बुधवार, 1 अप्रैल 2020

ऋषि व सन्त परम्परा बनाम धर्म....... अशोकबिन्दु भैया

 कुदरत को वर्तमान मे सुकून है।
 ऐसा भी है जिससे हम भटक गए थे वह भी याद आने लगा।
 लेकिन आदतें इतनी जल्द खत्म नहीं होती।

लोग परिवर्तन को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं।


लोगों की धारणाएं कमजोर तो पड़ी हैं लेकिन खत्म नहीं।

हम तो ऋषि व सन्त परम्परा को जीवन के लिए उचित मानते हैं लेकिन आज कल के साधु, सन्त, ब्राह्मण, मौलबियों, पुरोहितों आदि से हम तो सन्तुष्ट हैं नहीं ,चाहें कोई हो।

धर्म, आध्यत्म, मानवता, जीवन आदि किसी जाति, मजहब, संस्था आदि का मोहताज नहीं है।

धरती पर सबसे खतरनाक प्राणी है-मनुष्य। क्योकि मनुष्य वह ही है जिसमें मनुष्यता है।

मनुष्यता, धर्म, अध्यात्म के उदाहरण 100 में 01 प्रतिशत भी हमें नहीं दिखाई देते।

हिन्दमहाद्वीप पर आर्ष धर्म है ..दया, विनय आदि...

 याचना का अनोखा पर्व::पर्यूषण पर्व!!
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हम तो यही कहते रहते हैं-सबका धर्म/धम्म एक ही है. मनु वादियो की मनु स्मृति भी समाज के धर्मो से हट कर धर्म बताती है.योग व योग अंग को भी हम धर्म का ही हिस्सा मानते है.धर्म के दस लक्षण बताये गए हैं.

पं. हरिप्रसाद उपाध्याय खतिवडा

धृति,क्षमा,दमाे स्तेयम्,साैचम्, इन्द्रियनिग्रह,
धी, विद्या, सत्यम, अक्राेध दशकम् धर्मलक्षणम् ।

मनुस्मृतिः
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धृति क्षमा दमोस्तेयं, शौचं इन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो, दसकं धर्म लक्षणम्॥

धर्म का दश लक्षण छन् - धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न गर्नु, स्वच्छता, इन्द्रियहरू वश गर्नु, बुद्धि, विद्या, सत्य र क्रोध न गर्नु ( अक्रोध ) ।

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धृति क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रयनिग्रह:,
धीर्विधा सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम|
(मनु स्मृति 6/12)
१. धृति-सुख-दुःख, लाभ-हानि, मान-अपमान में धैर्य रखना.
२. क्षमा-सहन्त्क, अपने प्रति किये गए अपमान करने वाले को भी शरीर में सामर्थ्य होने पर भी दण्ड देने की इच्छा न करना.
३. दम-मन की वृतियों का निग्रह करना अर्थात भावनाओं को दबा कर रखना और अच्छे कार्य में लगाना.
४. अस्तेय-चोरी, घूसखोरी से त्याग, अन्याय से धनादि ग्रहण न करना.
५. शोचम-शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक पवित्रता बनाये रखना, शुद्ध सात्विक भोजन आदि ग्रहण करना.
६. इन्द्रिय निग्रहः-अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना, उनको पापकर्म में घूमने को स्वतन्त्र न छोड़ना.
७. धी-बुद्धिपूर्वक कार्य करना, मांस-मदिरा, तम्बाकू व दुष्टों का त्याग करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना.
८. विद्या-जिससे पदार्थों का यथार्थ स्वरूप बोध होवे वह विद्या है अत: सभी प्रकार कि विद्या सम्पादन करने के विषय में प्रयत्न करते रहना.
९. सत्य-सत्य और असत्य को जानकार तथा मन, वचन और कर्म में एकता स्थापित कर सत्य मार्ग का अनुसरण करना.
१०. अक्रोध:-क्रोध के वशीभूत होकर कार्य न करना.
         यही दस लक्षण वास्तविक धर्म है. किसी भी पंथ अथवा सम्प्रदाय में ऊपर लिखी बातों का विरोध नहीं है. अगर हम वास्तविक धर्म जो एक है, शाश्वत है, उसको अपनाएंगे तो हम अपने घर, बिरादरी, समाज, व राष्ट्र व सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण और उपकार में सहयोगी होंगे.



धर्म व आध्यत्म का सम्बंध हम कर्मकांड, जातिवाद,मजहबवाद, धर्मस्थलवाद आदि से नहीं मानते।


ऋषि व सन्त परम्परा से हट कर हैं हम सब की परम्पराए।


पौराणिक कथाएं तो देव परम्परा पर ही संदिग्धता प्रकट करती हैं।

उनके श्रेष्ठता की भी एक हद है।
असुर का मतलब  भी सिर्फ सुर से नीच नहीं लगाया जा सकता।

जहां भेद की संभावनाएं हैं-वहाँ पूर्णता नहीं।अल/all नहीं।
सागर में कुम्भ कुम्भ में सागर की स्थिति नहीं।

हमें गुरु नानक, कबीर, रैदास, श्रीरामचन्द्र फतेहगढ़ आदि पर नाज है।रसखान, रहीम पर नाज है।

सन्त परम्परा में अपना कोई दुश्मन नहीं होता न कोई अपना दोस्त।






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