मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

पूर्णता के साथ ध्यान!!सागर में कुम्भ कुम्भ में सागर:::अशोकबिन्दु भईया

किसी ने कहा है -'समस्या है तो समाधान भी है।समस्या के ही साथ समाधान भी चलता है ।"
सहज मार्ग में साधना के तीन स्तर हैं -प्रार्थना ,ध्यान और सफाई !

साल में दो बार गुप्त नवरात्रि होते हैं- आषाढ़ मास ,माघ मास में दोनों माह अमावस्या के बाद ।
हम कहते रहे हैं -जो हमारे जगत के अंदर गुप्त रूप में है वह के लिए गुप्त में उतरना आवश्यक है ।हमारे अंदर व जगत के अंदर स्वत:, निरंतर ,शाश्वत आदि है ।जो हमें या हमारे चेतना व समझ को अनंत प्रवृत्तियों के का द्वार खोलता है ।स्थूल ,सूक्ष्म व कारण ; इन तीन से हम सदा सम्बद्ध हैं ।जिसे हमें सिर्फ महसूस करना है ,अनुभव में उतारना है ।इसके लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है कि हम नास्तिक हैं या आस्तिक यह हमारा वर्तमान व यथार्थ है ।हमारी चेतना व समझ के अनंत बिन्दु या स्तर हैं ।

समस्या क्या है ?समस्याएं क्या है ?पक्षी जिस डाल पर घोसला में पैदा हुआ उस डाल से हटता ही नहीं ।उड़ने की कोशिश नहीं करता है ।उड़ने की कोशिश भी करता है तो फिर फिर डाल पर आकर ही बैठ जाता है ।
सन 2016 ई0 फरवरी का पहला सप्ताह !मौनी अमावस्या !!
15 दिन के लिए अल्पाहार के साथ हम संकल्प शक्ति के साथ अंतर साधना में उतर आए ।
धर्म अंतर्मुखी है !अध्यात्म अंतर्मुखी है! हर पग हर पल धर्म अध्यात्म जीता है !
लेकिन हम नहीं !वह ही जीवन है जीवन का अस्तित्व ही वह है !

धर्म के चरमोत्कर्ष के बाद अध्यात्म ,अध्यात्म के चरमोत्कर्ष के बाद अनंत यात्रा का साक्षी पन!!
 समस्या क्या है ?
पुराने संस्कार ,आदतें ,पूर्वाग्रह, छाप ,जटिलताएं ,बनावट आदि !
ये सब हटकर कैसे मन निर्मली करण हो ?
सहज मार्ग में मन के निर्मली करने की व्यवस्था है !
हम अभ्यासी कहे जाते हैं सहज मार्ग में साधना में।
साधना कभी पूर्ण नहीं होती। जहां निरंतरता है वहां विकसित क्या ?निरंतर विकासशील है !

अपने को झकझोर कर असहाय दयनीय मानकर ,समर्पण कर दिया ।
"सफाई !सफाई!! सफाई!! हूं ...मालिक ,तू ही जाने! हम सिर्फ कोशिश करते हैं मन को निर्मली करण के लिए ..हमसे यह सब नहीं बनता !तू जाने !हम तो बस बताएं रास्ते पर चलने की कोशिश कर सकते हैं !"
इन 15 दिन हमने महसूस किया कोई अज्ञात शक्ति सारथी बनने को तैयार है।
 श्री मदभागवत गीता में महापुरुष के अनेक गुण दिए गए हैं -तटस्थता, शरणागति ,समर्पण ,निष्काम कर्म ,स्वीकार्य.... आदि आदि !
बाबूजी महाराज ने कहां है कि अपने को जिंदा लाश बना लो !अनंत से पहले प्रलय है!
 किसी ने कहा है- आचार्य है मृत्यु! योग का एक अंग -यम है -मृत्यु!
 इन 15 दिन हमने अपने को असहाय कर लिया !
बस ,मालिक !बस ,आत्मा.... परम आत्मा !अंतर दिव्य शक्तियां हैं... उनका इंतजार !...उनका सिर्फ इंतजार!

 दुनिया की नजर में हम वैसे ही थे जैसे पहले थे लेकिन मन ही मन सब चल रहा था!

 शीतलहर के दिन थे!

11.30pm,21फरबरी2016ई0!
12.01am,22 फरबरी2016ई0!
12.30pm,22फरबरी2016ई!!

11.00pm,20फरबरी 2016ई0 से 12.30pm,22फरबरी2016ई0.......... ये 36 घण्टे हमारे सूक्ष्म प्रबन्धन/जगत के लिए चिरस्मरणीय हैं।



इन तीन चरणों में हम अज्ञात से आती क्रमशः इन 3 ध्वनियों के साथ दिव्यता में थे -अमोघ प्रिय आनंदम !अमोघ प्रिय दर्शनम् !अमोघ प्रिय अनंतम!!!
 इसके साथ इसमें छिपी स्थिति को- दशा को हम साक्षी !

अब हम आज आप सब भाइयों को बहनों को ये प्रकट क्यों कर रहे हैं ?

अभी तक इसे प्रकट करने का विचार नहीं आया था ।
वर्तमान में कोरो ना संक्रमण की वैश्विक महामारी के दौरान लॉकडाउन में सहज मार्ग श्री रामचंद्र मिशन ,हार्टफुलनेस, श्री कमलेश डी पटेल दा जी.... के साधना नियमों निर्देशों के अतिरिक्त 24 घंटे सतत स्मरण में रहने के अभ्यास में रहे हैं ।
जिसे हमने नाम दिया है - 'पूर्णता के साथ ध्यान'।
 हमने देखा है- पूर्णता की कल्पना ,भाव ,विचार ....के साथ बैठने पर नेगेटिव विचार आते ही नहीं !मन निर्मली करण में हम!

 हम आंख बंद कर बैठ जाते हैं!

आंख बंद कर हम सांस प्रक्रिया को ध्यान देते हुए पूरे शरीर का एहसास करते हैं और कल्पना करते हैं -
रोम रोम दिव्यता से भर गया है ।
जिसके प्रभाव में सभी रोग और सभी विकार खत्म हो गए हैं ।
इसके बाद हम अपना ध्यान गले पर ले जाते हैं और मन ही मन कहते हैं -अमोघ प्रिय आनंदम !इसे हम पांच बार कहते हैं और कल्पना करते हैं सागर में कुंभ कुंभ में सागर ।

इसके बाद हम अपना ध्यान माथे पर ले जाते हैं और कहते हैं -अमोघ प्रिय दर्शनम् !ऐसा 5 बार कहते हैं ।
इसके बाद पुनः कल्पना करते हैं -सागर में कुंभ कुंभ में सागर !

इसके बाद हम अपना ध्यान सिर पर शिखा के स्थान पर ले जाते हैं। और कहते हैं- अमोघ प्रिय अनंतम !इसे भी हम पांच बार
कहते हैं और कल्पना करते हैं -सागर में कुंभ कुंभ में सागर !
चारों ओर अंदर और बाहर प्रकाश ही प्रकाश !

प्रकाश की लहरें हमारे अंदर भी और बाहर भी !
हमारा रोम रोम संसार के सभी प्राणी सभी वस्तुएं सभी वनस्पति जीव जंतु सारा ब्रह्मांड प्रकाश ही प्रकाश प्रकाश में ।
हम प्रकाश में डूबे हुए। हम प्रकाश में प्रकाश हमारे अंदर ।
सागर में कुंभ कुंभ में सागर... ऐसे में हमारे सभी रोग सभी विकार खत्म हो चुके हैं ....हमारा हृदय दिव्य प्रकाश से भरा हुआ है... हमारा हृदय दिव्य प्रकाश से भरा हुआ है !

अब हम अपना ध्यान ह्रदय पर ले आते हैं ।

हमारा हृदय दिव्य प्रकाश से भरा हुआ है -इस भाव में आकर हम 20:30 मिनट बैठते हैं ।
इसके बाद पुनः - हमारा रोम रोम दिव्य प्रकाश से भरा हुआ है .।अंदर-बाहर सब जगह प्रकाश ही प्रकाश !
सागर में कुंभ कुंभ में सागर.।।। इसी भाव में हम 24 घंटा रहने की कोशिश करते हैं ।हमारे अंदर ,सब के अंदर ,पूरे ब्रह्मांड में प्रकाश ही प्रकाश। हम सब एक हैं। जगत में जो भी स्त्री पुरुष हैं ,हमारा परिवार है.... हमारा मकान है.... हमारा पास पड़ोस है ....हमारा शहर ...हमारा गांव.... पूरी पृथ्वी ...पूरा ब्रह्मांड..... हम सब प्रकाश में लबालब हैं ....सागर में कुंभ कुंभ में सागर....!!!


इस तरह रहने से हमको अनेक विविध विचारों नेगेटिव एनर्जी का ख्याल नहीं आता! सुबह शाम रात्रि में हम सहज मार्ग के साधना पद्धति को समय देते हैं !
शेष समय हम इसी ख्याल में रहते हैं !इसी ध्यान में रहते हैं ...सागर में कुंभ कुंभ में सागर !पूर्णता के साथ ध्यान !
आखिर पूर्णता है क्या? ऑल !ए डबल एल .।।ऑल .।अल .।संपूर्णता ...!!अल्लाह शब्द भी इसी से बना है !
भाषा विज्ञान में अल्लाह शब्द अल : ही रूप है!!





सोमवार, 27 अप्रैल 2020

30 अप्रैल 1899ई0::बाबूजी महाराज को सत सत नमन::अशोकबिन्दु भईया

30 अप्रैल 1899 ई0 को अवतरित श्री रामचन्द्र जी महाराज शाहजहांपुरी को अंतरनमन!!
""""''''''''''""""""""""अशोकबिन्दु भईया



कटरा, शाहजहाँपुर,उप्र!शाहजहाँपुर का सौभाग्य है कि यहां पर 30 अप्रैल 1899ई को श्रीरामचन्द्र जी महाराज का पुनीत अवतरण हुआ।जिन्हें प्यार से सभी बाबूजी महाराज कहा करते थे।उन्हें बचपन से ही आध्यत्म व रहस्यवाद में रुझान था।उन्होंने सन1945ई0 को शाहजहाँपुर की धरती पर हजरत क़िब्ला मौलबी फ़ज़्ल अहमद खान साहब रायपुरी के शिष्य श्रीरामचन्द्र जी महाराज फतेहगढ़ वालों की याद में श्रीरामचन्द्र मिशन, शाहजहाँपुर की स्थापना की।जिसकी विश्व भर के 150देशों से भी ज्यादा देशों में शाखाएं हैं ही और अनेक नाम से अन्य संस्थाएं संचालित है।जहां योग ,सूक्ष्म जगत, चेतना व समझ के विभिन्न बिंदुओं व विस्तार आदि पर शोध, प्रयोग आदि चल रहे हैं।#हार्टफुलनेस #माइंडफुलनेस #ब्राइटमाइंड #योगा के विभिन्न अंगों आदि पर कार्य हो रहे हैं। हैदराबाद, तेलंगना में वैश्विक स्तरीय कान्हा शांति वनम एक गांव/आश्रम के रूप में स्थापित हो चुका है, जहां विभिन्न जीवन विषयों ,पर्यवरण, आयुर्वेद आदि पर कार्य चल रहे हैं।अन्य भी भावी वैश्विक प्रॉजेक्ट पर कार्य होना शुरू है। हमें खुशी है ,हम ऐसे दिव्य आत्मा के अवतरण जनपद शाहजहांपुर के निवासी हैं।सम्भवतः पिछले जन्म में भी हम उनसे सम्बद्ध थे। पहली सिटिंग से पूर्व ही हम लाला जी को स्वप्न में महसूस कर चुके थे।
उनके पैतृक आवास पर हमें सदा अपनापन ही लगा है और दिव्य प्रकाश को महसूस किया है। चारी जी कहते हैं-"वह आये,उन्होंने देखा और उन मनुष्यों के आकुल हृदयों को जीत लिया जिन्हें उनमें, उनकी क्षीण काया मे , सर्वशक्तिमान को साकार देखने की क्षमता और सौभाग्य का वरदान मिला था।उनका महान और पूर्ण व्यक्तित्व,उनकी विनम्रता और सादगी, उनकी अलौकिक दिव्यता और उनका सर्वग्राही विश्वव्यापी प्रेम उनसे विकरित होकर मानवता को अपनी मूल आध्यात्मिक दशा में वापस ले जाने का आश्वासन देने के लिए दिग्दिगन्त में फैल गए  थे। उन्होंने 'सत्य का उदय'में  उद्भाषित किया; उन्होंने'सहज मार्ग के परिप्रेक्ष्य में राजयोग की प्रभावोत्पादकता' सिखाई; मानवता को आत्म रूपांतरण का सादा और सरल मार्ग दिखाने के लिए उन्होंने 'सहज मार्ग के दस नियम' अपने जीवन में अनुपालन करके दिखाए। वे 'ऋतवाणी' बोले और अपनी करुणामयी कृपा से तथा सब के लिए अपने असीम दिव्य प्रेम से उन्होंने हमारे गलत मार्ग पर चलने वाले कदमों को 'अनन्त की ओर'जाने वाले महिमामण्डित मार्ग पर वापस मोड़ने का मार्गदर्शन किया।(सत्य का उदय,प्रस्तावना, चारी जी).."


