सोमवार, 31 अगस्त 2020

पार्थसारथी राजगोपालाचारी जी कहते हैं-"प्रसाद एक सिद्धांत" ::अशोकबिन्दु

प्रसाद एक सिद्धांत है-पार्थसारथी राजगोपालाचारी!


"जो चीज प्रसाद में आ जाती है वही चीज हमें अपने जीवन में लानी है जब वह विशेष चीज हम अपने जीवन में ले आते हैं तो हमारा खुद का अस्तित्व समाप्त हो जाता है वही हमारी जगह ले लेता है । एक तरह से देखा जाए तो हमारी मृत्यु हो जाती है ।मेरा मतलब यहां शारीरिक मृत्यु से नहीं बल्कि वास्तविक मृत्यु से है जिसमें खुद के लिए हमारा अस्तित्व समाप्त हो जाता है"


एक पुस्तक है- " प्यार और मृत्यु", जिसमें पार्थसारथी राजगोपालाचारी के प्रवचन संकलित हैं। इसमें पृष्ठ 124 पर लिखा गया है -.......अगर प्रेम संबंध में पवित्रता की भावना है तो जब तक यह पवित्रता दो व्यक्तियों के मध्य एक स्थापित तथ्य बनी रहती है उस प्रेम संबंध को दूषित नहीं किया जा सकता। उस पवित्र वातावरण में वे युगल वैवाहिक जीवन के समस्त पहलुओं के साथ स्वयं को संयुक्त करते हैं ।यह तो तय है पवित्र भावना के साथ जो भी कर्म किया जाता है वह पवित्र ही होता है। उन कर्मों के फल भी पवित्र ही होते हैं ।अगर प्रसाद खाकर हमारा स्व रूपांतरित हो जाता है तो हमें यह सोचना चाहिए की इसमें ऐसा कौन सा तत्व है ?जबकि प्रसाद में तो केवल कुछ किसमिस ,कुछ मिठाई या कुछ चॉकलेट ही रहता है ।आखिर किशमिश में ऐसी कौन सी बात है जो हमें प्रसाद बना देती है । कुछ न कुछ तो है ही और अगर आपने प्रसाद की महत्ता समझ ली तो यह निश्चित है कि आप उसे भूमि पर नहीं गिराएंगे और न ही इसे पैरों के नीचे लेंगे। अब जो चीज प्रसाद के साथ में आ जाती है वही चीज हमें अपने जीवन में लानी है ।जब वह विशेष हम अपने जीवन में ले आते हैं तो हमारा खुद का अस्तित्व समाप्त हो जाता है वही हमारी जगह ले लेता है । एक तरह से देखा जाए तो हमारी मृत्यु हो जाती है । मेरा मतलब यहां शारीरिक मृत्यु से नहीं बल्कि वास्तविक मृत्यु से है जिसमें खुद के लिए हमारा अस्तित्व समाप्त हो जाता है।

हम (अशोकबिन्दु) इसे पढ़ते पढ़ते चिंतन में खो गए । न जाने कितनी बार हमें वही पुरानी बातें दोहराने होती हैं ।बाबूजी महाराज ने भी कहा है जीवन में हमें बार-बार जो दोहराना चाहिए हम वह नहीं दोहराते हैं । अच्छी बातें जो हमारा रूपांतरण करती हैं ।उनको बार-बार दोहराना चाहिए । कहने के लिए अनेक लोग मिल जाएंगे कि हम धार्मिक हैं ,हम भक्त हैं ,हम ईश्वर को मानते हैं लेकिन उनकी समझ क्या है ?उनका नजरिया क्या है? हमें बार-बार उन बातों को दोहराना ही चाहिए जो हमारे रूपांतरण में सहायक है । इसलिए हम अभ्यासी हैं हम प्रयत्न पन्थ/अभ्यास पन्थ को स्वीकार किए हैं तो मैं कह रहा था कि कुछ बातें हम अनेक बार दोहराते हैं ।आज फिर दोहरा रहा हूं । किसी ने कहा है - आचार्य है मृत्यु। किसी ने कहा है- योग का पहला अंग यम है मृत्यु । कोई कहता है इस धरती पर वह व्यक्ति बेकार है जिसके जीवन में ऐसा कोई लक्ष्य नहीं जिसके लिए वह मर न सके । आखिर यह सब क्या है? यह मृत्यु क्या है? इसको समझने की जरूरत है। कोई कहता है कि मैं महामृत्यु सिखाता हूं । इसका मतलब क्या है ?


