सोमवार, 3 अगस्त 2020

आत्म सम्मान, आत्म प्रतिष्ठा, आत्मबल, प्राण प्रतिष्ठा, प्राणायाम, प्राणाहुति आखिर क्या::अशोकबिन्दु



















जब हम आत्मा की ओर मुड़ जाते है तो स्वत: विश्व बंधुत्व व बसुधैब कुटुम्बकम की ओर मुड़ जाते हैं।

सागर में कुम्भ, कुम्भ में सागर के भाव से जुड़ जाते हैं।



खुद से खुदा की ओर!


आखिर ऐसा क्या है?

हमारे तीन स्तर हैं-स्थूल, सूक्ष्म व कारण।

हम सभी अपनी ही सम्पूर्णता से नही जुड़े हैं।

स्थूल से सूक्ष्म, सूक्ष्म से कारण की ओर जा हम अपने सम्पूर्णता से नहीं जुड़े है,जिससे हम अनन्त यात्रा की शुरुआत करते हैं।

खुद से खुदा की ओर क्या है?

हम भी अपने अंदर आत्मा रखते हैं ,हम अपने अंदर कितना रखते हैं । कोई मजार पर जाता है ,कोई पीपल थान पर जाता है। ठीक है जाता है।हम उसका विरोध नहीं करते। लेकिन हमारे अंदर जो आत्मा बैठी है,उसको वक्त कब?उसकी आवश्यकताओं में कब?

जब हम आत्म केंद्रित होते हैं,तो उस वक्त की अपेक्षा ज्यादा ऊर्जावान होते है जब हम हाड़ मास शरीर, शरीरों, इंद्रिक आवश्यकताओं व संसारिकता में होते हैं।


ये हाड़ मास शरीर?सब कुछ  इसके लिए ही? दूसरे का सम्मान भी.... किसी का शिष्यत्व कैसा?किसी का गुरुत्व कैसा? किसी को महत्व देने का मतलब?जीवन में सिर्फ खान पान, वस्त्र, धन आदि से केंद्रित सब कुछ? सम्मान किसका?आत्मा का सम्मान कहाँ? आत्मा की प्रतिष्ठा कैसी? आत्मा का बल कैसे?



ऐसे में नीच क्या? जन्मजात उच्चता क्या?ब्राह्मणत्व क्या?क्षत्रियत्व क्या? कौन नीच?वहां तक पहुंच किसकी?!जगत व ब्रह्मांड में जो कुछ भी दिख रहा है, मानव जीवन से परे, वह सब प्रकृति है।वहां प्रकृति के सिवा कुछ भी यदि है तो वह है-सर्व व्याप्त स्वत :,निरन्तर,शाश्वत।जो हमें अनन्त यात्रा से जोड़ता है। मानव जीवन मे इस सब के सिवा भी है- कृत्रिम, बनाबटी, पूर्वाग्रह, छाप, अशुद्धियां, जटिलताएं आदि।जो मानव व उसके समाज को विकृत ही  किए हुए है।



मानव व ब्रह्मांड में जो अन्तर्यामी शाश्वत, निरन्तर, स्वत: आदि है वही सनातन है। वही अन्तर्यामी जीवन है।वही राम है।वही खुदा है।वही आत्मा है।वही प्राण है।वही हमारा निजत्व है।वही आत्मीयता है।उसी के आयाम से बंधा है -मनुष्य शरीर,जगत व ब्रह्मांड। जब हम अंतर मुखी होते हैं ,उसकी याद में गुरु की कृपा से  तो हम अपने अंदर की चेतना व समझ को अपने वर्तमान  स्तर से अग्रिम ऊपर के स्तरों पर महसूस करना शुरू करते हैं। सागर में कुम्भ, कुम्भ में सागर - की स्थिति में होना शुरू करते हैं।अपने आसपास अन्य चेतनाओं को भी महसूस करना शुरू करते हैं। यही वेद है जो हम ये महसूस करना शुरू करते हैं।वेद के छह अंग हैं, छठवां अंग ज्योतिष=ज्योति+ईष को महसूस करना शुरू करते हैं।आस पास का  पूर्वआभास शुरू हो जाता है।जब हमारी साधना जारी रहती है तो हम आगे बढ़ते हैं। आध्यत्म में कोई साधन पूर्ण नहीं होती, आगे अनन्त स्तर होते हैं।



बाबू जी महाराज ,साक्षात्कार, पुस्तक सत्य का उदय में कहते हैं-

" एक उचित प्रशिक्षण विधि में उन सभी भौतिक तथ्यों के प्रति साधक को असावधान कर दिया जाता है तथा  गुरु की ध्यान शक्ति द्वारा उन्हें पार करने में सहायता दी जाती है जिससे उसका मन केवल शुद्ध आध्यात्मिक विषय के अतिरिक्त अन्य किसी और आकृष्ट न हो । वह तब अपने ऊपर सौंपे हुए छोटे-मोटे दैवी कार्य करने की स्थिति में हो जाता है  उसका कार्य क्षेत्र उस अवस्था में एक छोटा स्थान होता है जैसे एक कस्बा एक जिला अथवा कोई और बड़ा खंड । उसका कार्य अपने क्षेत्र के अंतर्गत सभी क्रियाशील वस्तुओं की प्रकृति की मांग के अनुरूप उचित व्यवस्था करना है । वह अपने क्षेत्र में वांछित तत्वों का सन्निवेश करता है और अवांछित तत्वों को हटाता है ।
उसे ऋषि कहते हैं और उसका पद वसु होता है ।
उससे ऊंची स्थिति एवं पद ध्रुव का है  ।.... उसकी श्रेणी मुनि की होती है।" इसके आगे भी अनेक पद हैं।


98 प्रतिशत से भी ज्यादा लोग अपने अहसास से,अपने अस्तित्व से ही नहीं जुड़े हैं।आत्मा का ही अहसास नहीं करते है।अपनी चेतना का ही अहसास नहीं Lकरते है।तो आस पास की चेतना का,आत्मा का अहसास क्या करने? परम् आत्मा की ओर होना दूर की बात।सभी शारिरिक व इंद्रिक आवश्यकताओं,इच्छाओं में डूबे रहते हैं। "उसके बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता"-पर बखान देने वाले भी इसे महसूस नहीं करते या इस भाव में अपना आचरण नहीं रख पाते।अपने को खुदा का बन्दा कहने वाले भी छोटी छोटी बात पर खुद निर्णय लेने को तैयार हो जाते हैं। अनेक लोग बहस बाजी करते मिल जाते हैं लेकिन जो अनुभव का विषय है, महसूस होने का विषय है ,वह बहस बाजी से नहीं, ग्रंथों को रटने से प्राप्त नहीं होता।

हमारे अंदर आत्मा है, वही से हम परम् आत्मा की ओर अग्रसर हो सकते है।उसके सहयोग से जो इसमें हमारे वर्तमान सहयोगी है। इसके लिए हमे अब अन्य कर्मकांड, नाम जाप, धर्म स्थलों आदि की आवश्यकता नहीं है। 








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