पिछले जन्मों के संस्कार होंगे जो कि स्तर दर स्तर चलकर अब  हम यहां तक आये।आ तो गए लेकिन अभी हमें स्वयं में काफी सुधार/सफाई, नियमितीकरण आदि, निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता है।इस हाड़ मास शरीर, प्रकृति, जगत में तो हर कदम पर हर पल पर प्रतिकूलताएँ है, जिसे बाबू जी ने जंगल से ही तुलना की है।हमें सहज मार्ग की साधना में डटे ही नहीं रहना है, उसे अपने में आदत या सतत स्मरण बना लेना है।हां, एक बात और सुनी हुई याद आ गई।बाबू जी के पास कोई आकर बहसबाजी करता था तो वे कह देते थे कि हम बहस करने नहीं जानते।हां, आप हमारे साथ आंख बंद कर बैठ सकते हो। इससे हमें सीख मिलती है कि हमें भी बहस बाजी में नहीं पड़ना है। जिंदगी में ऐसे लोग हमें भी मिलते रहते है जिन्हें हमारी बातों को आचरण में तो नहीं उतारना, दिल में नहीं लाना लेकिन बहस बाजी करते है।दिमागी उधेड़ बुन में रहते हैं ।लेकिन आध्यत्म तो बहसबाजी का विषय नहीं, महसूस करने का विषय है।आत्मा के अध्ययन का विषय है।जिसका माध्यम सिर्फ मेडिटेशन है।बहस बाजी नहीं।
इन दिनों विश्व में मानव वतावरण, मानव प्रबन्धन आदिआदि अनेक विकारों,अशुद्धियों,जटिलताओं, छापों आदि से ग्रस्त है।कुछ तो वर्तमान में कोरो-ना संक्रमण की वैश्विक समस्या के बीच भी मानवीय, अध्यत्मिक, सुप्रबन्धनिक ,संवैधानिक, विश्व बन्धुत्विक आदि प्रेरणा नहीं लेना चाहते हैं।जातीय, मजहबी,कु राजनीति आदि में ही लिप्त है। किसी ने कहा भी है-पानी बढ़ता जाता है, कमल की नार बढ़ती जाती है लेकिन पानी जब सूख जाता है तो नार तो बड़ी की बड़ी ही रहती है।

हमारे लिए जीवन ही पर्व है, जीवन ही उत्सब है।लेकिन कब?तब ही जब हम सिर्फ वर्तमान में जिएं।यथार्थ को स्वीकार कर अपने कर्तव्यों में लीन रहे।अधिकार, कोई अधिकार नहीं।बाबू जी से कोई शिक्षित के  सम्बंध में पूछता था, तो वह कहते थे- शिक्षित के सिर्फ कर्तव्य ही कर्तव्य होते हैं।


आज बाबू जी के जन्म दिन के अवसर पर हम कहना चाहेंगे कि क्या अच्छा है क्या बुरा, क्या अनुकूल है क्या प्रतिकूल, कौन शत्रु है कौन मित्र...... आदि पर ध्यान न देकर हम सिर्फ अपने कर्तव्य निभाते चलें।जो भी हो,वह मालिक का प्रसाद ग्रहण कर स्वीकारते चलें।जीवन है जीने का नाम, जीते रहो सुबह शाम। कोशिशे जारी है कोशिशे जारी रहेगी।निरन्तरता के पथ पर,शाश्वतता के पथ पर है कभी विश्राम नहीं।अनन्तता का कोई छोर नहीं...


बाबू जी महाराज  को  सत सत नमन!!

खामोशी में छिपा अनन्त सम्भव::अशोकबिन्दु भईया

गीता के विराट रूप, संसार की पीपल वृक्ष से तुलना, कुंडलिनी जागरण व सात शरीर पुस्तक, अनन्त यात्रा की ओर पुस्तक,सहज मार्ग के प्रकाश में राजयोग का दिव्य दर्शन-पुस्तक के चिन्तन मनन व कल्पना ने हमारा सोंच व नजरिया ही बदल दिया।दुनिया व उसकी घटनाओं को देखने का नजरिया ही बदल दिया।
भय बनाम अभय
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भय भी खतरनाक है।अभय भी खतरनाक है।
अंगुलिमानों की गलियों में न भय काम करता है न अभय। तुम्हारे ठेकेदार, महंत, नेता, प्रिय, लाटसाहब, जातिबल, धन बल, बाहु बल आदि कुछ भी नहीं कर पाते।अंगुलिमान जो करता है ,एक प्रकार से जुझान में करता है,लीनता में करता है।वह न भय में है न अभय में।
यदि करता भी है तो 100 प्रतिशत की ओर... हम आप 100 प्रतिशत किधर हैं। हम सिर्फ कह सकते है, कि ये अच्छा है ये बुरा है। जीता कौन है?हम अपने जो कहते है, उसके साथ साहस के साथ नहीं खड़े होते।साहस के साथ या तो राम होता है या रावण, अंगुलिमान होता है या बुद्ध, कृष्ण होता है या कंस। वर्तमान में नेता हैं, राजनैतिक दल है, सरकारें हैं..... किसके साथ खड़ी हैं?वार्ड/गांव के माफिया, दबंग, जातिबल,मजहब बल, दारूबाज,जुआं बाज, गाली बाज ,नौकरशाही आदि किसके साथ है?बुद्ध के साथ नहीं,बुद्धत्व के साथ नहीं।वार्ड/गाँव के दबंग/ठकुराई/पंडताई आदि किसके साथ खड़े पाए जाते हैं?बुद्धत्व, वेदत्व, कबीरत्व,सनातनत्व,गुरुत्व, ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व,शिष्यत्व आदि में कितने पाए जाते हैं? जीवन जीने की एक जो लत होती है वह लत किधर है?वह लत न भय को जानती है न अभय को,न नुकसान को न लाभ को,न अच्छा को न बुरा को---आदि आदि। एक सन्त थे, वे उस पहाड़ी से भी कूद जाते थे, जहां जाना माना था, जिसे मौत की पहाड़ी कहा जाता था।लोग कहते थे, आप तो बड़े साहसी हैं।तब वे कहते-हम तो जानते ही नहीं कि क्या साहस है क्या साहसहीनता। हम ने बच्चों के साथ बड़े अत्याचार किए है।अभिवावक,अध्यापकों,धर्म के ठेकेदारों ने मानव जीवन में गड़बड़ पैदा कर दिया है। ऊपर से कहते हैं-भय बिन होय न प्रीति।भय व प्रलोभन पर अनेक व्यापार खड़े कर दिए गए है। वर्तमान कोरोना संक्रमण के दौरान भी सब लॉक डाउन है लेकिन मजहबी ,जातीय, राजनीति की जहरीली पुड़ियों का व्यापार जारी है।जिसकी जड़ में भय व प्रलोभन ही है।

हम तो कठपुतली हैं??
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कठपुतली कौन है?हर कोई तो तूफान लिए खड़ा है।रावण को दोष देते है कि वह में सिर्फ यही दोष था कि वह अहंकारी था।हम अहंकारी नहीं है?हम अहंकारी के साथ साथ और भी बहुत हैं।
छह महीने पहले उसको  उस मशीन ने बता दिया था कि आप के बाएं हाथ में ऊर्जा खत्म हो रही है, प्रकाश दिखाई ही नहीं देता। अब वह एक एक्सीडेंट में उस हाथ को क्षतिग्रस्त पाता है। चिकित्सक को उस हाथ को काटना होता है। 'आध्यत्म जगत के व्यवहार में लक्षण व प्रयोग'- को जो वक्त देते है, उनको आप कैसे ढूंढेगे?उनको सुनना व फॉलो करना तो मुश्किल काम।उनको ढूंढ भी लिया तो भी खतरा है।यदि आप दुनिया की नजर में अपना चरित्र खड़ा करना चाहते हैं।अपने हाड़ मास शरीर की नजर में सिर्फ अपना चरित्र खड़ा करना चाहते है।एक कहता है-आचार्य है मृत्यु।योग का पहला अंग-यम है -मृत्यु। किसी ने कहा कि मैं मृत्यु सिखाता हूँ, आप समझ नहीं पाए।आत्मा की धारणाएं दूसरी है, हाड़ मास शरीर की धारणाए दूसरी है। लेकिन तब भी दोनों, दोनों नहीं तीनों -स्थूल, सूक्ष्म व कारण का जोड़ ही योग है।
गीता में श्रीकृष्ण एक ओर कहते है-तू जैसा कर्म करेगा वैसा फल पाए गा।दूसरी तरफ ये भी कहते हैं कर्म तो मैं कराता हूँ, तू बस खड़ा रह।

सँघर्ष बनाम शत्रुता!!
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मनोवैज्ञानिक कहते है-मन ही हमारा शत्रु है।मन ही हमारा मित्र। जगत में न कोई मित्र है न कोई शत्रु।सन्त(स+अंत) या सम दर्शी कहते हैं-न काहू से बैर न काहू से बैर।सन्त के लिए हर हाड़ मास शरीर मन्दिर है।उपासना का माध्यम है।वह इसलिए है क्योंकि उसमें आत्मा है।उसमें  अनेक दिव्य सम्भावनाएं छिपी है। संग+हर्ष तो हमारा है-अंधेरे से प्रकाश की ओर जाने का।हमारा भविष्य है-प्रकाश।शरीर से मन की ओर, मन से आत्मा की ओर।आत्मा से परम् आत्मा की ओर।अनन्त प्रवृत्तियों की ओर...हमारा कर्म क्या है?ग्रंथो का हेतु क्या है?आत्म प्रबन्धन व जगत प्रबन्धन ।जब ये दो हमारे कर्म हो जाते है तो एक दशा के बाद हम सिर्फ निमित्त रह जाते है।कर्ता कोई और....जो आत्मा, परम् आत्मा, अनन्त प्रवृतियों से निर्देशित होता है।
श्रद्धा बनाम कायरता!!
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कायरता दो तरह की होती है-एक समाज की नजर में दूसरी परम् आत्मा की नजर में। दबंगता भी दो तरह की होती है-एक समाज की नजर में एक परम आत्मा की नजर में। किसी ने कहा है -श्रद्धा भी खतरनाक है। एक जातिवाद, मजहब वाद, भीड़ हिंसा, लोभ लालच ,प्रलोभन, भय के साथ होती है दूसरी मानवता, अध्यत्म,विश्व बंधुत्व, सन्त परम्परा आदि के साथ । हमारे जीवन में एक व्यक्ति आया, दो साल लगभग हम उसके साथ रहे।हमने सब कुछ बर्दाश्त किया।हमें पता था, उसकी चेतना व समझ का क्या स्तर है?वह हमको सुनने के लिए भी तैयार नहीं है।सुनता भी है तो मजाक ही बनता है।उसके षड्यंत्रों का भी शिकार होना पड़ा। हमने भौतिक नुकसान भी उठाया।हमें उसके साथ काम करना छोड़ना पड़ा लेकिन वह हमारे बाद वह भी वहां न रुक सका।वह जहां गया, वहां भी वह बाज न आया।कुत्ते की पूंछ सीधी नहीं होती।काटी जा सकती है। सात माह में ही उसका सब स्वाहा हो गया।ग्रन्थ कहते हैं.. पानी बढ़ने के साथ साथ कमल की।नार बढ़ती जाती है लेकिन पानी कम हो जाता है लेकिन नार नहीं। शायद आप नहीं समझे गे श्रद्धा क्या है?खामोशी क्या है? बाबू जी महाराज ने कहा है कि जिससे तुम परेशान हो रहे हो, उससे ऊपर वाले के हो जाओ।सब कुछ वही संभालेगा। बाबू जी कहते है-जब हम साधना में गहरे होते गए, सूक्ष्म से जुड़ने  शुरू हो गए तो लाला जी महाराज ने कहा-अपना आचरण भी उम्दा बनाओ।लोग तुम्हारी माजक बनाते है।तुम्हारे विरोध में रहते है।जिन सूक्ष्म शक्तियों को तुम्हारी मदद में काम करना चाहिए उन्हें तुम्हारे चारो ओर की कुशक्तियों से भी जूझना पड़ता है।








सोमवार, 20 अप्रैल 2020

जो प्राकृतिक, निरन्तर, शाश्वत आदि है वह उसी से ही समाधान पाएगा न की तुम्हारे सांसारिक पैमानों से::बाबू जी महाराज

मुकं करोति वाचलम पंगुम लंघ्यते गिरिम।
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवं।।
ये है ही वेद एक स्थान पर आया है कि परमात्मा कल मरने वाले व्यक्ति को भी100साल तक का जीवन दे सकता है।
लेकिन आज कल ऐसा सम्भव क्यों नहीं है?आज कल अनेक धर्म स्थल हैं, पुरोहित, मौलबी हैं, हर घर में कोई न कोई धार्मिक नजर आता है लेकिन तब भी ये सम्भव नहीं है।आज कल पूरा विश्व कोरो-ना संक्रमण से ग्रस्त है लेकिन ऐसी धार्मिकता कहाँ है?जो लोगों को संक्रमण व रोगों से मुक्त करे।
दरअसल जीवन प्राकृतिक है, शाश्वत है।उसे बनाबटों, पूर्वाग्रहों, अशुद्धियों, संस्कारों, छापों ,जातिवाद, मजहब वाद, सांसारिक पैमानों आदि से नहीं जीता जा सकता।इस सब की एक हद है।जो सहज, नैसर्गिक, प्राकृतिक, शाश्वत, निरन्तर है उसे सहज, नैसर्गिक, प्राकृतिक, शाश्वत, निरन्तर से जुड़ने से ही सम्भव है। ये होने की सम्भावनाएं हमारे अंदर छिपी हुई हैं।जो सन्त परम्परा से ही सम्भव है।जो काम देवीदेवता न कर पाएं वे कार्य सन्त कर जाएं।आत्मा से जुडो।उसे परम् आत्मा की ओर होने दो।आत्मा से अनन्त का द्वार खुलता है।अनन्त अर्थात जिसका कोई छोर नहीं... और आप जुड़े किससे है?महसूस किसे करते है?सांसारिक पैमानों को जिसकी कहीं।न कहीं पर हद खत्म हो जाती है।जो जिस स्तर का है वह उस स्तर पर जाकर ही समाधान पाएगा।अपने व जगत मूल से जुडो।जुडो किससे हो?








शनिवार, 18 अप्रैल 2020

19 अप्रैल 1983ई0::शाहजहाँपुर से फैली एक आध्यत्मिक सुगन्ध अब पूरी दुनिया में फैल चुकी है।शत शत नमन बाबू जी महाराज!!