गीता में अनेक शब्द ऐसे आए हैं जो जीवन के लिए बड़े उपयोगी हैं । जैसे कि तटस्थता ,शरणागति, समर्पण, योग ,क्षेत्रज्ञ ,अनुराग...... आदि। एक भाष्यकार तो अर्जुन को अनुराग कहकर पुकारते हैं। जहां अनुराग है ,जहां प्रेम है वहां अंधभक्ति है। यह अंधभक्ति क्या है? अंधभक्ति यह है कि हमें जिस से प्रेम है उसमें खो जाना ,उसमें लीन हो जाना । अपनी इच्छाओं का खत्म हो जाना । अहंकारशून्यता आ जाना..... आदि आदि।

बात हो रही थी - "प्रसाद एक सिद्धांत " है। आखिर "प्रसाद का सिद्धान्त" क्या है?
दर्शन को अनेक शब्दों व वाक्यों में उलझा दिया गया है। हम अनेक बार कह चुके हैं की जगत में जो भी कुछ है उसके तीन स्तर हैं स्थूल सूक्ष्म और कारण यह तीन स्तर भी अर्थात प्रत्येक स्तर पर अनेक स्तर हैं और आगे चलकर तो जहां सनातन है जहां निरंतर है वहां तो अनंत प्रवृतियां हैं ऐसे में भी अभी हम सिर्फ स्थूल रूप से ही या फिर स्थूल रूप में भी निम्न स्तर पर टिके हुए हैं बाबूजी महाराज ने कहा है यह हमारी भूल है कि हम समझते हैं जैविक क्रमिक विकास में मानव पराकाष्ठा है लेकिन ऐसा नहीं है।




शनिवार, 29 अगस्त 2020

मोहर्रम हमारा मोहन/परम् आत्मा में रम कर मृत्यु तक को गले लगा लेना:अशोकबिन्दु

 किसी ने कहा है-उसका जीवन बेकार जो किसी लक्ष्य के लिए मरने को तैयार नहीं।




रविवार, मु010 बं 13.

ताजिया/मुहर्रम,

हिजरी1441-42!


हजरत मो0 हुसैन की याद करते हुए!

हम बता दें एक समय वह भी था जब दुनिया कम ही शरहदों में विभक्त थी।कोई भी कहीं भी जा सकता था।दुनिया के सभी सन्त एक दूसरे का सम्मान करते थे।

कर्बला की लड़ाई में 500 देवल ब्राह्मण मो0हुसैन की मदद के लिए गए थे। मुंशी प्रेम चन्द्र ने भी उसे काफी याद किया है।


इसके साथ ही हम राजा बलि के दान, त्याग, कर्ण के दान त्याग, गुरु गोविंद सिंह के त्याग व संघर्ष को याद करते हैं।


हम किसी जाति-मजहब से परे हैं।जब हम कुदरत, ब्रह्म के दरबार में होते हैं। तब हम सिर्फ हाड़ मास शरीर, आत्मा होते हैं।


अर्जुन पूछते हैं-कर्म क्या है?श्री कृष्ण कहते हैं - यज्ञ।यज्ञ के अनेक रूप है।अनन्त यात्रा में,प्रकृति में कुछ है जो स्वतः है निरन्तर है।वही हमारा यज्ञ है, मिशन है, अभियान है।जिसमें हर पल मृत्यु है, हर पल जन्म है। निरन्तर परिवर्तन है। क्रमिक विकास में हमारा होना जीवन की पराकाष्ठा नहीं है। विकासशीलता है, विकसित नहीं।


