी कहते हैं- जब तक आप अपने अंतर में अस्तित्व की दशा में परिवर्तन नहीं करते आप सुखी नहीं हो सकते विज्ञान और तकनीक कोई नई नहीं है इनके प्रति पूरा आदर भाव रखते हुए मैं कहूंगा की ए नई नहीं है क्योंकि वह इतनी पुरानी है जितना खुद भारतवर्ष या जितना यह संसार यदि कोई हमारी रामायण और महाभारत पर विश्वास करें तो तब ऐसे ऐसे शस्त्र हुआ करते थे जिनके सामने आज के हाइड्रोजन बम भी कुछ नहीं है मैं उन्हें कल्पना शक्ति की उड़ान नहीं मानता क्योंकि कल्पना भी किसी ना किसी असलियत पर आधारित होती है तब . . ..  .  आपका मन उस वास्तविकता को विस्तार दे देता है तो यह सब बातें नई नहीं है । आराम-- क्यों नहीं ? लेकिन आपको यह नहीं सोचना चाहिए हमारा सुख आराम पर निर्भर करता है। लेकिन आराम की स्थिति में मैं चिंतन मनन कर सकता हूं और अपने में ऐसी दशा निर्मित कर सकता हूं जिसके परिणाम स्वरूप मुझे सुख मिल जाए यदि ईटों की एक लारी पर भी मैं आराम से बैठ सकता हूं तो क्या हर्ज है दुर्भाग्य से हमारे देश में आरामदायक जीवन और तपस्वी तपस्वी जीवन में अंतर अथवा विभेद किया गया है जो मेरे विचार से मूलभूत धमधा कीलों के बिस्तर पर सोना अग्नि के ऊपर चलना जानबूझकर शरीर को कष्ट देना स्वाभाविक आवश्यकताओं से वंचित रहना यह सब अनावश्यक था परिणाम स्वरूप मानवता का अधिकांश भाग योग साधना से दूर होता गया क्योंकि वे डरते थे हम से नहीं होगा साहब ऋषिकेश या बद्रीनाथ में गंदा के बीच कमर तक पानी में खड़े रहना इस शब्द का क्या अर्थ है क्या हम लकड़ी के लगते हैं? इसके विपरीत योग कहता है संवेदनशीलता को विकसित करो परंतु उसे किसी ऐसी वस्तु पर लगाओ जो शासित है जो कभी परिवर्तित नहीं होती होगी क्योंकि जो परिवर्तनीय है वह शाश्वत नहीं हो सकती शाश्वत अर्थात अपरिवर्तनीय तो यदि अब मुझे किसी पर विश्वास रखना है तो वह ऐसा कुछ होना चाहिए जो सास्वत हो अपरिवर्तनीय हो क्योंकि मेरी तुलना में बेहतर लेगा नहीं।


. ..... मैं जो कह रहा हूं वह बात है की पद्धति का मूल्यांकन उसकी प्रभाव उत्पादकता से करें। "आनो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वत:'- अर्थात -"बुद्धिमत्ता कहीं से भी मिले उसे ग्रहण करो।" यदि गधे के  ढेंचू ढेंचू आपको अपने घर में चोर के आने से सावधान कर देती है आपको उस गधे का आभारी होना चाहिए ।.......  ब्रह्मसूत्र, गीता और उपनिषद मिलकर प्रस्थानत्रयी कहलाते हैं ।ये तीन स्तंभ हैं जिन पर सनातन धर्म टिका है। लोगों ने इसके एक तिहाई भाग की बिल्कुल उपेक्षा कर दी और शेष दो तिहाई के बारे में वे नहीं जानते कि उनकी उपेक्षा करें यह स्वीकार करें? किसे पता है- ब्रह्म सूत्र क्या है ?किसे पता है उपनिषद क्या है? मंदिर में सबसे बड़ा लाभ यह है भगवान वहां है और वहां जाकर मैं जो चाहूं वैसा कर सकता हूं ।वापस आकर मंदिर के बाहर जो समझ में आए कर सकता हूं।