19 अप्रैल 1983ई0::बाबू जी महाराज पुण्य दिवस!!शत शत नमन!!!उनकी याद में ...
""""""""""""""""""""""""""""""""""""अशोकबिन्दु भइया






जीवन के पथ पर अनेक हजारों आते है और हजारों चले जाते हैं।लेकिन जीवन पथ पर निशान कुछ ही छोड़ जाते हैं।भारत भूमि सन्तों की भूमि है।


उत्तर प्रदेश (भारत) के शाहजहाँपुर की धरती भी अनेक महापुरुष देती रही है।सुना जाता है पांचाल राज्य में शाहजहाँपुर का नाम अंगदीय था जो शाहजहाँ पुर - पुवायां मार्ग पर गोमती नदी के किनारे बKIसा था। वर्तमान में ये नगर अनेक स्थितियों के लिए जगत विख्यात है।यहां से स्थापित श्रीरामचन्द्र मिशन की शाखाएं आज की तारीख में विश्व के लगभग 150 देशों में पहुंच चुकी हैं। इस मिशन की स्थापना हजरत क़िब्ला मौलबी फ़ज़्ल अहमद खान साहब रायपुरी के शिष्य श्रीरामचन्द्र जी महाराज फतेहगढ़ उर्फ लाला जी महाराज के याद में शाहजहांपुर के बाबू जी महाराज ने सन1945 में की थी।


बाबू जी महाराज/रामचन्द्र महाराज शाहजहाँपुर वाले  के पिता राय बहादुर श्री बद्री प्रसाद शाहजहाँपुर में 1000 गांवों के जमींदार थे। वे नगर के प्रतिष्ठित वक़ील व स्पेशल आनरेरी मजिस्ट्रेट भी थे। बाबू जी बचपन से ही आध्यत्म में हो गए थे। वे ग्रहस्थ सन्त थे।उनकी धर्म पत्नी भगवती देवी सक्सेना का देहांत सितम्बर 1949 में हो गया था1।उनके सभी बच्चे बहुत छोटी उम्र के थे। जिनकी परवरिश बाबू जी की माता श्रीमती जशोदा देवी ने की। विभिन्न समस्याओं के बाबजूद उन्होंने मिशन की स्थापना 21 जुलाई 1945 को की।सन1977 तक वे अभ्यासियों के रहने खाने पीने की व्यवस्था घर पर ही करते थे।हालांकि 1974ई0 में  हरदोई मोड़ पर जमीन खरीद कर सन1976ई में स्वयं आश्रम का उदघाटन किया था। लोगों की संख्या इतनी बढ़ गई थी कि तब स्कूलों व धर्मशालाओं में उत्सब में ध्यान में बैठने के लिए कहते थे। उन दिनों हमारे(अशोक कुमार वर्मा के) पिता जी श्री प्रेमराज वर्मा 1967-68 में बीए व 1969 में बी एड के क्लासेज,एस एस कालेज, अजीजगंज के दौरान बाबू जी की गतिविधियों व उनके नजदीक आये थे। उन दिनों बाबूजी के पुत्र श्री सर्वेश गांधी फैजान कालेज में biology के छात्र थे। सर्वेश जी कहते हैं-

"बाबू जी महाराज हम लोगों को समय समय पर आकर देखते रहते थे।हम पढ़ रहे है कि नहीं। घर में काफी लोग रहते थे।अंदर दद्दा जी का परिवार बाबूजी से झगड़ा किया करते थे।मालिन बाबू जी की सेवा में लगी रहती थी।बाबू जी महाराज बड़े संकोची थे। वर्ष 1969-70ई0 में मई के महीने में मेरे भाई उमेश की शादी हो गयी थी।जो मद्रास में टी. टी. के. में कार्य करते थे।थोड़े समय तक वह श्री पार्थसारथी राजगोपालाचारी के यहां रहते थे।.....बाबू जी के साथ उस समय रात में जगदीश लाल सोते थे।वह भी बाबू जी के साथ हनुमान जी की तरह लगे रहते थे।इसलिए बाबू जी महाराज उनको हनुमान कहते थे।.....बात 19फरबरी1969 की रही होगी।बाबू जी के पास एक पत्र भाई राघवेंद्र राव जी का गुलबर्ग से आया।बाबू जी को उन्होंने लिखा कि लोग मुझसे living guru का मतलब पूछ रहे थे।भाई ने जवाब दिया कि बाबू जी महाराज मेरे लिए सब कुछ  है।फिर उन्होंने बाबूजी को पत्र लिखकर बात confirm की बाबूजी ने अपने पत्र में उनके परिवार की कुशल क्षेम पूछी फिर living guru का मतलब बताया कि मैं जिंदा आया हूँ जिंदा ही जाऊंगा।मरने का सवाल ही नहीं उठता।"



बाबू जी कहते थे-मन को सराय मत बनाओ।शरीर तो मन का राजा है।मन का राजा आत्मा है।मन में आत्मा का प्रकाश चमकने दो।मन को संसार की धूल से गन्दा मत करो।बाबू जी के समय के जब अभ्यासी हमे मिलते है तो बड़ी खुशी होती है।तब और जब वे बाबू जी से जुड़ी यादें शेयर करते हैं।हम तो उन दिनों अप्रैल 1983 को कक्षा पांच की वार्षिक परीक्षा की तैयारी में थे।कुछ कुछ याद है, हमारे आस पास अमर उजाला अखबार आया करता था। पिता जी उनकी चर्चा करते रहे थे।

इन दिनों जब विश्व कोरोना संक्रमण से ग्रस्त है तो अनेक शंकाओं, तृतीय विश्व युद्ध, जैविक युध्द, उत्तर से चले विकार, धूमकेतु, सूरज के चुम्बकीय बादल, इंसान की साम्प्रदायिकता, जातिवाद, सत्तावाद, पूंजीवाद,भीड़ हिंसा आदि के साथ सत्य के उदय पुस्तक के आखिरी चेप्टर 'मेरी दृष्टि' पर कल्पनाएं मन में साकार होने लगती।बाबू जी का कहना था-आगामी विश्व का ढांचा राख एवं कंकालों पर निर्मित होगा।भारत वर्ष में अध्यत्मवाद पर आधारित एक सभ्यता का प्रादुर्भाव होगा जो कालांतर में विश्व सभ्यता के रूप में विकसित होगी।


आज हम बाबू जी से यही प्रेरणा पाते हैं कि जो है सो है।हम सतत स्मरण में जाने को  प्रयत्नशील रहें।मन को सराय न बनाए।
शत शत नमन!! बाबू जी महाराज!!@

गुरुवार, 16 अप्रैल 2020

आसमान के लिए कुछ करना है तो अपने अपने घर के झरोखों से आसमान को ताकते ये कहना छोड़ो की मेरा आसमान तो ऐसा है औऱ तेरा तो औऱ ऐसा।अपने घर व झरोखों की मर्यादाओं को त्यागना ही कुर्बानी है:::अशोकबिन्दु भइया

05.30pm!गुरुवार!!
चंडिका नवमी, वैशाख नवमीं!
16अप्रैल 2020ई0!!
"सूरज से सिर्फ एक ही किरण पृथ्वी की ओर चले तो क्या धूप होगी?सागर से उठी सिर्फ एक लहर क्या करेगी?ऐसा सम्भव नहीं है। इसलिए 'मैं','मेरा','मेरे','तू','तेरा','तेरे' को त्यागो।आओ चल पड़ें-'हम सब' की ओर।........आदि व अनुशासन, सुप्रबन्धन, आजाद हिंद सरकार की व्यवस्था कर साथ।कुदरत व दुनिया को हम सब से ही,भारतीयों से ही उम्मीदें हैं।

#विश्वहिंदीआध्यत्मसाझाप्रचारक

https://m.facebook.com/groups/238222303793969?view=permalink&id=539487867000743

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कुदरत व दुनिया के दिल पर कौन राज करता है?कुदरत व दुनिया का दिल पता है?हमारा सुप्रीम साइंस कहता है-जो भी है उसकी साधरणतया तीन अवस्थाएं हैं-स्थूल, सूक्ष्म व कारण।आप तो शायद उसे मूर्ख कहने लगोगेजो चौराहे पर चीख चीख आनंद में कहने लगे कि हमें तो अब ईंट में भी रोशनी दिखती है।सभी में रोशनी दिखती है।आप उसे मूर्ख कहोगे वह आपको कि दुनिया को आप देख ही नहीं पा रहे हो। आपकी आस्तिकता भी तब खतरनाक ही है असल के लिए!यथार्थ के लिए!आप बौखला पड़ते हो, जब कोई आपके देवी देवता, पैगम्बरों, अवतारों, भगवानों पर अंगुली उठता है।वास्तव में वह आप पर अंगुली उठता है।उसकी यात्रा तो सूक्ष्म व कारण की ओर हो सकती है लेकिन जरूरी नहीं कि आपकी हो?आपकी यात्रा जरूरी नहीं अभी स्थूल में ही ईमानदारी से हो?हाड़ मास,दिल, दिमाग, हाथ पैर आदि न हिन्दू है न मुस्लिम......न ब्राह्मण न शूद्र.... न हिंदुस्तानी न पाकिस्तानी!!अभी आप स्थूल में ही ईमान नहीं लाए हो। कुदरत का दिल कहाँ पर है?दुनिया का दिल कहाँ पर है?कोरोना संक्रमण ने दुनिया मे सभी इंसानों को,उनकी कृत्रिम व्यवस्था को झकझोर दिया है। लेकिन दुनिया के दिल तक ,कुदरत के दिल तक कौन पहुंचा है। #हृदयकाअभियान कौन समझा है?



 जगदीश चन्द्र बसु का नाम तो सुना ही होगा।
वे कहते हैं-पेड़ पौधों में भी सम्वेदना है।जहां जहां चेतना है, वहां वहां एक स्थिति होती है।जब चेतना है,तो उसके अस्तित्व का अहसास भी होना चाहिए।महसूस होना चाहिए। हममें, जगत की वस्तुओं।मेँ कुछ तो कामन है।जो हम सब को, जगत को आपस में जोड़ता है।उस जोड़ का अहसास किसे है?फिजिक्स भी वहां तक पहुंचने की कोशिस कर रही है।गुरुत्वाकर्षण तक पहुंच गयी है।ऊर्जा तक पहुंच गयी है।तरंगों, स्पंदन,कम्पन तक पहुंच गई है। सुप्रीम साइंस आध्यत्म अनाहत चक्र पर जाता है।हृदय चक्र पर जाता है।जो अदृश्य सर्वव्याप्त है- उसका अदृश्य हृदय जगत भी है।इस पर अनेक शोध भी आये हैं।जगत का सूक्ष्म रूप  प्रकाश,स्पंदन, कम्पन, तरंग की ओर संकेत करता है।वहीं से जुड़ाव को संकेत दिल करता है। ब्रह्मांड की उतपत्ति पर विज्ञान भी अब अनन्त तरंगों, कम्पन, स्पंदन की ओर संकेत करता है। जिसमें जगत की लीनता को ही कुछ लोगों ने भक्ति/प्रेम कहा है।यहां तक कि आध्यत्म को ही प्रेम कहा है।पेड़ पौधों में स्थूल दिल नहीं होता लेकिन सम्वेदना होती है।


 पार्थसारथी राजगोपालाचारी जी की एक पुस्तक-'हृदय का अभियान' में कहा गया है--सहज मार्ग में प्रेम अनन्त यात्रा में जगत, ब्रह्मांड व जीव जंतुओं की लीनता है।उसमें हमारा साक्षी होना ही प्रेम है।सागर में कुम्भ कुम्भ में सागर.... जैसी स्थिति । विज्ञान इस ओर अभी सिर्फ गुरुत्वाकर्षण तक ही पहुंच पाया है।अभी इस स्थिति से दूर है।जिसमें सारा जगत, ब्रह्मांड, हम आप रमे हुए हैं।


विश्व हिंदी साझा आध्यत्म प्रचारक!!इस सम्बंध में हमारी क्या कल्पना है? हमें अफसोस होता है कि जब अध्यात्म, मानवता,ईश्वर, विश्व बंधुत्व आदि एक है तो आध्यत्म की संस्थाएं अनेक क्यों?हमारा धर्म एक ही है तो फिर अनेक धर्म क्यों?वास्तव में हम असल के प्रति ईमान नहीं रखते।जो हम ने स्वयं खड़ा किया है, उस पर फूलते है।लेकिन कब तक खड़ा रहेगा?जिसे कुदरत ही सिर्फ धराशयी कर दे, तुम्हारा वह सिर्फ भ्रम है। अनेक संस्थाएं खड़ी कर दी धर्म की आध्यत्म की।हमारा, तुम्हारा, मेरा तेरा......!!?जो एक ही है,उसके किए अनेक क्यों?इसका मतलब है कि एक पर अभी पहुंच नहीं।एक पर अभी पहुंच नहीं। लेकिन भविष्य ऐसे में किसके साथ?जो सब को अपने में सिमटे है, उसको लेकर जो चलेगा वही का भविष्य है। नहीं तो भूतगामी।

प्राणियो ने जो बनाया है उसके  अलावा जो  भी बना है वह क्या सब गलत है?या कुछ गलत या कुछ ठीक है?अगर आप ईश्वर को मानते हो तो ये आपका भ्रम है कि उसने जो भी बनाया है, उसमें गलत भी है और ठीक भी।तो फिर आपका ईश्वर ऐसा क्यों है?दरअसल वह ठीक है।उसने जो भी बनाया है गलत या ठीक नहीं बनाया है।गलत ठीक की सोच तो हमारी है।काफिर गैर काफिर की सोच हमारी है। 

बुधवार, 15 अप्रैल 2020

'विश्व सरकार ग्रन्थ साहिब'-की आवश्यकता महसूस कर रहे हैं::अशोकबिन्दु भइया

हमारा मिशन व हम: अब एक अभ्यासी/सिक्ख(शिष्य) के रूप में!!
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हमारे अंदर व दुनिया के अंदर कुछ है।
जो निकल जाता है तो हम लाश हो जाएं व दुनिया में जीवन खत्म हो जाए।
जो जिसके दिल में उतरता है वे ऋषि मुनि कहलाते हैं और उसका ज्ञान - वेद।
इसके बाद योग व योगी, आचरण व आचार्य महत्वपूर्ण हैं।




सन्त परम्परा में ही जीवन का अनुभव है।
हम गुरु नानक को नहीं भुला सकते।जिनके दो शिष्य थे-एक हिन्दू व दूसरा मुसलमान।उनकी धमक काबा तक थी।
हम 'गुरु ग्रंथ साहिब'-का सम्मान करते हैं।उससे प्रेरणा के फलस्वरूप अब हम 'विश्व सरकार ग्रन्थ साहिब'-की आवश्यकता महसूस कर रहे हैं।जो विश्व बंधुत्व,इंसानियत का आगाज है।जिसमें दुनिया के सभी देशों के सन्तों की वाणियां शामिल  हैं।कुछ संस्थाएं अब दुनिया के सभी सन्तों की वाणियों को लेकर चलने भी लगी हैं।
  ईसा पूर्व पांचवी-छठी शताब्दी में वैश्विक आध्यत्मिक क्रांति को सम्मान देने की आवश्यकता है।जिसके लेखन की शुरुआत सन्त अरस्तू व उसके शिष्य सिकन्दर से शुरू होकर फतेहगढ़ से श्री रामचंद्र महाराज के बाद भी जारी रहना चाहिए।

जो निरन्तर,शाश्वत है उसकी याद में मनुष्यता विकसित करना अति आवश्यक है।

दिनांक                                          आपका
24 दिसम्बर 2014             अशोक कु. वर्मा 'बिंदु'

गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

मजहबी,बिरादरियों,उन्माद, हिंसा, उद्दण्डता आदि के बीच वह::अशोकबिन्दु भैया

जीवन सिर्फ इस हाड़ मास शरीर के बनने बिगड़ने तक ही सीमित नहीं।जो इस शरीर के हाव-भाव,व्यवस्था,इच्छओं, क्रियाकलापो आदि तक सिर्फ सीमित हो इसके लिए बनाबटों, जटिलताओं  आदि  में उलझे रहते हैं वे अपने व जगत की सूक्ष्मता, सूक्ष्मतर स्थिति, कारण स्थिति के अनुभव से काफी दूर होते हैं।हमने तो आध्यत्मिक संस्थाओं से जुड़े ब्यक्तियों को भी देखा है, उनमें 99.08प्रतिशत व्यक्ति अपने हाड़ मास शरीर, अन्य के हाड़ मास शरीर, संसार व उसकी वस्तुओं की नजर से सिर्फ ही जिंदगी को देखते है।इसमें भी गनीमत है।इसके लिए भी बनाबट, पूर्वाग्रह, कृत्रिमता, जाति, मजहब आदि को आड़े ले आते हैं और प्रकृति व इंसान के दुश्मन बन जाते है।