उसी में न्योछावर हो जाना यम है।योग(अल/आल/all/यल्ह/एला/इला/सम्पूर्णता/आदि) में आठ चरण/योगांग है न। हर चरण में अनेक स्तर है। पहला चरण है -यम।यम को हम मृत्यु कहते हैं। जो यज्ञ करते है।वे व हम अभी इसको ही स्वीकार नहीं कर पाए है। यम दूत हैं-सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह व ब्रह्मचर्य। इसको हमें करीब से देखा है। लेकिन अभी जीता नहीं।  सर्च करें:

www.ashokbindu.blogspot.com/अशोकबिन्दु:दैट इज...?!पार्ट10 ! जीवन सिर्फ हमारे हाड़ मास शरीर, स्थूलताओं तक ही सीमित नहीं। मो0साहब ने कहा है-हर स्वास का कारण वह है, हर स्वास उसकी है।हर स्वास में वही होना जीवन है।

सहज मार्ग में हम उपनिषद के-'प्राणस्य प्राण' पर ध्यान देते हैं। सूफी संतों में इससे पूर्व राजा दशरथ व जनक तक प्राणाहुति/दम भरने की क्षमता रखने के गुरुत्व में प्रशिक्षण की व्यवस्था थी।जो क्षमता हजरत किबला मौलवी फजल अहमद खान साहब रायपुरी सेउनके शिष्य श्रीराम चन्द्र,फतेहगढ़ को प्राप्त हुई।जिसका विकास शाहजहाँ पुर के बाबूजी महाराज ने किया। प्राणाहुति का ऐसा चमत्कार हमने कहीं न देखा। वर्तमान में हमारे वैश्विक मार्गदर्शक है-कमलेश डी पटेल दाजी।जो इसकी  व्यवस्था देख रहे हैं।


आज हम मो0हुसैन की कुर्बानियों के साथ साथ अतीत के सभी महापुरुषों की कुर्बानियों को याद करते हैं।

सभी को अन्तरनमन!!

#अशोकबिन्दु





बुधवार, 26 अगस्त 2020

मानव से महामानव की ओर::अशोकबिन्दु

 "यद्यपि मैं पिछले 25 वर्षों से बोलता आ रहा हूं, मैंने पाया है कि जब हम बोलते हैं तो प्रायः जो बोला जाता है वह ऐसे कानों तक पहुंचता है जो उसे अनसुना कर देते हैं ।कम से कम उनमें से अधिकांश ।और कुछ ऐसे कानों तक पहुंचता है जो सुनने के तो इच्छुक हैं लेकिन समझते नहीं। देखिए यदि एक या दो लोग भी ऐसे हैं जिन्होंने सुना है समझा है आत्मसात किया है तो वह निश्चय ही मेरे ऐसे लंबे जीवन का पारितोषिक होगा। जिसमें मैंने अपने मालिक की शिक्षकों और उनके द्वारा दिए गए अनुभवों को व्यक्त करने का प्रश्न किया है।"


श्री पार्थ सारथी राज गोपालाचारी जी,

अंधकार में प्रकाश,प्रस्तावना

पुस्तक-'वे, हुक्का और मैं'

10 मार्च,2007ई0



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विश्व शिक्षक दिवस को 25 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं।

हमारे द्वारा शिक्षण कार्य करते हुए 25 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं।


ऐसा हम भी महसूस करते रहे हैं। हम सुनील वाजपेयी, अरविंद मिश्रा से कहते आये हैं कि यदि कोई दो भी अपने जीवन के लिए हमें धन्य मानता है तो हम उत्साहित होंगे। हमने महसूस किया है कि विभिन्न संस्थाओं के सत्संगों,कथा वाचकों के प्रवचनों आदि में उमड़ी भीड़ में से कितने जागे हुए हैं? रात्रि में जागरण कराने वालों में कितने जागे हुए है ? रात्रिभर जागरण में जागने वाले जीवन में कितना जागे हुए हैं?ऐसा ही हम विद्यार्थियों, शिक्षकों, शिक्षितों के सम्बंध में भी कहते हैं?कितने ज्ञान की धारा में बह रहे हैं? हमें प्रति दिन दो लोग ध्यान से सुनते हैं, हम उससे उत्साहित हैं लेकिन जिधर भीड़ दौड़ी चली जा रही है सुनने को ,उधर से कितना सुना जा रहा है?कितनों के द्वारा सुना जा रहा है?


