सोमवार, 31 अगस्त 2020

पार्थसारथी राजगोपालाचारी जी कहते हैं-"प्रसाद एक सिद्धांत" ::अशोकबिन्दु

प्रसाद एक सिद्धांत है-पार्थसारथी राजगोपालाचारी!


"जो चीज प्रसाद में आ जाती है वही चीज हमें अपने जीवन में लानी है जब वह विशेष चीज हम अपने जीवन में ले आते हैं तो हमारा खुद का अस्तित्व समाप्त हो जाता है वही हमारी जगह ले लेता है । एक तरह से देखा जाए तो हमारी मृत्यु हो जाती है ।मेरा मतलब यहां शारीरिक मृत्यु से नहीं बल्कि वास्तविक मृत्यु से है जिसमें खुद के लिए हमारा अस्तित्व समाप्त हो जाता है"


एक पुस्तक है- " प्यार और मृत्यु", जिसमें पार्थसारथी राजगोपालाचारी के प्रवचन संकलित हैं। इसमें पृष्ठ 124 पर लिखा गया है -.......अगर प्रेम संबंध में पवित्रता की भावना है तो जब तक यह पवित्रता दो व्यक्तियों के मध्य एक स्थापित तथ्य बनी रहती है उस प्रेम संबंध को दूषित नहीं किया जा सकता। उस पवित्र वातावरण में वे युगल वैवाहिक जीवन के समस्त पहलुओं के साथ स्वयं को संयुक्त करते हैं ।यह तो तय है पवित्र भावना के साथ जो भी कर्म किया जाता है वह पवित्र ही होता है। उन कर्मों के फल भी पवित्र ही होते हैं ।अगर प्रसाद खाकर हमारा स्व रूपांतरित हो जाता है तो हमें यह सोचना चाहिए की इसमें ऐसा कौन सा तत्व है ?जबकि प्रसाद में तो केवल कुछ किसमिस ,कुछ मिठाई या कुछ चॉकलेट ही रहता है ।आखिर किशमिश में ऐसी कौन सी बात है जो हमें प्रसाद बना देती है । कुछ न कुछ तो है ही और अगर आपने प्रसाद की महत्ता समझ ली तो यह निश्चित है कि आप उसे भूमि पर नहीं गिराएंगे और न ही इसे पैरों के नीचे लेंगे। अब जो चीज प्रसाद के साथ में आ जाती है वही चीज हमें अपने जीवन में लानी है ।जब वह विशेष हम अपने जीवन में ले आते हैं तो हमारा खुद का अस्तित्व समाप्त हो जाता है वही हमारी जगह ले लेता है । एक तरह से देखा जाए तो हमारी मृत्यु हो जाती है । मेरा मतलब यहां शारीरिक मृत्यु से नहीं बल्कि वास्तविक मृत्यु से है जिसमें खुद के लिए हमारा अस्तित्व समाप्त हो जाता है।

हम (अशोकबिन्दु) इसे पढ़ते पढ़ते चिंतन में खो गए । न जाने कितनी बार हमें वही पुरानी बातें दोहराने होती हैं ।बाबूजी महाराज ने भी कहा है जीवन में हमें बार-बार जो दोहराना चाहिए हम वह नहीं दोहराते हैं । अच्छी बातें जो हमारा रूपांतरण करती हैं ।उनको बार-बार दोहराना चाहिए । कहने के लिए अनेक लोग मिल जाएंगे कि हम धार्मिक हैं ,हम भक्त हैं ,हम ईश्वर को मानते हैं लेकिन उनकी समझ क्या है ?उनका नजरिया क्या है? हमें बार-बार उन बातों को दोहराना ही चाहिए जो हमारे रूपांतरण में सहायक है । इसलिए हम अभ्यासी हैं हम प्रयत्न पन्थ/अभ्यास पन्थ को स्वीकार किए हैं तो मैं कह रहा था कि कुछ बातें हम अनेक बार दोहराते हैं ।आज फिर दोहरा रहा हूं । किसी ने कहा है - आचार्य है मृत्यु। किसी ने कहा है- योग का पहला अंग यम है मृत्यु । कोई कहता है इस धरती पर वह व्यक्ति बेकार है जिसके जीवन में ऐसा कोई लक्ष्य नहीं जिसके लिए वह मर न सके । आखिर यह सब क्या है? यह मृत्यु क्या है? इसको समझने की जरूरत है। कोई कहता है कि मैं महामृत्यु सिखाता हूं । इसका मतलब क्या है ?


गीता में अनेक शब्द ऐसे आए हैं जो जीवन के लिए बड़े उपयोगी हैं । जैसे कि तटस्थता ,शरणागति, समर्पण, योग ,क्षेत्रज्ञ ,अनुराग...... आदि। एक भाष्यकार तो अर्जुन को अनुराग कहकर पुकारते हैं। जहां अनुराग है ,जहां प्रेम है वहां अंधभक्ति है। यह अंधभक्ति क्या है? अंधभक्ति यह है कि हमें जिस से प्रेम है उसमें खो जाना ,उसमें लीन हो जाना । अपनी इच्छाओं का खत्म हो जाना । अहंकारशून्यता आ जाना..... आदि आदि।

बात हो रही थी - "प्रसाद एक सिद्धांत " है। आखिर "प्रसाद का सिद्धान्त" क्या है?
दर्शन को अनेक शब्दों व वाक्यों में उलझा दिया गया है। हम अनेक बार कह चुके हैं की जगत में जो भी कुछ है उसके तीन स्तर हैं स्थूल सूक्ष्म और कारण यह तीन स्तर भी अर्थात प्रत्येक स्तर पर अनेक स्तर हैं और आगे चलकर तो जहां सनातन है जहां निरंतर है वहां तो अनंत प्रवृतियां हैं ऐसे में भी अभी हम सिर्फ स्थूल रूप से ही या फिर स्थूल रूप में भी निम्न स्तर पर टिके हुए हैं बाबूजी महाराज ने कहा है यह हमारी भूल है कि हम समझते हैं जैविक क्रमिक विकास में मानव पराकाष्ठा है लेकिन ऐसा नहीं है।




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