सन2011-25ई0 का समय::अनेक सांप बिल से निकल बाहर आ रहे हैं। दूध का दूध पानी का पानी होने में देर न लगेगी।वक्त तो आने दो। नई रामायण के लिए भी, नए महाभारत के लिए भी ध्रुवीकरण हो जाने दो।कौन श्रीकृष्ण के सिराने कौन पैताने बैठता है।कहने को तो श्रीकृष्ण को चाहने वाले कम नहीं हैं।यहाँ श्री कृष्ण से हमारा मतलब एक हाड़ मास उस शरीर से नहीं है जो देवकी पुत्र है।आत्मा, परम् आत्मा, प्रकृति अभियान/यज्ञ,सुप्रबन्धन, नियमितता आदि के लिए प्रयत्न से है ।


आगे औऱ सवाल उठेंगे, इस वक्त भी उठ रहे हैं।कुदरत, जीवन, इंसानियत, विश्व, विश्व बंधुत्व आदि नके लिए प्रयत्न में कौन साथ है?कौन विरोध में है?अनुकूलता प्रतिकूलता, ऋणात्मकता/धनात्मकता आदि के बीच वह तटस्थ है। #श्रीअर्धनरीश्वरअवधारणा, #सातशरीरवकुण्डलीनजागरण, #गीताविराटरूप, #अनन्तयात्रा आदि सम्वन्धी पुस्तकें पढ़ने से क्या नजरिया बना है हमारा?!  विश्व व इंसानियत के लिए खतरा  उन्मादी, मजहबी, जातिवादी आदि  की औकात का घड़ा कब तक नहीं भरेगा। इनकी हद कहीं न कहीं कभी न कभी खत्म होगी।कुदरत व खुदा से बढ़ कर क्या?ऐसे में वह अनजान नहीं हो सकता कि कौन कौन विश्व बंधुत्व, इंसानियत, कुदरत आदि के सम्मान में लगे हैं। अभी खुश हो सकते हो,हम सब को, हमारे समीपवर्ती लोगों को मार कर लेकिन  किसको मार कर?तुम हाड़ मास शरीर, हाड़ मास शरीरों, उसकी हद के आगे भी क्या निकल सकते हो? पिता जी प्रेमराज सुनाते थे-गांव में के ब्राह्मण व क्षत्रिय परिवारों ने हर तरह से प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष किसी न किसी रूप से चैन से न जीना दिया।हालांकि गांव को अपने ही पुर्वजो में बसाया था।लेकिन....??सब कुछ हाड़ मास की क्रियाएं व्यवहार ही नहीं हैं।लेकिन उनको भविष्य में भुगतना पड़ा।


हमने हाड़ मास शरीर के लिए जैसे तैसे लोगों को धोखा दे कर,हिंसा करके, परेशान कर के, जातिवाद, मजहबवाद आदि से प्रभावित हो कर जीवन जी लिया तो क्या जी लिया?नहीं कदापि नहीं।कहते फिरते हो, अरे उसने हमारा क्या बिगाड़ लिया?वह हमारा क्या बिगाड़ पायेगा?या अपने जाति मजहब के नाम से दूसरे जाति मजहब के लोगों को अपनी हिंसा का शिकार बना दिया
और अपने जाति मजहब पर गर्व करते हो।अपने जाति मजहब के हिंसकों के खिलाफ कुछ नहीं बोलते और दूसरी जाति मजहब के लोगों के भले बनने की कोशिस करते हो,ये कहाँ तक चलेगा?इसकी हद कहाँ तक है?क्या नहीं जानते?ये सिर्फ तुम्हारी बनाबटों, कृत्रिमताओ तक ही सीमित है।कुदरत तक नहीं, स्थूल की असलियत तक नहीं।सूक्ष्म जगत,सूक्ष्मतर जगत तक नहीं, कारण जगत तक नहीं।जहां जाति मजहब आदि बनाबटों,कृत्रिमताओ की
कोई औकात नहीं।खुदा के नाम से ,मजहब के नाम से सेवकों, देश रक्षकों, गैर जातकों, गैर मजहबो के सामने चाहें कितना भी उछल कूद करो?तुम्हारी हद कहाँ तक जाएगी?पूरी की पूरी जमात खत्म कर दी?कोई  पूरी की पूरी जाति खत्म कर दी, पूरी की पूरी कोई मजहब की इंसानी भीड़ खत्म कर दी तो किस हद तक तुम सफल हो गए?ये सब कहाँ तक है?अभी तुम अपने स्थूल, सूक्ष्म व कारण तक नहीं पहुंच पाए.... ईश्वर या खुदा तक अपनी पहुंच क्या बनाओगे?



न जाने कितने क्रांतिकारी हुए, कैद से अच्छा है कि फांसी के फंदे पर झूल जाएं।बार बार आऊंगा और संघर्ष करूगां।पुनर्जन्म पर विश्वास करो, चाहें न करो लेकिन इस जज्बे ने आगे चल कर अपने कौम,समाज, देश पर मरने वालों की संख्या कम नहीं होने दी।गुरु गोविन्द छोटे थे, पिता कश्मीरियों पंडितों को सम्बोधित कर रहे थे-अपने आने वाली नस्लों को यदि सुरक्षित रखना चाहते हो तो मरना होगा। बालक गोविंद बोल पड़ा-पिता जी शुरुआत आप करो। इसके बाद क्या हुआ?उन्होंने अपने माता पिता को खोया, अपने बच्चों को खोया लेकिन अपने कौम,समाज, देश के लिए मरने वालों की संख्या में इजाफा ही किया।इसकी हद सिर्फ बनाबटी नहीं थी, कृत्रिम नहीं थी, आगे के स्थूल जगत तक नहीं थी।आगे स्थूल जगत ,सूक्ष्मतर जगत पर भी उसका प्रभाव था।

हमारे पिता जी-प्रेम राज ने अनेक बार बताया था। हालांकि गांव की स्थापना अपने पूर्वजों ने ही की थी।पुरखे यहां तराई के जंगलों में आने के बाद पुवायां राज्य में कारिंदा बन पुवायां राजाओं के लिए राजस्व बसूलने व एक क्षेत्र विशेष पर निगरानी करते थे।पुवायां क्षेत्र में कुनबियों के नेता हमेशा बने रहे थे।बंडा व पुवायां/कहमारा क्षेत्र में जमीन की कमी न थी।लेकिन कुछ ब्राह्मण व ठाकुर परिवारों के मनमानी व षड्यंत्रों का शिकार हमेशा से रहना पड़ा। जीवन की हद सिर्फ बनाबटों, कृत्रिमताओ तक ही सीमित नहीं है। जीवन के ,चेतना के,आत्मा के आगे भी अनन्त बिंदु व स्तर हैं।ईमान की पहुंच कहाँ तक है ?समझने की जरूरत है?जो इन आँखों से ही सिर्फ दिखता है,वही सिर्फ सच नहीं है।पिता प्रेम राज के पिता अर्थात हमारे बाबा मुलाराम राय तभी खत्म हो गए जब पिता प्रेम राज पांच साल के बालक थे। इसके बाद उनका व उनके चाचा फतेह चन्द्र का पूरा जीवन संघर्ष मय बीता। जब हम बालक ही थे तो पिता जी के चाचा फतेहचन्द्र भी चल बसे।हां, पिता जी ने हमें अनेक बार बताया कि खानदान में अन्य मौते भी हुई लेकिन हमें अहसास क्या होता रहा?जिन परिवारों की राजनीति, षड्यंत्र,मनमानी आदि के कारण खानदान तनाव में रहा, उन खानदान के बर्बादी के भी अहसास होते रहे।जो अपने खानदान में मरते रहे, उनके सम्बन्ध में अहसास होता रहा कि वे उन खानदान को प्रभावित करते रहे। वे हमारे व जगत के तीन स्तर हैं-सूक्ष्म, कारण भी।हमने अपनी हद कहाँ तक बना ली है,ये भी महत्वपूर्ण है।इसको यदि समझना है तो तिब्बत के भिक्षु जीवन की समझिए।वहां जो मरने को होता है,मरने से पहले ही बता देते है कि हम मरने के बाद उसकी कोख से पैदा होंगे और मरने के बाद भी बन्धित ऊर्जा/आत्मा/सूक्ष्म सात दिन तक निर्देशित करता रहता है।
रूस में एक ऐसी तकनीकी खोजी गयी है जिससे हमारे प्रकाश शरीर/आभा मण्डल का भी चित्र आ जाता है।हमारे साथ छह माह बाद क्या होने वाला है?उससे स्पष्ट हो जाता है।बाबू जी महाराज ने भी अपनी आत्मकथा में लिखा है कि हमें लाला जी का निर्देश मिला कि बाबू, तुम्हारी साधना जितनी गहराई पकड़ती जा रही है, उतना ही तुम अपने व जगत के सूक्ष्म जगत से जुड़ते जा रहे हो।तुम अपने को ऐसा बनाओ ताकि उन सूक्ष्म जगत की शक्तियों को तुम्हारी मदद के बजाए तुम्हारी विरोधियों ,तुम्हारे माजक बनाने वालों पर लगना पड़े। ये आपके लिए कल्पना हो सकता है लेकिन हमारे लिए नहीं।हम जिस स्तर पर गहराई में होते है, उस स्तर की सूक्ष्म शक्तियां हमारे साथ होती हैं।भूतपूर्व परिवार के हालातों व सूक्ष्म हरकतों ने हमें यहां कटरा में ला पटका।जब आया तो हमने एक साल के अंदर यहां व आसपास क्या है सूक्ष्म?अहसास कर लिया था।उसी एक साल में हम कायस्थान मोहल्ला से सुमित त्रिपाठी से बोला था(स्टेशन रोड पर फाटक के समीप सड़क पर चलते हुए)-इस वक्त हम दो नहीं है अनेक हैं। मालिक चाहेगा तो दुनिया जानेगी की कैसे हमारे आस पास,नगर में होने वाली स्थूल  घटनाओं में सूक्ष्म शक्तियां  सहायक होती है?या हम जो अपने हाड़ मास शरीर, सोंच से जो करते हैं उसका हमारे सूक्ष्म जगत और फिर भविष्य में उसका हम पर,अन्य पर असर पड़ने वाला है?पड़ता है।रूस की उस तकनीकी से-एक व्यक्ति का उस तकनीकी से आभा मण्डल लिया जाता है।उसके एक हाथ में ऊर्जा/प्रकाश का भाव दिखता है।वह एक ड्राइवर था-छह वे महीने क्या होता है? उसका एक्सीडेंट हो जाता है और उसे अपना वह हाथ कटवाना पड़ता है।लोग हमें सीधा समझते है,इसके पीछे कारण है।ओशो क्रांति बीज में लिखते है-आध्यत्म समाज में तथाकथित कायर डरपोक भी बनाता है लेकिन रोज मर्रे की जिंदगी में जो सीना तान कर दबंगई करते नजर आते है वे कानून व्यवस्था, ईमानदारी आदि में त्याग व साहस नहीं दिखा पाते।जो खामोश है, समाज की नजर में सीधे है दिखा जाते है।खामोशी उनकी बहुत कुछ कर जाती है।खामोशी की मार बड़ी गहरी होती है। पिता जी प्रेम राज बताते रहे-खानदान में अमुख अमुख मरा लेकिन हमें अहसास हुआ कि अब वह प्राणी अमुख परिवार में ऐसी ऐसी कंडीशन पैदा करने वाली है।आगे चल वैसा ही हुआ। लोग कहते तो हैं कि दुनिया को चलाने वाला तो कोई और है ,जीवन को चलाने वाला तो कोई और है लेकिन आचरण से इसको मानते नहीं।सदैव ही हाड़ मास मनुष्य मरता है उसके द्वारा किए गए कर्म कभी नहीं मरते वह उसका पीछा जन्म जन्मांतर तक करते हैं


इस दुनिया में मोहम्मद साहब आये, एक औरत उन पर कूड़ा डालती थी, लेकिन वे अपने कर्तव्य में रहे।जब वह औरत बीमार पड़ी तो उसके हालचाल पूछने उसके पास आ पहुंचे। क्षत्रपति शिवाजी के सामने उनके कुछ सैनिक जब कोई मुस्लिम औरत पेश करते हैं तो क्षत्रपति शिवा जी क्या कहते हैं? सबको पता होगा?इसी तरह गुरु गोविंद सिंह भी....जब सामने हिंसा आयी तो उन्होंने हिंसा की।पहल नहीं की। आज की तारीख में जो उन्मादी, हिंसक बनते है अपने जाति मजहब के नाम पर पुरोहितबाद में फंस कर वे कभी उनसे महान नहीं हो सकते जो गैर जाति, गैर मजहब के व्यक्तियों प्रति  द्वेष नहीं रखते,अपने धार्मिक अनुष्ठानों में सबका कल्याण हो.... सर्वेभवन्तु सुखिनः..... बसुधैव कुटुंबकम... आदि का भाव रखने का प्रयत्न करते है। ऐसे लोगों का हाड़ मास शरीर चाहें तुम हजार बार मार दो लेकिन उसके मिशन को नहीं मार सकते। जरा सूक्ष्म जगत में उतरने की कोशिश तो करो,वर्तमान सारी धारणाएं धराशयी हो जाएगी।वहां एक हद के बाद जाति मजहब आदिआदि की चलती बन्द।


हमे यथार्थ को पकड़ने की जरूरत है। हम व जगत के तीन स्तर हैं-स्थूल, सूक्ष्म व कारण।इन तीनों की असलियत को हम नहीं जी बनाबट, कृत्रिमता, पूर्वाग्रह आदि में जीवन खफा देते हैं।हम भूल जाते हैं हमारे, सबके व जगत के अंदर वह भी है जो स्वतः है निरन्तर है।हम उसको कब तक नजर अंदाज करेंगे।जो ही में जीना, उसका अहसास करना,उसके अहसास में जीना ही प्रेम है, आध्यत्म है, धर्म है।वही चिर सम्बंध है।


बुधवार, 8 अप्रैल 2020

नए धर्म व ग्रंथ को छटपटाती इंसानियत:::अशोकबिन्दु भैया


   जहां तक निगाह जाती है-सब प्रकृति व ब्रह्म अंश है।सब सागर में कुम्भ कुम्भ में सागर की स्थिति में है।सब का सब चेतना के सागर का हिस्सा है।हम सब आत्मा रूपी लहर है -चेतना रूपी सागर में ।इसे अहसास कराती है भक्ति और सन्तों की वाणियां।गुरु नानक का जीवन हमें काफी प्रेरणा देता है।'सब चुंग जा सब राम का'-भक्त में ही पूर्णता होती है।ऋषि मुनि के बाद योगी और योग, आचार्य और आचरण महत्वपूर्ण है। इसलिए किसी ने कहा है-आचार्य है-मृत्यु।योगी है-मृत्यु।योग के आठ अंगों में से पहला अंग है-यम।यम को भी  किसी ने मृत्यु कहा है। यही क्षत्रियत्व है।यही ब्राह्मणत्व है।इतना रम जाना, रमने का साक्षी हो जाना कि पता ही न चले क्या साहस है क्या भय?सिक्ख होना समर्पण है, शरणागति है।बस, जीते जाएं साक्षी हो।हर पल जागरण व अभ्यास....