हमारे आदि ऋषियों, नबियों का जो मकसद था-पशु मानव को मानव बनना, मानव से महामानव बनना, देव मानव बनना.....ऐसा कौन चाहता है?


मंगलवार, 18 अगस्त 2020

आस्तिकता में नास्तिकता व हमारी प्रार्थनाएं::अशोकबिन्दु

 हमारी इच्छाएं हमारी आस्तिकता की पहचान नहीं नास्तिकता की पहचान हैं।

आत्मा है आत्मीयता ,आत्मा है वह स्थिति जो हमें अनन्त का ।परम् का अहसास कराती रहती है। वह तो सागर में लहर की भांति होती है।सागर वह ,वह में सागर। उसकी सागर में डूब ही प्रेम है। संसार की वस्तुओं से प्रेम प्रेम नहीं काम है, लोभ है, लालच है।आस्तिकता में प्रेम सिर्फ अंतर स्थिति है।जगत में तो-न काहू से दोस्ती न काहू से बैर।


हम आराध्य के समक्ष की हेतु में खड़े हैं?सांसारिक इच्छाओं की खातिर। प्रेम तो अंधा है, मौत भी सामने आ जाए तो भी प्रेम है।


प्रेम हमारेसूक्ष्म, कारण, परम् आत्मा, आत्म गुणों में डूब है।

ऐसे में कैसी प्रार्थनाएं?


ऐसे में तो बाबर की प्रार्थना ठीक है, यदि बेटे से प्रेम है तो?मेरी जान लेले लेकिन हुमायूं को बचा दे।


हमारी प्रार्थनाएं अज्ञानता से उपजी हैं।

कोई कहता है, हे मालिक बरसात रुक जाए।एक कहता है, माको लिक ठीक।और बरसा।बेचारा मालिक को किस उलझन में डालते हो?


मालिक को मन्दिर में जा चढ़ाए जा रहे हो, चढ़ाए जा रहे हो?मालिक के दर पर पर ढेर ही ढेर।बेचारे क्या करते होंगे?



सहज मार्ग में प्रार्थना मालिक से लिंक के लिए है, एक स्थिति है।


हे नाथ!

तू ही मनुष्य जीवन का वास्तविक ध्येय है।

हम अपनी इच्छाओं के गुलाम हैं,

जो हमारी उन्नति में बाधक है।

तू ही एक मात्र ईश्वर व शक्ति है

जो हमें उस लक्ष्य तक ले चल सकता है।


हमारे लिए इस से बेहतर अन्य प्रार्थना क्या हो सकती है?शरणागति में, समर्पण में, प्रेम में अन्य प्रार्थनाओं का क्या महत्व? वे नास्तिकता का ही परिचय हैं।