......ज्ञान, मानवता, आध्यत्म आदि के आधार पर च
लने की जिम्मेदारी किसी की नहीं?हम(अशोकबिन्दु) सोंचने लगे। हां, फिर आगे----

पार्थ सारथी राजगोपालाचारी इस पुस्तक में एक जगह कहते हैं आज भारत में सबसे आवश्यक कार्य है युवा पीढ़ी के ध्यान को विश्व युद्ध भौतिकता पर आधारित लक्ष से हटाना भारत में जो सबसे बड़ी बनती है वह यही है की शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य है नौकरी पाना इन भारतीय प्रबंधन संस्थानों में पूरे देश में सैकड़ों हजारों युवा अपना भाग्य आजमा ते हैं क्योंकि मुझे बताया गया है आई आई एम के एक सामान्य स्नातक को पढ़ाई के दौरान कैंपस में ही चुन लिया जाता है और ढाई से तीन लाख सालाना वेतन तय हो जाता है वह इस के योग्य नहीं है मेरे विचार से कोई भी स्नातक इतने भारी वेतन की योग्य नहीं है आप क्या हैं केवल एक स्नातक अपनी योग्यता तो आपको अभी साबित करनी है लेकिन उनको लुगाया जाता है उनको प्रस्तुति दी जाती है यह बिल्कुल ऐसा है मानो एक लड़की अपनी टांगे दिखा रही है और ऐसे समाज में जहां सफलता का मापदंड केवल आर्थिक सफलता भौतिक सफलता माना जाता है हमारे युवा इसी के पीछे दौड़ रहे हैं क्योंकि उन्हें सफलता चाहिए इसलिए समाज में केवल अमीर लोग हैं जो हंसी के पात्र हैं दयनीय है।   ......... अतः शिक्षा में सबसे महत्वपूर्ण है अपने युवाओं को यह समझाना की अपने आप को शिक्षित करो कुछ तथ्यों को रखकर परीक्षा पास कर लेने से नहीं चलेगा।. ... .. जैसा कि गीता में कहां है ब्राह्मण का विवाह ब्राह्मण से बेस्ट का विवाह बेस्ट से होना चाहिए मैं इससे सहमत नहीं हूं आज के जमाने में ए सही नहीं है मिलावट करने का मतलब है मिलाना तेल में मिला ना मिलावट है दूध में पानी मिलाना मिलावट करना है कंकर पत्थर के छोटे छोटे गोल टुकड़ों पर रंग लगाकर दाल जैसा बनाकर मिला देना मिलावट करना है (लेकिन एक इंसान का इंसान से संबंध मिलावट नहीं है)।


सन्तुलित जीवन के लिए शिक्षा!