भक्ति से ओतप्रोत है-'गुरु ग्रन्थ साहिब'।जिसमें सन्तों की वाणियां हैं सिर्फ।जब वह आया तो वह समय की मांग थी।उसकी प्रासंगिकता अब भी बनी हुई है।उसने हमें प्रेरणा दी है।गुरु नानक की काबा की यात्रा के साथ साथ अरस्तू व उसके शिष्य सिकन्दर के जिक्र के साथ विश्व के सभी सन्तों की वाणियों व ईसा पूर्व पांचवी-छटवीं सदी समय की वैश्विक अध्यत्मिक क्रांति को सँजोता एक ग्रन्थ भावी ग्रन्थ-विश्व सरकार ग्रन्थ साहिब' का अवतरण।इसके लिए मालिक की महान प्रेरणा चाहिए।कुछ संस्थाएं अब विश्व के अभी सन्तों/महापुरुषों की वाणियों को अपने यहां स्थान देने लगी हैं।ये सराहनीय कार्य है।इसमें विदेश में बसे भारतीयों का बड़ा योगदान होगा।
जय विश्व!जय मानवता!जय अध्यात्म!!!
#अशोकबिन्दु भैया!!
#कबीरा पुण्य सदन!!
#कटरा विधान सभा क्षेत्र!!

मंगलवार, 7 अप्रैल 2020

शाहजहाँपुर, उप्र से बाबू जी महाराज का संयुक्त राष्ट्र संघ को पत्र व उसकी प्रासंगिकता!!

BABUJI MAHARAJ'S LETTER TO UNITED NATIONS

This is the iconic letter Babuji wrote in 1957 to UN. He was a visionary even in that era. Many of us have read this - but in these current troubled times great to read this again.  Enclosed in the post is a picture of Babuji (Travels in the West) and also a good quote from this speech.

Source : https://www.sahajmarg.org/un-dpi/babuji-letter

"Rev. Babuji's Letter to the UN
(Letter to the U.N.O)
N.B349 / SRCM

Shahjahanpur, U.P.
Dated 8th July 1957

Dear Sir,

I am glad to receive your bulletin and I pour forth my warm thanks for the awakening for peace created among our brethren of the world. The idea of peace common in all minds, though shattered by the self of the individual mind, is working on individualistic basis to gain one’s own end on account of the narrow mindedness of people. To dissipate the idea of individual self and to work harmoniously for the common good is the demand of the time. The conferences and meetings held for the purpose may only be like spark to offer a temporary glow to the scattered fragment of peace. Their cries in the wilderness will not carry far on the path of success because of the material agony of faith working at the bottom.

What we, therefore, require at present is only to improve the morals and to discipline the mind. We must learn how to create within the heart a feeling of universal love, which is surest remedy of all evils and can help to free us from the horrors of war. I perfectly agree with our friend late Mr. Bernard Malan when he expresses his faith to unite in the common search for happiness. Happiness, of course, is necessary to end all grief. But it is like the Black wall of the scientists, which does not allow them to proceed further towards universal love. To come up to the level of real happiness we must necessarily rise above ourselves, which is essential for the creation of atmosphere of universal love.

That is the primary factor in the solution of the problem. India has ever since been in search of it. She did not encroach upon other countries for war and blood shed not for reason of her cowardice but because she realized her pious duty towards humanity. They were happy in their own homes in spite of the torturous incursions of their nations. These tortures were to them nothing but flowers sent by the Divine Master to coach them to proper steps necessary for the uplift of mankind individually and collectively.

The seed of it is so deeply laid that still its branches bear blossoms filling the air with the sweet fragrance of peace and happiness. It is so firmly rooted that even the worst tempest cannot uproot it. Such are the things necessary for the uplift of mankind, which everyone, occidental or oriental must treat as a part of his duty. Unless the foundation of peace is made to rest on spiritual basis no better prospects can be expected. It is but definite and certain that sooner or later we will have to adopt spiritual principles if we want to maintain our existence. If the material force can avert the incursions and attacks, blood shed cannot be avoided because even then we have to apply force causing thereby bloodshed on either side. Arrogance cannot be stopped by material force. It is only the spiritual force, which can remove the causes of war from the minds of people.

How to introduce these things among the masses who are yet unfamiliar with the accuracy of the mark is the next problem and is equally intricate. If my opinion were to be invited I would lay down the simplest possible method as given below.

Let all brothers and sisters sit daily at a fixed hour individually at our respective places and meditate for about an hour thinking that all people of the World are growing peace-loving and pious.

This process, suggested not with exclusively spiritual motives, is highly efficacious in bringing about the desired result and weaving the destiny of the miserable millions. With prayer for the success of your noble mission.

Yours sincerely,
Ram Chandra
President,
Shri Ram Chandra Mission
Shahjahanpur,U.P.,India

- (From letters of the Master, Volume I, page number 130,131 & 132)"

कमलेश डी पटेल 'दाजी' के द्वारा दिए गए सुझावों की वर्तमान में प्रासंगिकता !

"दाजी द्वारा दिये गये चार सुझावों की वर्तमान समय में प्रासंगिकता"

प्रिय भाइयों और बहनों , प्रणाम !

एक अत्यंत ही प्रचलित कहावत है - "लोहा जब गर्म हो , तब यदि उस पर चोट मारें तो उसे आसानी से मनचाहा आकार दिया जा सकता है।"

वर्तमान समय में जब पूरा विश्व कोरोना वायरस से भयभीत , चिंतित एवं दुःखी हैं , हम मानवता की इस संवेदनशील दशा को 'गर्म लोहे' की दशा मान सकते हैं। ऐसी स्थिति में हम समस्त अभ्यासी गण यदि पूर्ण सकारात्मक भाव से संपूर्ण मानवता के लिये दाजी द्वारा दिये गये चार सुझावों को  व्यावहारिक रूप से प्रतिपल लेते रहने का पुनीत कार्य करें तो निश्चित तौर पर हम प्रकृति एवं दाजी  द्वारा संसार को बदलने और उसे एक सुंदर और समुचित आकार देने के महानतम कार्य में योगदान ही देंगे। प्रकृति अभी संसार से , लोहसदृश कठोर एवं अवांछित तत्वों का सफाया कर मानवता को अपेक्षाकृत सरल , सहज , शुद्ध , अनुशासित एवं दैवीय रूप देने में लगी है। संपूर्ण मानवता के लिये हमारे द्वारा दिये गये सशक्त मानसिक सुझाव और हृदय की गहराईयों से की गई निःस्वार्थ प्रार्थनाएँ अवश्यम्भावी तौर पर त्रस्त मानवता के हृदयों पर तो मरहम का कार्य करेंगी ही , हमारे द्रुत आध्यात्मिक विकास में भी सहायक होंगी।

यह जगत,विदित है कि - "जैसा हम सोचते हैं , वैसा ही होता हैं।" तो नियम कहता है कि "वैसा सोचो , जैसा आप चाहते हो।"

       अब प्रश्न उठता हैं कि हम सब क्या चाहते हैं ?

उत्तर सीधा - सादा है - "एक ऐसा विश्व , जहाँ हर जना बिल्कुल सहज , सरल , पवित्र एवं प्राकृतिक जीवन जी रहा हो। जहाँ सब एक - दूसरे से निःस्वार्थ प्रेम करते हों।  'जीओ और जीने दो' की उक्ति का पालन करते हुए जहाँ समस्त जन समुदाय पूर्ण नैतिक , सदाचारी एवं चरित्रवान हों। स्वयं में उत्पन्न गड़बड़ियों , खराबियों , असंतुलित शक्तियों और अनुभूतियों में 'समभाव' (जो कि प्रकृति का स्वाभाविक गुण है ) , लाते हुए जहाँ सब जने आध्यात्मिकता के सहारे स्वयं को पूर्ण एवं विशुद्ध बनाते हुए प्रकृति के साथ पूर्ण सामजंस्य स्थापित करने की दिशा में अग्रसर हो रहे हों।"

                 तो फिर देर किस बात की हैं ?

         क्या चीज़ हमें ऐसा करने से रोक रही हैं ?

सिर्फ एक चीज़ और वह यह कि हम सब एक तो स्वार्थपरता से ऊपर उठ मानवतावादी रवैया नहीं अपना पा रहे हैं , स्वयं से परे जाकर अन्यों के लिए निःस्वार्थ प्रार्थना नहीं कर पा रहे हैं। दूसरे - हम सब ये सोचते हैं कि सारी गड़बड़ सामने वाले इंसान में हैं , मैं तो पाक साफ़ हूँ , जब कि आध्यात्मिकता कहती है - "स्वयं को बदलो , विश्व स्वतः बदल जायेगा।" हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिये कि विश्व हमीं सबसे मिलकर बना हैं। हम सब विश्व के स्तर पर एक व्यक्तिगत इकाई हैं। इंसानों के मेल से परिवार , परिवारों के मेल से समाज , समाजों के मेल से राष्ट्र एवं राष्ट्रों के मेल से फिर विश्व बना हैं।

             शुरुआत कहाँ से हुई ? - 'हमसे।'
                   
                तो सबसे पहले ज़रूरी हैं , स्वयं को ठीक करने की। स्वयं में पूर्णता लाने की। अपनी अंगुली को दूसरे की बजाय खुद की तरफ़ करने की , जो आध्यात्मिक साधना के बगैर संभव नहीं। इसलिये आध्यात्मिकता को जीवन में अहमियत देते हुए सर्वप्रथम हम सब स्वयं में बदलाव लाएँ !

          स्वयं को पूर्णता का राही बनाने के बाद फिर दूसरी चीज़ जो हमारे कर्तव्य के दायरे में आती हैं , वह हैं - 'अन्यों के उत्थान हेतु हमारा निःस्वार्थ प्रयास।' जैसे - जैसे हम पूर्णता की राह पर आगे बढ़ते जाते हैं , हम अब स्वकेन्द्रित नहीं रह जाते। अब हमारी 'स्वार्थपरता' अपना संकुचित दायरा छोड़ 'वसुधैव कुटुंबकम' का एक विस्तृत स्वरूप लेती जाती हैं। परिणामस्वरूप अब हम औरों से भी बिल्कुल वैसे प्यार करने लगते हैं , जैसे स्वयं से करते हैं। औरों का भी वैसा हित चाहने लगते हैं , जैसा स्वयं के लिये चाहते हैं। दूसरों को अब हम बिल्कुल वैसा व्यवहार देने लगते हैं , जैसे व्यवहार की उम्मीद हम स्वयं के लिये करते हैं। अभी वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हमें यही सब करने की ज़रूरत हैं।

                   दाजी ने हम सबको समय - समय पर निम्नलिखित 4 सुझाव लेते रहने की सलाह दी हैं ताकि हम सबके द्वारा समयानुसार एवं प्रतिपल लिये गये इन सकारात्मक सुझावों से विश्व में चारों तरफ एक मज़बूत एवं सकारात्मक वातावरण या एग्रिगोर बन जाये , जिसके परिणामस्वरूप उनकी दिव्य योजना सरलता एवं सहजतापूर्वक क्रियान्वित हो जाए।

        "दाजी द्वारा प्रस्तावित 4 सुझाव"

1. प्रथम सुझाव -
          "सार्वभौमिक प्रार्थना या वैश्विक प्रार्थना"

★दाजी कहते हैं - "बाबूजी महाराज के अनुसार यह एक वैश्विक प्रार्थना हैं , जहाँ हम श्रद्धा और प्रेम को सभी में अन्तर्निविष्ट करने का प्रयास करते हैं। यह हमें अपने स्वयं के संकीर्ण , मतलबी , स्वकेन्द्रित स्वार्थ से मुक्त कर हमारे हृदय को खोलती है , यह कि जो कुछ भी मैं करूँ , वह सबको लाभ पहुँचाये , इसके अलावा सृष्टि में ऐसा कुछ नहीं हो जिससे केवल मुझे लाभ पहुँच सके।"

सार्वभौमिक प्रार्थना का तरीका ~

 हर अभ्यासी रात को ठीक 9 बजे जहाँ कहीं भी हो , अपना सारा काम छोड़कर पंद्रह मिनट के लिये ध्यान में बैठ जाए और चिंतन करे कि सभी भाई - बहनों में श्रद्धा और प्रेम भर रहा हैं और उन सबमें मालिक के प्रति सच्ची श्रद्धा दृढ़ हो रही हैं।

★ वर्तमान समय में दाजी ने उपरोक्त सार्वभौमिक प्रार्थना को मानसिक रूप से 24 घंटे दोहराते रहने पर ज़ोर दिया हैं।

                        मालूम है क्यों ?