#अशोकबिन्दु



बात बहुत दूर तक जाती है, अनेक जन्मों तक भी।संस्कार बन कर भाग्य बन कर::अशोकबिन्दु

 कभी कभी हम महसूस करते हैं कि ध्यान हमें जितना ऊंचा बनाता है, सहस्राधार से भी ऊपर अनन्त यात्रा का साक्षी! उतना ही नीचा भी ऊर्जा को पहुंचा देता है, मूलाधार की निम्न निकृष्ट दशा पर ! ऐसे में अपने आराध्य के प्रति शरणागति, समर्पण व हालातों के प्रति तटस्थता आवश्यक है।  जब तक हम इस शरीर में हैं, गिरने की भी सम्भावनाएं हैं।कुछ चीजें ऐसी हैं जो समाज,समाज के धर्मों, जातियों,संस्थाओं, शासन वर्ग, सरकारी कर्मचारियों ,पूंजीपतियो,पुरोहितों के लिए गलत होती हैं लेकिन वे ग्रंथों, सन्तों की वाणियों, इतिहास की चमक में हमें सम्मान दिलाती है। शिक्षक, शिक्षित की नजर में भी नहीं।हम अकेले हैं इसका मतलब ये नहीं है कि हम गलत हैं। देखा गया है शासन, समाज ने किसी व्यक्ति को गलत साबित कर दिया, उसे जहर दिया गया, सूली भी दी गयी लेकिन समय ने करवट बदली ,जिसको झाड़ समझ कर किनारे कर दिया गया वह हीरो बन गया। जिंदगी यहीं अभी जीवन यापन करने, हाड़ मास शरीर सिर्फ इसी हाड़ मास शरीर तक सीमित नहीं नही है, सूक्ष्म जगत है, कारण जगत है आगे भी अनेक जगत हैं।हर जगत में अनेक स्तर है।आप समझते होंगे कि हमने अमुख अमुख व्यक्ति से पल्ला झाड़ लिया लेकिन ऐसा इन्हीं।...और हर खामोशी या हर वार्ता में हमें गिरने का मतलब  तुम्हारी जीत नहीं।बात बहुत दूर तक जाती है।संस्कार व भाग्य बन अनेक जन्मों तक पीछा करती है।


 अहंकार शून्य होना आवश्यक है।निरा प्रेम में।प्रेम में तो बड़ी से बड़ी ऋणात्मकता भी झिल जाती है। सन्त तुलसी के अनुसार यश अपयश की भी चिंता नहीं, मीरा के अनुसार कुल मर्यादा ,लोक मर्यादा की भी चिंता नहीं। ऐसे में सामने अमीर हो गरीब, जन्म जात उच्च हो या निम्न, अधिकारी हों हो या भिखारी, राजा हो या रंक... आदि आदि कोई मायने नहीं रखता।वहां तो एक ही मायने रह जाता है-सागर में कुम्भ ,कुम्भ में सागर।

#अशोकबिन्दु


कबीरा पुण्य सदन



सोमवार, 17 अगस्त 2020

वह अकेला है लेकिन उसमें सब हैं, सबमें वह है::अशोकबिन्दु

 भीड़ का कोई धर्म नहीं होता।सम्प्रदाय होता है।

अरे उसका कौन है?उसके संग जैसा चाहो वैसा व्यवहार कर लो?

उबन्तु उबन्तु:: मैं हूँ क्योंकि हम सब हैं:अशोकबिन्दु


      कुदरत के बीच जो हैं वे असभ्य हैं क्या?

इंसानी समाज जो कुदरत के बीच है-असभ्य है ? जो जंगल के बीच है?


आज कोरोना संक्रमण के दौरान पागल, सड़क छाप, खानाबदोश जीवन जीने वाले, भिखारी ,जंगल में रहने वाले इंसान कितना कोरोना से संक्रमित हैं?


किसी ने कहा है- कुदरत में कौन कुदरती ज्ञान के साथ जी रहा है?असल ज्ञान तो अंतर ज्ञान है, जो प्राणी के अंदर स्वतः है।


वहां न तुम्हारे ग्रन्थ हैं, न भगवान, न धर्म स्थल, न पुरोहित।अरे, वे तो असभ्य हैं जंगली कहीं के। उनके तन पर कपड़े भी कम हैं या नहीं भी हैं।


उनके शरीरों में क्या आत्माएं हैं ही नहीं? उनकी आत्मा मर चुकी है क्या?


ब्रह्मांड व प्रकृति में जो भी है, उसकी आत्मा मर चुकी है क्या?