श्री पार्थ सारथी राजगोपालाचारी जी आगे कहते हैं चिंता का विषय है कि आजकल हमारे किशोरों को क्या पढ़ाया जा रहा है लोग भूल गए हैं प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में शिक्षा का भी एक समय होता है जो 2 वर्ष की उम्र में सीखना चाहिए वह 60 वर्ष की उम्र में नहीं लिखना चाहिए और जो 18 या 20 वर्ष की उम्र में सीखना चाहिए वह 6 वर्ष की उम्र में नहीं पढ़ाया जाना चाहिए अतः समय सही समय, स्थान सही स्थान विषय सही विषय समस्या तो हमेशा से रही है मेरा मानना तो यहां तक है ऐसा समय आना चाहिए जब विद्यार्थी स्वयं समझे उन्हें क्या चाहिए और माफ करें स्कूल उन्हें वह प्रदान करें जिसके उन्हें जरूरत है यहां मेरा अपरा भोजन यूनिफॉर्म या इस तरह की चीजों से नहीं है बल्कि एक अत्यंत आवश्यक मार्क्स है क्योंकि यहीं बैठी है जो हमारे युवाओं के लिए हमारे बच्चों के लिए उनके ज्ञान के उधर के लिए एक नई रहा प्रशस्त करेगी हमारे देश की एक त्रासदी यह भी है कि हम चाहे किसी भी उम्र के क्यों ना हो नहीं जानते कि हम क्या चाहते हैं आज किसी भी आम विद्यार्थी की चाहे वह स्कूल का हो कॉलेज का हो या कहीं भी उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहा हूं एक ही समस्या है यदि आप उनसे पूछें आप क्या चाहते हैं उन सभी का जवाब एक होगा सफलता मैं जीवन में सफल होना चाहता हूं और यदि आप पूछें जीवन में सफलता से आप का मतलब क्या है उन्हें नहीं मालूम सफलता क्या है बेबस अपने किसी दोस्त अंकल या आंटी की तरफ इशारा करेंगे जो बहुत अमीर हैं जिनके पास बहुत पैसा है दो तीन गाड़ियां हैं बढ़िया वातानुकूल शयन कक्ष कीमती कपड़े हैं और बे कहेंगे यही वह सब है जो हम चाहते हैं।....... युवाओं को बताया जाना चाहिए कि हम विकसित हो रहे हैं जीवन के मौलिक रूप अमीबा जैसे एक कोशिका वाले जीव से शुरू होकर पिछले लाखों-करोड़ों वर्षों से हम निरंतर विकसित होते आ रहे हैं बायोलॉजी या जीव विज्ञान की कक्षाओं में आप इनके बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे और मनुष्य होने के नाते हमें आगे भी विकसित होना है विकास के अनेक पहलू है उनमें से एक है जीव रूप में मनुष्य का विकास।.   .....  जब हम बाहरी दुनिया को देखते हैं तो आलोचना की प्रवृत्ति या प्रलोभन में फंस जाते हैं यह अच्छा नहीं है वह सुंदर नहीं है यह बदसूरत है वह लंबा है वह छोटी है इत्यादि अर्थात हर बात का फैसला तुलनात्मक मूल्यांकन से है आंतरिक दुनिया में कोई मूल्यांकन प्रणाली नहीं है क्योंकि यहां जो कुछ बाहर है उससे हम अपने अंतर की खोज की ओर बढ़ते हैं और एक ठीक भी है क्योंकि हर चीज का मूलाधार हमारे अपने हृदय में ही है और हमारी आंतरिक दुनिया बाहर की दुनिया से बहुत अधिक विस्तृत है तो वास्तव में हमारी शिक्षा ऐसी हो नहीं चाहिए कि वह हमें दोनों तरीकों से चीजों को देखना सिखा सके एक है बाहर से देखना जैसे सामने की इमारत कितनी सुंदर है उसकी कार्य कारीगरी में इस्तेमाल किया गया माल उसकी मजबूती उसकी इंजीनियरिंग इत्यादि विभिन्न वनस्पति अथवा जीव आदि को देखकर उन्हें पहचानना उनके महत्व को समझना उनकी कदर करना देखे बिना भी जानकारी रखना जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण कहलाता है।........ पहले आप शिक्षित होते हैं उसके बाद चीजों के प्रकट ना की प्रक्रिया शुरू होती है तब आप चीजों को बिना सीखें उन्हें समझने के काबिल हो जाते हैं ... ..तो केवल बौद्धिक क्षमता ही नहीं बल्कि इस प्रकार की संवेदनशीलता भी स्कूलों में विकसित होनी चाहिए।


इस पुस्तक में काफी कुछ है।आज इतना ही।वास्तव में शिक्षा में क्रांति की आवश्यकता है। आज का शिक्षित शिक्षक हुई समाज के व्यक्तियों वस्तुओं घटनाओं के प्रति वही भावना वही विचार रखता है जो एक आम आदमी रखता है यह अफसोस की बात है सामने वाले व्यक्ति को अशिक्षित व्यक्ति भी इंसान समझने की जरूरत नहीं करते बरन जाति मजहब लोह लालच आदि के आधार पर इंसानों से आचरण में उतार चढ़ाव रखते हैं यह सोच तो रखना बहुत ही दूर की बात --सागर मे कुंभ कुंभ में सागर . ...उदारचरितानाम तू वसुधैबकुटुंबकम...आदि आदि।