सहज मार्ग के प्रमुख तत्व , भाग 1 की पृष्ठ संख्या 13 -14 पर चारीजी कहते हैं - "हम और जो भी करते हैं , केवल अपने लिये करते हैं। लेकिन 9 बजे की प्रार्थना हम अन्य सभी के आध्यात्मिक एवं सार्वभौमिक कल्याण के लिये करते हैं।"
        चारीजी कहते हैं - "मैं थोड़ा विस्तार से बताता हूँ। देखिये , बुद्धिमत्ता इसी में है कि हम पूरी मानवता को अपने स्तर तक उठाएँ। यह तो हम सब भलीभाँति जानते हैं कि यदि एक स्थान पर एक ही धनी व्यक्ति हो तो वह चारों ओर से डाकूओं के हमले का निशाना बन जाता है। इसी प्रकार यदि एक ही तंदुरुस्त व्यक्ति हो जिसके चारों ओर सभी बीमार हों तो वह भी सुरक्षित  नहीं है। अतः हमारी साधना के दो पहलू हैं , एक है हमारा अपना विकास और दूसरा यह प्रार्थना कि हमारे साथ - साथ सभी का विकास हो , जिससे हमसे कोई ईर्ष्या न करे , हमारी उन्नति पर किसी की नज़र न लगे , न कोई जलन हो न स्वार्थपरता। हम सभी का उत्थान इसी तरह से हो - हालांकि यह भी सार्वभौमिक प्रार्थना का एक स्वकेन्द्रित पक्ष है।"
दूसरा पक्ष है - "प्रभु , यदि मुझे यहीं रह जाना है तो कम से कम उन्हें ऊपर जाने दो , ताकि जब वे ऊपर जायें तो उनमें से कोई मुझे भी बाद में उठा सके। केवल वही व्यक्ति जो गिर गया है , जानता है कि उसके चारों ओर अवश्य ही कोई हो , जो उसे उठा सके। इसमें  भी स्वार्थपरता का कुछ अंश है।"
         "उच्चतम पहुँच उस संत की हैं जो कहता है : "मैं शाश्वत रूप में यहाँ तब तक रहने को तैयार हूँ , जब तक कि मैं दूसरे सभी लोगों का उत्थान न करूँ।" केवल वही इस तरह प्रार्थना कर सकता है , जिसके लिये बड़े - छोटे का , आध्यात्मिक - अनाध्यात्मिक का , स्वर्ग - नरक आदि का अंतर मिट चुका हो। तो जब हम व्यक्तिगत साधना करते हैं तब हमारा दिन - प्रतिदिन आध्यात्मिक विकास होता हैं  जब हम 9 बजे की प्रार्थना करना जारी रखते हैं , तो हमारी साधना में थोड़ी - थोड़ी सार्वभौमिकता आने लगती हैं और हमारी आध्यात्मिक उन्नति हमारी सार्वभौमिक प्रार्थना के दृष्टिकोण से आये परिवर्तन से मेल खाती हैं जहाँ हम पूर्ण स्वार्थपरता से आंशिक स्वार्थपरता और फिर पूर्णरूप से दूसरों के कल्याण के लिये प्रार्थना करते हैं।"

2. द्वितीय सुझाव - यह विचार लें कि सभी बहनों और भाइयों में सही सोच , सही समझ और जीवन के प्रति सही , नेक एवं उदार दृष्टिकोण का विकास हो रहा हैं।

★ दाजी कहते हैं - "इसे बहुत ही निष्ठा के साथ करें , जब भी आप कर सकें। दिन में , रात में , जितनी भी बार हो सके। मेरे विचार से आपको इसे कंठस्थ करके अपने हृदय तक ले जाना होगा। जब भी आपको खाली समय मिले , बहुत प्रेम के साथ इस प्रार्थना की तरंग भेजें !"

3. तृतीय सुझाव - जब भी आपके पास खाली समय हो , वाहन चलाते समय भी यह विचार लीजिये कि वायु के कण , पेड़ , फूल , लोग , पंछी , दीवार , छत , तस्वीरें , हमारे आस - पास की हर चीज ईश्वरीय याद में डूबी हुई है।

★ दाजी के अनुसार , "यह सुझाव हमारे अपने ही लिये हैं। यह हमारे विकास को गति देगा। हमारे आसपास के परिवेश पर , हमारे गहन - स्व पर इसका अद्भुत प्रभाव पड़ता हैं। आप स्वयं ही अनुभव कर सकते हैं , कुछ दिन इसे अपनाकर देखिये !"

4. चौथा सुझाव - सभी भाई - बहन जो वास्तव में 'परम्' के लिये तड़प रहे हैं , वे सभी हमारे प्रिय महान गुरुदेव की ओर आकर्षित हो रहे हैं। वे सभी उनकी ओर खिंचे आ रहे हैं।
★ दाजी कहते हैं - "हम गुरुदेव को अपनी प्रार्थना अर्पित करते हैं कि 'वे सभी आपकी कृपा से लाभ लें।' "

■ चारों सुझावों के मद्देनज़र दाजी कहते हैं - "एक तरंगित प्रभाव उत्पन्न करने के लिये अगर मैं अवशोषकता की अवस्था दूसरों में उत्पन्न करना चाहता हूँ , तो वह पहले मुझमें होनी चाहिये। तो कृपया यह करने का प्रयास करिये !

कबीर ने क्या खूब कहा हैं -
"दुःख में सुमिरन सब करे , सुख में करे न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे,तो दुःख काहे को होय।।"

अभी समस्त मानवता दुःखी एवं त्रस्त हैं तथा कोरोना की भयावहता के चलते सब विशेष रूप से 'ईश्वरोन्मुखी' हैं। सच तो यह है कि अभी ईश्वर के शरणागत होने के अलावा उनके पास कोई चारा ही नहीं हैं।

 आइये.....हम सब दाजी द्वारा दिये गए चारों सुझावों को प्रतिपल ज़ेहन में बनाये रखते हुए दाजी की आज्ञा का पालन करने की कोशिश करें ,  साथ ही साथ मानवता पर उनके एवं प्रकृति के द्वारा किये जा रहे निर्मलीकरण के महत्वपूर्ण कार्य को अंजाम देने के कार्य में उनका सहयोग भी करें !

                            सधन्यवाद
                      हेमलता बोचीवाल

(copied)

सोमवार, 6 अप्रैल 2020

परिवर्तन को स्वीकार करना ही बुद्धिमत्ता की माप है!!

परिवर्तन को स्वीकार करना ही बुद्धिमत्ता की माप है।
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 सँयुक्त राष्ट्र संघ सूचना केंद्र, हार्टफुलनेस एडुकेशन, श्रीरामचन्द्र मिशन आदि के तत्वावधान प्रतिवर्ष करवाने वाले निबन्ध लेखन कार्यक्रम में जो विषय होते हैं,वह अनुभूति, अहसास, चिंतन मनन ,मेडिटेशन आदि को समय देने वालो के लिए अनन्तता का द्वार तक पहुंचने में सहायक होते हैं।

दुनिया में भारत ही ऐसा देश है, जहां धार्मिक कर्मकांडों के बीच जयघोष होते हैं-सबका कल्याण हो। क्यों न वे कितने भी अन्धविश्वासी, जातिवादी अभी हों।अनेक चीजों की शिक्षा वक्त देता है।इस वक्त जब सारी दुनिया कोरो-ना संक्रमण से संघर्ष करते हुए एक जुट है वही एक सम्प्रदाय के लोग व उनके देश गृह युद्ध, पुरोहितवाद, भीड़तंत्र आदि के सहारे वर्तमान हालातों में साहस से खड़े प्रहरियों के हौसले को कम करने व ध्यान बटाने में लगे हैं।यूरोपीय देश जिनकी स्थितियां दुनिया को आकर्षित कर रही थीं, सभी भौतिक संसाधनों से युक्त थीं वे भी आज ज़मीन पर आकर खुले आसमान के नीचे आ गए हैं।कुछ तो अपने घर मे ही कब्रों का इंतजाम कर रहे हैं।कहीं कहीं शवों को दफनाने की जगह जलाने का काम शुरू हो गया है।कुछ देश व गैर मुस्लिम व गैर चीन जनता भारत की ओर देख रही है।

खुदा को स्वीकार करने, कुदरत को सम्मान देने का मतलब क्या है?ये नहीं कि हम खुदा की बनाई चीजों में खलल डालें और अनुशासन, कानूनी व्यवस्था के विपरीत खड़े हो जाएं।हमने तो देखा है कि दुनिया में वास्तव में जो भक्त हुए है-वे उदार, नम्र, सेवक आदि हुए हैं।हालातों के आधार पर हमें परिवर्तन भी स्वीकार्य होने चाहिए।परिवर्तन ही शाश्वत नियम है।आत्मा व परम् आत्मा का विशेष गुण है-सनातन, निरन्तरता, शाश्वतता।हम तो रुके हुए लोग हैं जो कि पुरानी धारणाओं / भूतगामी स्थितियों को त्याग कर भविष्यगामी/विकास शील नहीं होना चाह रहे है। हम अपनी पहचान जाति/मजहब/पुरोहित/हाड़ मास लालसाओं तक ही सीमित किए पड़े हैं।खुदा भी खुद से है।खुद के अंदर की रोशनी से है।हमारी बुद्धिमत्ता से है। हमारी बुद्धिमत्ता की माप परिवर्तन को हमारा स्वीकार्य का स्तर है।हमारी चेतना व समझ किस स्तर व बिंदु पर है?बिंदु तो अनन्त हैं।

वह खुदा-प्रेम व कुदरत- प्रेम निरर्थक है जो खुदा की बनाई वस्तुओं व कुदरत के खिलाफ खड़ा है।हम अपना व्यक्तिगत जीवन अपने घर के अंदर जीने के लिए स्वतंत्र हैं लेकिन कुदरत की अन्य वस्तुओं, जीव जंतुओं, मनुष्यों के प्रबन्धन को बिगाड़ कर नहीं।अनुशासन व कानूनी व्यवस्था को बिगाड़ कर नहीं, सद्भाव को बिगाड़ कर नहीं। एक बात और है जो कौमें वास्तव में स्वाभिमानी है वे सरकारों से उम्मीदें नहीं रखती ,न ही आरक्षण का विरोध व समर्थन करती हैं।ऊपर से समाज सेवा व सरकार की सेवा/सहयोग में लगी हैं।कितने गिर चुके हैं दुनिया में कुछ लोग जो जाति, मजहब ,पुरोहितबाद आदि के बहाने अपनी मनमानी कर व्यवस्थाओं को बिगाड़ रहे हैं।

हम सब को जीवन, कुदरत,स्वास्थ्य, अनुशासन, मानवता, आध्यत्म,सद्भावना आदि को स्वीकार करना चाहिए।




रविवार, 5 अप्रैल 2020

आज के समय में महावीर स्वामी की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है::: अशोकबिन्दु भैया

महावीर स्वामी जयंती!!अन्तरनमन.....
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हमें निजी जिंदगी से ही सिर्फ मतलब नहीं है!!समाज, देश व विश्व की जिंदगी व उनके बीच रह रहे कम संख्या वाले भाई बहिनों से भी मतलब है।।हर भेद भावना से भी मतलब है।।।

महत्वपूर्ण ये नहीं है कि आप नास्तिक हो या आस्तिक।
महत्वपूर्ण है-आपकी चेतना व समझ की स्तर या बिंदु पर है?हम जितना अपने अंदर जाते जायेगे- भ्रम,भेद, द्वेष, राग आदि के पर्दे छंटते जाएंगे।हमारे इंद्रियों, दिमाग की हद है लेकिन हमारे मन की नहीं।हमारे शरीर का राजा है-मन।मन का राजा है-आत्मा।आत्मा तो अनन्त प्रवृतियां रखता है। हम जितना डूबते जाएगे उतना ही जगत में भी डूबते जाएंगे।दशा ऐसी होगी जैसे-सागर में कुम्भ, कुम्भ में सागर।ढाई हजार वर्ष पूर्व पूर्व/हिन्दमहा द्वीप का सन्त पूरी दुनिया में सम्माननीय था।कुछ सन्त बाद में भी हुए है,जैसे कबीर, फरीद, नानक,रैदास आदि।गुरु नानक ने तो काबा में भी अपना निशान छोड़ दिया।शायद मोहम्मद साहब ने भी कहा है पूर्व के सन्तों का सम्मान करना।

ईसा पूर्व पांचवी- छठी शताव्दी वैश्विक अध्यत्मिक क्रांति का समय है।समय मिला तो इस पर हम अपने हिसाब से एक किताव लिखेंगे, यदि मालिक चाहेगे।जो हमारे 'विश्व सरकार ग्रन्थ साहिब' का हिस्सा होगा। अब सिक्ख/अभ्यास पन्थ को 'गुरु ग्रन्थ साहिब' के सम्मान में आगे वैश्विक स्तर पर कदम रखने की जरूरत होगी। जिसमें हर देश के सन्तों को स्थान होगा। इसकी बुनियाद कुछ आध्यत्मिक संस्थाएं शुरू कर चुकी है।ये खुशी की बात है कि इसकी भी शुरुआत भारतीयों से ही होने वाली है। कुछ संस्थाएं हर देश के सन्तों के सम्मान की ओर बढ़ी हैं।

आज महावीर स्वामी के जन्म दिन पर कहना चाहेंगे कि हमे भारतीयता का सम्मान व विविधता में एकता को दुनिया में स्थापित करने की जरूरत है। ये समय भारत व भारतीयों के लिए अति महत्वपूर्ण है। ऐसे में महावीर स्वामी की प्राथमिकता और बढ़ जाती है।



आदम -ए-सलाम की हम सब औलाद हैं::कैलाश चन्द्र अग्रवाल, बरेली मोड़, शाहजहाँपुर, उप्र!!

                                        06.11am!
                                         23जून 2019ई0!
                                         श्रीरामचन्द्र मिशन, शाहजहांपुर

हमें अभ्यासी कैलाश चन्द्र अग्रवाल, बरेली मोड़, शाहजहांपुर, उप्र प्रभावित करते रहे हैं।अफसोस वो अब इस दुनिया में नहीं है।उन्होंने ही हमे लखनऊ से एक अभ्यासी हैदरअली के होने का संज्ञान कराया।जिसको एक वर्ष हो गया था।

              मुस्लिम भाई बहिनों के बीच हार्टफुलनेस के साथ जाने हेतु भी वह हमें उर्दू लफ्जों के साथ अनेक सन्देश देते रहते थे।जिसमें से कुछ को यहां पर हम प्रस्तुत कर रहे है।



              आदम-ए-सलाम की हम सब औलादें हैं।
पूरी कायनात उसी की है।जब से वह यहां आया तो सृष्टि का काम चालू है।पहले जो नूर आयी,वह नूर असर हमारे अंदर भी है।

                वही से गतिशीलता है।पहुंच है।

तब्बजो या दम भरने की क्रिया सूफी सन्तों हजरत क़िब्ला मौलवी फ़ज़्ल अहमद खां साहब रायपुरी के माध्य्म से श्रीराम चन्द्र जी महाराज, फतेहगढ़ को प्राप्त हुई।

                  आदम-ए-सलाम का रास्ता हमें एक मात्र मेडिटेशन है।

                  बैलेंस टीचर बनाता है।मास्टर बनाता है।
हमारा टीचर है वर्तमान -'वर्तमान नबी'।वर्तमान जिंदा नबी का पालन आवश्यक है। डायरेक्ट ऊपर से जुड़ाव ठीक है।वर्तमान जिंदा नबी की मदद जरूरी है।

                 खुदा कहता है-हमने जैसी रूह अमानत भेजी है थी,वैसी ही हमें चाहिए।

                  ऐसे में रूह पाक थी पाक ही चाहिए।
रूह पर जो पर्दे पर्दे पड़े हैं,धूल पड़ी है।उसको टीचर या मास्टर के माध्यम से,वर्त्तमान जिंदा नबी के माध्यम से ही हटाया जा सकता है।

                 'तय कयामत तक'-फस्ट व लास्ट पैगम्बर लगा है।
आदमवक्त में जैसी रूह दी वैसी रूह नहीं हो जाती तब तक यों ही चक्कर काटते रहोगे।


                 सन 2011-12 से काल अपना काम करना शुरू कर दिया है।सूक्ष्म शक्तियां अपने अपने स्तर पर कार्य कर रही हैं।जो जैसा है उससे वैसा ही करवाया जा रहा है।मन में स्पंदन कम्पन से भाव विचार और फिर इसके बाद कर्म। चौदह सौ वर्षों के अंदर सब सन्तुलित हो जाना है।

                   कुदरत हर वक्त हम पर मेहरबान है।
हम उसके बन्दे है। लेकिन जब बन्दों से खिलबाड़ होने लगता है तब कुदरत चुप नहीं बैठती।नए नए प्रयोग करती रहती है।
एक प्रयोग हम सब रखते हैं। हमारे  वर्तमान वैश्विक मार्गदर्शक
है-कमलेश डी पटेल 'दाजी' । जिन्होंने उस प्रयोग को नाम दिया है-हार्टफुलनेस।





                  हे मालिक!
तू ही इंसानी जिंदगी का असल मकसद है.
हम अपनी ख्वाइशों के गुलाम हैं
जो हमारी तरक्की में रुकावट है.
तू ही सिर्फ खुदा एवं ताकत है
जो हमें उस मकसद तक ले चल सकता है.