हम ही हैं, जो जिंदा हैं।हमारी आत्मा जिंदा है। 



ब्रह्मांड में सब कुछ स्वतः है, नियम से है।नियम में बंधा है। 

मनुष्य जब जब प्रकृति की स्वतः चलिता से दूर हुआ है वह स्वयं का ही नहीं, अपने कुल व पासपड़ोस के  पतन का कारण बना है।

हम तो अब कहेंगे कि हमें अब कबीलाई संस्कृति में विश्वबंधुत्व,बसुधैव कुटुम्बकम की भावना, सहकारिता, समूह में त्याग के साथ जीना आदि परम्परा फिर से शुरू होनी चाहिए। हमारी संस्कृति चाहें कितनी भी पुरानी हो, हम क्यों न अपने को सनातनी होने का दम्भ भरते हों? अभी काफी निम्न स्तर पर जी रहे हैं। दक्षिण ेेशया में कही से भी किधर से भी 100 मकानों के अध्ययन कर लीजिए, पता चल जाएगा कि विचारों, भावनाओं, समझ, चेतना का क्या स्तर है? पश्चिम के देशों में जिन्हें काफिर, चोर, लुटेरा कहा गया, आखिर उन्हें क्यों कहा गया। महत्वपूर्ण ये नहीं है कि हमारे ग्रन्थ, महापुरुष क्या कहते हैं? महत्वपूर्ण ये है कि हमारा नजरिया व समझ का स्तर क्या है? कमलेश डी पटेल दाजी को कहना पड़ता है ,महत्वपूर्ण ये नहीं है कि  हम आस्तिक हैं नास्तिक ,महत्वपूर्ण है कि कि हमारी समझ, चेतना का स्तर क्या है?अनुभव व अहसास क्या है ?आइंस्टीन ने कहा है-परिवर्तन परिवर्तन को स्वीकार करने की माप ही बुद्धिमत्ता है।



अमेरिका की एक रिसर्च संस्था होती है जंगल में  जीवन यापन करने वालों का अध्ययन करती होती है।

उबन्तु उबन्तु!!

उस संस्था के कुछ लोग अफ्रीका के जंगलों में रहने पहुंचते है। 

कुछ दिन के बाद घुल मिल जाने के बाद जंगल के कुछ बच्चों को इकट्ठा करके उनके बीच फलो की एक टोकरी रखी जाती है बच्चों से कहा जाता है यह फल की टोकरी उस पेड़ पर रख दी जाएगी यहां से जो बच्चा उस पर तक जल्दी पहुंचेगा वह टोकरी उसकी हो जाएगी इसके बाद फलों की टोकरी को पेड़ पर रख दिया गया जंगली बच्चे दौड़ कर उस पीने की ओर जाने लगे एक बच्चा जो सबसे आगे था उस टोकरी को छू लेता है इसके बाद फिर क्या होता है वह बच्चे एक दूसरे का हाथ पकड़कर उस पेड़ के चारों ओर चक्कर लगाने लगे और चीखने लगे - उबन्तु उबन्तु। वे फल जंगलियों ने मिल जुल कर खा लिए।

कुछ दिनों बाद पता चला कि उबन्तु उबन्तु का मतलब है," मैं हूं  क्योंकि हमसब हैं।"


समस्या मानव समाज है,हमारे समाज में हैं।

जहाँ  आपके ग्रन्थ नहीं, आपके धर्मस्थल नहीं। वहां क्या सब गलत है? जहां आपके देवी देवता नहीं वहां क्या सब गलत है।




शनिवार, 8 अगस्त 2020

अभ्यास, दिनचर्या, आदत बनाम वृद्धावस्था::अशोकबिन्दु

 

सोमवार, 3 अगस्त 2020

आत्म सम्मान, आत्म प्रतिष्ठा, आत्मबल, प्राण प्रतिष्ठा, प्राणायाम, प्राणाहुति आखिर क्या::अशोकबिन्दु



















जब हम आत्मा की ओर मुड़ जाते है तो स्वत: विश्व बंधुत्व व बसुधैब कुटुम्बकम की ओर मुड़ जाते हैं।

सागर में कुम्भ, कुम्भ में सागर के भाव से जुड़ जाते हैं।



खुद से खुदा की ओर!


आखिर ऐसा क्या है?

हमारे तीन स्तर हैं-स्थूल, सूक्ष्म व कारण।

हम सभी अपनी ही सम्पूर्णता से नही जुड़े हैं।

स्थूल से सूक्ष्म, सूक्ष्म से कारण की ओर जा हम अपने सम्पूर्णता से नहीं जुड़े है,जिससे हम अनन्त यात्रा की शुरुआत करते हैं।

खुद से खुदा की ओर क्या है?