 श्री कैलाश चन्द्र अग्रवाल,
गाइडेंन स्टेट, जलालाबाद रोड,
बरेली मोड़, शाहजहाँपुर,उप्र!


#heartfulness

www.heartfulness.org/education






                   


                 

शनिवार, 4 अप्रैल 2020

आओ अन्तरदीप जलाएं:::अशोकबिन्दु भैया

आओ दीप जलाएं:बाह्य दीप जलाते जलाते अंतर दीप जल जाए और अंतरदीप जलाते जलाते बाह्य दीप!!
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 दीप जलाने की परंपरा बहुत प्राचीन ही नहीं वरन विश्व व्याप्त प्राचीन परंपरा है। सन्त परम्परा में इसे सूक्ष्म जगत में भी ले जाया गया है।हमारे तीन स्तर हैं-स्थूल, सूक्ष्म व कारण। दीप जलाने सिर्फ स्थूल क्रिया ही नहीं है।यदि हम अंतर दीप जलाने के प्रयत्न में भी लगें हैं। युरोशलम में जब पहली बार पूर्व/हिंद महाद्वीप के कुछ सन्त उस बालक के पार पहुंचे तो इसलिए नहीं पहुंचे थे कि उसमें प्रभु बसता है।वरन इसलिए कि उसमें अन्य बालकों की अपेक्षा वहां उसके अंदर भावनाएं ज्यादा थीं।वह में आत्मा का प्रकाश तेजी से प्रकाशित होने की संभावनाएं छिपाए था।वह मानसिक रूप से बिल्कुल तैयार था। फिर वह40 साल बाद वहां नजर आता है।पुरातत्व विभाग कहता है कि वह लगभग10 साल से 40 साल तक कश्मीर में रहा।सूली लगने के बाद फिर वह कश्मीर में। हम सब के अंदर सम्भावना छिपी है-परमात्मा होने की।आध्यत्म की गली में आत्मा ही महत्व पूर्ण है।प्राथमिकता आत्मा की है। वही है जब तक अंदर, तब तक ये हाड़ मास शरीर है।और 99.08 प्रतिशत लोग को प्राथमिकता वह नहीं है। जब एक प्रतिशत से भी कम लोग आज कोरो-ना संक्रमण के कारण मृत्यु के गुफा में समा गए तो इतना कोहराम व व्यवस्था है।यदि ये प्रतिशत और बड़ा तो क्या होगा? हमारे कुकृत्य अब भी  किधर है। हम घर के अंदर होने के साथ अपने अंदर नहीं जा सकते। तो प्रकृति के बीच खुले आसमान के नीचे ही भौतिक दीप जलाने के बहाने अन्तरदीप की उपस्थिति का कम से कम विचार ही ले आएं। ये  दीप जलाना हमारे पूर्वजों की यही मनसा छिपाए था। इसे तुम अन्ध भक्ति कहो या मोदी भक्ति।मोदी तो अब है, आर एस एस अब है।जब मोदी न थे, जब आर एस एस न था, तुम भी न थे, तुम्हारी धारणा वाले दल व तुम्हारे आराध्य भी न थे तब भी ये परम्परा थी। समय समय के आधार पर अंधेरों को चीरने की परम्परा में परिवर्तन हुए लेकिन भौतिक अंधेरा चीरने का ही कार्यक्रम न था।

 दीनदयाल उपाध्यय का कहना था नीचे पायदान पर खड़ा व्यक्ति भी व्यवस्था में भागीदार होना चाहिए।जगत में जो भी है, जीवन यात्रा का हिस्सा है,उतार चढ़ाव है।चढ़ाव कैसे हो?सिर्फ अग्रिम बिंदुओं की ओर बढ़ना कैसे हो?जीवन के पथ पर जो हैं उनको साथ साथ ले आगे कैसे बढ़ा जाए?इसके लिए कार्यक्रम चाहिए।


पहले से ही अनेक सन्त उतर  दिशा से विनाश को आने की बात कहते हैं।मलेशिया हो या चीन या इससे भी आगे। नगेटिव पॉजीटिव साथ साथ चलता है।समस्या व समाधान साथ साथ चलता है। उत्तर में वे सूक्ष्म शक्तियां भी बसती है जो आप में, विश्व मे छिपी सम्भावनाओं को उजागर कर सकती है। जब एक प्रतिशत से भी कम लोग अभी कोरो-ना से लोग मृत्यु को प्राप्त हुए हैं तो ये हाल है यदि एक प्रतिशत से ज्यादा ये बढ़ा तो क्या होगा? कमलेश डी पटेल दाजी ने उस दिन अपनी वैश्विक वार्ता में कहा तब सिर्फ वर्तमान बचाव से काम नहीं चलने वाला।हमें आध्यत्म का भी सहारा लेना होगा। हम सिर्फ भौतिकताओं से नहीं हैं।हम अपने तीन रूप स्थूल, सूक्ष्म व कारण तो रखते ही हैं।वैसे हमारी चेतना के अनन्त बिंदु हैं।स्थूल में ,भौतिकता में हमारी एक हद है।एक हद के बाद हम फेल है।हमारा चेतना  जिस बिंदु जिस स्तर पर होता है, वहां से हमारी चेतना भी असफल होने लगती है।इसलिए चेतना को अग्रिम बिंदुओं पर भी पहुंचना आबश्यक है।हमारे समझ की माप हमारे चेतना के वर्तमान बिंदु तक ही होती है।इसलिए सन्तों की वाणियों को भी समझने की जरूरत है।हमारी हद कभी खत्म नहीं होती।अग्रिम परिबर्तन की तैयारी असफल होती है। अग्रिम परिबर्तन की ओर अग्रसर व्यक्तियों का प्रतिशत00 .12 प्रतिशत से आगे बढ़ाना होगा। ईसा मसीह के साथ उस वक्त 12 ही लोग साथ साथ थे लेकिन वह भी में से कुछ धोखेबाज भी।ये हमारी सामजिकता, हमारे सत्तावादियों, पूंजीवाद, जातिवाद, विभन्नता आदि के बीच निम्न स्तरीय है।अनेकता में एकता, विभन्नता एकता, सागर में कुम्भ कुम्भ में सागर, उदार चरितानां तू बसुधैवकुटुम्बकम... आदि का भाव का साक्षी होने की भी जरूरत है।केवल अपने स्थूल या भौतिक उम्मीदों से काम नही चलना है।सूक्ष्म व कारण जगत को भी साक्षी बनाना है।


 आज के दिन 05 अप्रैल 1908 ई0  भारत के पहले दलित उप प्रधानमंत्री बाबू जगजीवन राम का जन्म हुआ था।उनका क्या दोष था?वे प्रधानमंत्री लायक थे?तुम जिस बिंदु पर अपनी चेतना को टिकाए हो उससे आगे ले बिंदुओं पर चेतना को टिकाने वालों का यही कहना है।सभी में  सम्भावनाएं है, हम ये क्यों नहीं देख पाते?आज के ही दिन05 अप्रैल 1930 को महात्मा गांधी अपने समर्थकों के साथ नमक कानून तोड़ने दांडी पहुंचे थे।हम उस वक्त वर्तमान से ज्यादा स्वतंत्र थे।हम सिर्फ नमक के लिए गांव व शहर से बाहर किसी से निर्भर थे।लेकिन आज, आज हम अपने को विकसित मान रहे हैं।सन1947ई0 के बाद अनेक धारणाएं टूटनी चाहिए थी और अग्रिम बिंदुओं पर आनी चाहिए थी लेकिन हमारी धारणाएं गड़बड़ा गयी, धारणाओं की भूमि तक।इसके लिए1945में संयुक्त राष्ट्र संघ व श्रीरामचन्द्र मिशन ठीक करने के लिए आ गया था ।लेकिन हम विश्व सरकार की ओर,मानवता, विश्व बंधुत्व की ओर नहीं बढ़ पाए।हमारा गुटनिरपेक्ष आंदोलन भी कमजोर रहा।


05 अप्रैल 1999ई0 को मलेशिया में हेंड्रा वाय-रस से बचाव के लिए 8लाख 30हजार सुअरों को जान से मारने के अभियान की शुरुआत की गई। आज हम किस हद तक गिर गए हैं?हम ही दोषी हैं कुदरत में खलल के लिए!जब अपने पे आ गयी तो फिर बचाव में उस में खलल?हम कब सुधरेंगे?हम कब  बड़ी लाइन के सामने दूसरी बड़ी लाइन खीच पाएंगे?गुरु नानक ने कहा था-जो विकार हैं, जो प्रतिकूलताएँ हैं... उनके सामने बड़ी लाइन खींच दो।ये विकार ये प्रतिकूलताएँ भी कोई हद रखती होंगी।तुम उस हद के पार निकल जाओ।उस हद पार अन्य हदें कहाँ पर हैं?हमारी स्थूलता में नहीं हमारी भौतिकता में नहीं, हमारे सूक्ष्म प्रबन्धन में।सूक्ष्मतर प्रबन्धन में।हमारे कारण जगत में।


आओ, अंतरदीप जलाएं।सिर्फ बाह्य दीप जलाने से काम नहीं चलने वाला।सिर्फ भौतिक दीप जलाने से काम नही चलने वाला।हमारा परित्राण अंतर दीप जलाने से है। इसलिए सन्तों की सुनों।कबीर की सुन लो या गुरु नानक की सुन लो या  रैदास की सुन लो या श्रीरामचन्द्र फतेहगढ़ की सुन लो.....हमारे वर्तमान वैश्विकमार्गदर्शक हैं-कमलेश डी पटेल दाजी । उनका कहना है कि यदि संक्रमण से मरने वालों की संख्या एक प्रतिशत पार कर गई तो हमारे वर्तमान उपाय ही सिर्फ काम नहीं करेंगे।आध्यत्म को स्वीकार करना होगा। हमारा मित्र या शत्रु सिर्फ अपने आत्मा से दूर होना या न होना है।


आओ आत्मा रूपी दीप को जलाने के प्रयत्न शुरू करें।अनेक सूक्ष्म शक्तियां/दिव्य शक्तियां हमारी मदद को तैयार खड़ी हैं।

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2020

आखिर आपकी नजर में गुलामी क्या है?

आखिर गुलामी क्या है आप लोगों की नजर में?हमारी नजर में गुलामी है-रुका हुआ होना।जैसे कि प्ले/nc/kg में पढ़ने वाला बच्चा प्ले/nc/kg के स्तर से ऊपर न उठ पाए।किसी कारण से उसका अगली क्लास में प्रमोशन हो भी जाता है लेकिन उसका मन व नजरिया प्ले/nc/kg में ही रहे। इसे कहते हैं रुका हुआ या गुलाम या जो अगली क्लास के लिए जो योग्य है लेकिन तब भी उसे अगली क्लास में नहीं पंहुचाया जाता। अनेक जाति मजहब, रीति रिवाज में बंटे होने का मतलब ये नहीं कोई गुलाम हो गया या कोई गुलाम नहीं? हम किस स्तर पर हैं ये महत्वपूर्ण नहीं ,महत्वपूर्ण है कि व्यक्ति की मानसिकता व सामर्थ्य क्या है आगे के स्तरों व बिंदुओं पर पहुंचने की?चेतना व समझ को आगे बढ़ाने की। चोर चोर है ,यह महत्वपूर्ण नहीं।महत्वपूर्ण है कि वह चोरी न करने या करने की मानसिकता बनाये बैठा है। कोई हिन्दू देवी देवता के आगे दीपक ,अगरवत्ती न जला बुद्ध, अम्बेडकर, पटेल आदि की मूर्ति/तश्वीर के आगे दीप, अगरबत्ती जलता है तो क्या?कोई खड़े मूर्ति पर कोई पड़ी मूर्ति पर ?तो फर्क क्या?क्या ये गुलाम नहीं?कोई गणेश की कोई ताजिया की...?क्या ये गुलाम नहीं??अब बात आती है हवन/यज्ञ की ?अनेक चीजें जलाने से वातावरण शुद्ध होता।हां, कॉर्बन नुकसान दायक है।चंदन का तिलक माथे पर लगाने से क्या लाभ है?किसी आयुर्वेद में जाओ तो।अन्ध विश्वास वो है विज्ञान आधारित ज्ञान अनुसार नहीं है।कुछ चीजें ऐसी जरूरी होती है ताकि समाज बंधा रहे, एक जुट हो।बच्चे रेत या मिट्टी के घर बना कर खेलते थे तो इसका मतलब ये नहीं कि ये गलत था।उससे बच्चे समूह में रहना सीखते थे।कर्म कांड महत्वपूर्ण नहीं होता, उस बहाने समाज को आगे के स्तरों व बिंदुओं पर ले जाना महत्वपूर्ण होता है। आदि आदि...

गुलामी है -इच्छओं की जंजीरों में जकड़ जाना।इंद्रियों व हाड़ मास शरीर व शरीरों में ही उलझे रहना।

हमारा सम्मान तभी जब हमारे विचारों व भावनाओं का सम्मान!!हम एक, एक में अनेक... सागर में कुम्भ कुम्भ में सागर!!

शाहजहाँपुर, उप्र की धरती से सन 1945ई0 में श्री रामचन्द्र मिशन की स्थापना के साथ साथ विरासत में हमारे लिए बाबू जी महाराज खजाना छोड़ गए
जिसे सजो कर रखना हमारा मुख्य कर्तव्य है ही हमें उनके सन्देशों को फॉलो भी करना है।
हमारा सम्मान इसी से है।
हमारा लक्ष्य इसी से ही है।
विश्व बंधुत्व, विश्व शांति व मानव कल्याण का रास्ता हमें इसी से ही है।
जो हमें चाहते हैं।वे इसे चाहेंगे।
जो हमारा सम्मान करते है वे इसका सम्मान करेंगे।
हम सब एक है।
भेद भाव भुला हमें मानवता व आध्यत्म के लिए एक साथ चल पड़ना चाहिए।
विश्व शांति व कल्याण इसी से है। सभी समस्याओं का हल इसी से ही है।
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BABUJI MAHARAJ – A PHENOMENAL LEGACY

As it happens with Great Saints, Rev. Babuji Maharaj has influenced many organizations on the Spiritual Path. Even though I follow and practice in the Sahaj Marg tradition under the lineage of Chariji/Daaji, I have personally referred to content on websites of sister organizations and found it useful in deepening understanding of Babuji’s literature and work.

It feels like it will take generations to read, decipher and internalize His body of work – as it is so vast and deep. Here is a collection for anyone interested.

www.srcm.org – Our very own Sahaj Marg website is a treasure trove of content on Babuji.

http://www.babujishriramchandra.com/en/ - A phenomenal website which contains many of Babuji’s Messages, Q&A, Audio, Letters and Selective Q&A.

http://www.saintkasturi.com/publications-11/ - Excellent content and works of Saint Kasturi

http://www.sriramchandra.org/Books/BooksList.htm – Under the lineage of Dr. K C Varadachari and Dr. KC Narayana some of the Publications here are wonderful.

http://www.sriramchandra.in/index.php – Pranahuti Aided Meditation under the lineage of Dr. K C Varadachari

http://www.babuji.org.in/about-us.asp – Society for Babuji’s Mission

https://malik-e-kul.org/ - Setup by disciples of Late Rev. Raghavendra Rao.

http://meditation7yoga.org/ - Meditation, Yoga and Spiritual Society

Sharing only with the intent that everyone can benefit from His vast legacy and ocean of knowledge!

हमारा सम्मान हमारे विचारों को मानने से है।

हमारे पैर छूने आदि से नहीं।हम धरती पर कब रहेंगे?हमारे विचार व भावनाएं रहेंगी।
Heartfulness यानी कि हम, हम सब!विश्व बंधुत्व.... सागर में कुम्भ कुम्भ में सागर..!!!!




गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

हर देश ने सन्त दिए हैं ,उन्हीं सन्त के सहारे उन देश क्रांति ले पँहुचने की जरूरत है,बुनियाद रखी जा चुकी है।....अशोकबिन्दु भैया

शिक्षा का पहला बिंदु::उपनयन जो नजरिया से संसार की ओर नहीं गुरु की ओर!इसी बिंदु पर अभी हम टिके हैं, वैचारिक क्रांति!!आचरण क्रांति पर लोग क्यों फेल हुई है?क्योंकि वे वे इस पहले बिंदु पर मन से न थे।नजरिया से न थे।
जैसा नजरिया वैसी बरक्कत!!!
हमारा हेतु अभी उपनयन का है।वैचारिक क्रांति का है।
समाज के ठेकेदार है, विभिन्न पदों पर बैठे लोग है, जाति पर आधारित उच्चता को जीने वाले लोग हैं, चुनाव के वक्त अनेक प्रत्याशी है, चुनाव जीतने वाले अनेक जन प्रतिनिधि है, अनेक पुरोहित, मौलबी है..... लेकिन???सब फेल???जिस स्तर पर जाकर जो उपनयन जो वैचारिक क्रांति जो नजरिया क्रांति होना चाहिए .....वह नहीं है।बुद्धि, दिमाग, धन, पद, जाति, शरीर आदि से उच्च होने से जीवन नहीं बदलता..... हम आप भ्रम में हैं।।
ये जन्म शायद इस क्रांति में ही बीत जाए लेकिन ये क्रांति चलनी है।

नया पन्थ है-सिक्ख पन्थ!खालसा पंथ!!!! जीवन पथ का नया चरण.... आगे का चरण....!!?? पूरे विश्व के सन्तों को सीमेंट कर चलने वाला है।हर देश मे सन्त दिए है, उन देशों में उन्हीं के सहारे क्रांति चमकानी है।बुनियाद रखी जा चुकी है।

अमृतमयी वर्षा / प्राणाहुति हर वक्त है। आत्मा रूपी किरण परम् आत्मा रूपी सूरज से हर वक्त प्राण पाती है। जिसको हम अवसर दें:::: अशोकबिन्दु भैया

अमृतमयी वर्षा
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     वर्तमान की तमाम समस्याएं संसार के परिवर्तन के लिए है। लोगों की मानसिकता बदलेगी और वे सभी आध्यात्मिक हो जायेंगे।जो मै आपको बता रहा हूं, वह मैंने ' सत्य का उदय ' में लिखा है। सभ्यता की नींव हड्डियों और अस्थियों से उत्पन्न होगी और इसका मतलब है बहुत अधिक रक्त पात।

      इस लिए हर मुसीबत और कठिनाई किसी न किसी भलाई के लिए ही आती है और इससे कुछ अच्छा ही होता है क्योंकि धर्मनिष्ठा आती है।हर अशांति के बाद धर्मपरायणता आती है।

       मै आपसे इस लिए कह रहा हूं क्योंकि आप आध्यात्मिक है। मान लीजिए आप को बुखार हो गया है, और दो- तीन दिन बाद जब आप विस्तर से उठते हैं और खुद पर ध्यान देते हैं तो आप खुद में बहुत हल्कापन महसूस करेंगे। यह इस लिए क्योंकि संस्कार निकल गये है और शरीर में जो जहर था उसे ईश्वर ने निकाल दिया है। प्रकृति आप को वैसा देखना चाहती है जैसे आप यहां ( इस धरती पर) पहली बार आये थे,तब थे, - यानी पवित्र । ईश्वर में पवित्रता है। इस लिए वह चाहता है कि हम उतने पवित्र बने रहें जैसे हम पहली बार जन्म लेते समय थे। दु:ख तकलीफें इसी कारण से है। दु:ख तकलीफों का उद्देश्य वहीं शांतिमय स्थिति लाना है।

              बाबूजी महराज
रामचन्द्र की सम्पूर्ण कृतियां भाग-५पृ-९१-९२

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अमृतमयी वर्षा हर वक्त है।
सवाल उठता है हमने उसको अबसर कब दिए है हैं?
प्राणाहुति हर वक्त है, हमने उसको अवसर कब दिये हैं?
हम तो आत्मा रूपी किरण हैं जो हर वक्त परम् आत्मा रूपी सूरज से प्राण ऊर्जा प्राप्त है।


जो हम कर रहे हैं, उसके विपरीत भी है।जब हम असन्तुष्ट होंगे, विकार युक्त होंगे तो वही विपरीत हमारी ढाल होगा।सन्तुलन करना सीखो।...अशोकबिन्दु भैया

भूख है तो भोजन भी है।प्यास है तो पानी भी है।कोई समस्या है तो निदान भी है।भीड़ में यदि हम विकार युक्त हुए हैं तो उसका अपोजिट एकांत भी निदान युक्त भी है। ग्रंथो में सन्तुलन/तटस्थता/साम्य की बात मिलती है।अति ही जहर है। ब्रिटेन में जब बैठे बैठे कम्प्यूटर पर कार्य करते विकार पैदा होने लगे तो खड़े खड़े अब काम करने लगे।हम जिस हाल में जीते है,उसका नगेटिव भी है। अति  किसी की ठीक नहीं। आज जो तुम्हारे विपरीत खड़ा है वह भी जीवन का हिस्सा है।आज जो तुम्हें दिखाई नहीं दे रहा है, उसके विपरीत भी कुछ है।स्थूल है तो सूक्ष्म भी है।धरती पर कुछ भी निरर्थक नहीं है।
गीता के विराट रूप, श्री अर्द्ध नारीश्वर अवधारणा,सात शरीर व कुंडलिनी जागरण, अनन्त यात्रा आदि को  समझने की जरूरत है।आत्मा व आत्मा की यात्रा को समझने की जरूरत है। हाड़ मास शरीर के परे, बुद्धि से परे भी कुछ है।जो अनन्त प्रवृतियां रखता है।जो अनन्त  प्रवृतियां रखता है,उसके सामने सीमित प्रवृत्तियों धारक की क्या औकात? समझो तभी न@अभी तक हम जो जिए हैं वह सीमित प्रवृतियों तक का ही है।हमारे हाड़ मास शरीर, बुद्धि, दिमाग, इंद्रियों, हमारे कर्म कांडों आदि को एक हद है।जिसकी सीमित हद है,तो उसमें लीन रहते कब तक काम चलेगा?तुम्हारे दिमाग ने विकास को कुदरत के विनाश पर ला खड़ा किया है,लेकिन कब तक?कुदरत का एक धक्का बर्दास्त न होगा।

भाषणबाजी, युद्ध आदि से ही दुनिया सुधरने को होती तो सुधर चुकी होती। गांधी ने कहा है-वातावरण महत्वपूर्ण है।वातावरण ऐसा हो कि कोई गुंडा अपनी मनमानी न कर पाए।कोई मन मानी न कर पाए। लेकिन सत्तावाद, पूंजीवाद, जातिवाद, पुरोहितबाद.... कोई भी वाद दुनिया का भला नहीं कर सकता।

बुधवार, 1 अप्रैल 2020

ऋषि व सन्त परम्परा बनाम धर्म....... अशोकबिन्दु भैया

 कुदरत को वर्तमान मे सुकून है।
 ऐसा भी है जिससे हम भटक गए थे वह भी याद आने लगा।
 लेकिन आदतें इतनी जल्द खत्म नहीं होती।

लोग परिवर्तन को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं।


लोगों की धारणाएं कमजोर तो पड़ी हैं लेकिन खत्म नहीं।

हम तो ऋषि व सन्त परम्परा को जीवन के लिए उचित मानते हैं लेकिन आज कल के साधु, सन्त, ब्राह्मण, मौलबियों, पुरोहितों आदि से हम तो सन्तुष्ट हैं नहीं ,चाहें कोई हो।

धर्म, आध्यत्म, मानवता, जीवन आदि किसी जाति, मजहब, संस्था आदि का मोहताज नहीं है।

धरती पर सबसे खतरनाक प्राणी है-मनुष्य। क्योकि मनुष्य वह ही है जिसमें मनुष्यता है।

मनुष्यता, धर्म, अध्यात्म के उदाहरण 100 में 01 प्रतिशत भी हमें नहीं दिखाई देते।

हिन्दमहाद्वीप पर आर्ष धर्म है ..दया, विनय आदि...

 याचना का अनोखा पर्व::पर्यूषण पर्व!!
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हम तो यही कहते रहते हैं-सबका धर्म/धम्म एक ही है. मनु वादियो की मनु स्मृति भी समाज के धर्मो से हट कर धर्म बताती है.योग व योग अंग को भी हम धर्म का ही हिस्सा मानते है.धर्म के दस लक्षण बताये गए हैं.

पं. हरिप्रसाद उपाध्याय खतिवडा

धृति,क्षमा,दमाे स्तेयम्,साैचम्, इन्द्रियनिग्रह,
धी, विद्या, सत्यम, अक्राेध दशकम् धर्मलक्षणम् ।

मनुस्मृतिः
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धृति क्षमा दमोस्तेयं, शौचं इन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो, दसकं धर्म लक्षणम्॥

धर्म का दश लक्षण छन् - धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न गर्नु, स्वच्छता, इन्द्रियहरू वश गर्नु, बुद्धि, विद्या, सत्य र क्रोध न गर्नु ( अक्रोध ) ।

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धृति क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रयनिग्रह:,
धीर्विधा सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम|
(मनु स्मृति 6/12)
१. धृति-सुख-दुःख, लाभ-हानि, मान-अपमान में धैर्य रखना.
२. क्षमा-सहन्त्क, अपने प्रति किये गए अपमान करने वाले को भी शरीर में सामर्थ्य होने पर भी दण्ड देने की इच्छा न करना.
३. दम-मन की वृतियों का निग्रह करना अर्थात भावनाओं को दबा कर रखना और अच्छे कार्य में लगाना.
४. अस्तेय-चोरी, घूसखोरी से त्याग, अन्याय से धनादि ग्रहण न करना.
५. शोचम-शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक पवित्रता बनाये रखना, शुद्ध सात्विक भोजन आदि ग्रहण करना.
६. इन्द्रिय निग्रहः-अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना, उनको पापकर्म में घूमने को स्वतन्त्र न छोड़ना.
७. धी-बुद्धिपूर्वक कार्य करना, मांस-मदिरा, तम्बाकू व दुष्टों का त्याग करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना.
८. विद्या-जिससे पदार्थों का यथार्थ स्वरूप बोध होवे वह विद्या है अत: सभी प्रकार कि विद्या सम्पादन करने के विषय में प्रयत्न करते रहना.
९. सत्य-सत्य और असत्य को जानकार तथा मन, वचन और कर्म में एकता स्थापित कर सत्य मार्ग का अनुसरण करना.
१०. अक्रोध:-क्रोध के वशीभूत होकर कार्य न करना.
         यही दस लक्षण वास्तविक धर्म है. किसी भी पंथ अथवा सम्प्रदाय में ऊपर लिखी बातों का विरोध नहीं है. अगर हम वास्तविक धर्म जो एक है, शाश्वत है, उसको अपनाएंगे तो हम अपने घर, बिरादरी, समाज, व राष्ट्र व सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण और उपकार में सहयोगी होंगे.



धर्म व आध्यत्म का सम्बंध हम कर्मकांड, जातिवाद,मजहबवाद, धर्मस्थलवाद आदि से नहीं मानते।


ऋषि व सन्त परम्परा से हट कर हैं हम सब की परम्पराए।


पौराणिक कथाएं तो देव परम्परा पर ही संदिग्धता प्रकट करती हैं।

उनके श्रेष्ठता की भी एक हद है।
असुर का मतलब  भी सिर्फ सुर से नीच नहीं लगाया जा सकता।

जहां भेद की संभावनाएं हैं-वहाँ पूर्णता नहीं।अल/all नहीं।
सागर में कुम्भ कुम्भ में सागर की स्थिति नहीं।

हमें गुरु नानक, कबीर, रैदास, श्रीरामचन्द्र फतेहगढ़ आदि पर नाज है।रसखान, रहीम पर नाज है।

सन्त परम्परा में अपना कोई दुश्मन नहीं होता न कोई अपना दोस्त।