हम भी अपने अंदर आत्मा रखते हैं ,हम अपने अंदर कितना रखते हैं । कोई मजार पर जाता है ,कोई पीपल थान पर जाता है। ठीक है जाता है।हम उसका विरोध नहीं करते। लेकिन हमारे अंदर जो आत्मा बैठी है,उसको वक्त कब?उसकी आवश्यकताओं में कब?

जब हम आत्म केंद्रित होते हैं,तो उस वक्त की अपेक्षा ज्यादा ऊर्जावान होते है जब हम हाड़ मास शरीर, शरीरों, इंद्रिक आवश्यकताओं व संसारिकता में होते हैं।


ये हाड़ मास शरीर?सब कुछ  इसके लिए ही? दूसरे का सम्मान भी.... किसी का शिष्यत्व कैसा?किसी का गुरुत्व कैसा? किसी को महत्व देने का मतलब?जीवन में सिर्फ खान पान, वस्त्र, धन आदि से केंद्रित सब कुछ? सम्मान किसका?आत्मा का सम्मान कहाँ? आत्मा की प्रतिष्ठा कैसी? आत्मा का बल कैसे?



ऐसे में नीच क्या? जन्मजात उच्चता क्या?ब्राह्मणत्व क्या?क्षत्रियत्व क्या? कौन नीच?वहां तक पहुंच किसकी?!जगत व ब्रह्मांड में जो कुछ भी दिख रहा है, मानव जीवन से परे, वह सब प्रकृति है।वहां प्रकृति के सिवा कुछ भी यदि है तो वह है-सर्व व्याप्त स्वत :,निरन्तर,शाश्वत।जो हमें अनन्त यात्रा से जोड़ता है। मानव जीवन मे इस सब के सिवा भी है- कृत्रिम, बनाबटी, पूर्वाग्रह, छाप, अशुद्धियां, जटिलताएं आदि।जो मानव व उसके समाज को विकृत ही  किए हुए है।



मानव व ब्रह्मांड में जो अन्तर्यामी शाश्वत, निरन्तर, स्वत: आदि है वही सनातन है। वही अन्तर्यामी जीवन है।वही राम है।वही खुदा है।वही आत्मा है।वही प्राण है।वही हमारा निजत्व है।वही आत्मीयता है।उसी के आयाम से बंधा है -मनुष्य शरीर,जगत व ब्रह्मांड। जब हम अंतर मुखी होते हैं ,उसकी याद में गुरु की कृपा से  तो हम अपने अंदर की चेतना व समझ को अपने वर्तमान  स्तर से अग्रिम ऊपर के स्तरों पर महसूस करना शुरू करते हैं। सागर में कुम्भ, कुम्भ में सागर - की स्थिति में होना शुरू करते हैं।अपने आसपास अन्य चेतनाओं को भी महसूस करना शुरू करते हैं। यही वेद है जो हम ये महसूस करना शुरू करते हैं।वेद के छह अंग हैं, छठवां अंग ज्योतिष=ज्योति+ईष को महसूस करना शुरू करते हैं।आस पास का  पूर्वआभास शुरू हो जाता है।जब हमारी साधना जारी रहती है तो हम आगे बढ़ते हैं। आध्यत्म में कोई साधन पूर्ण नहीं होती, आगे अनन्त स्तर होते हैं।



बाबू जी महाराज ,साक्षात्कार, पुस्तक सत्य का उदय में कहते हैं-

" एक उचित प्रशिक्षण विधि में उन सभी भौतिक तथ्यों के प्रति साधक को असावधान कर दिया जाता है तथा  गुरु की ध्यान शक्ति द्वारा उन्हें पार करने में सहायता दी जाती है जिससे उसका मन केवल शुद्ध आध्यात्मिक विषय के अतिरिक्त अन्य किसी और आकृष्ट न हो । वह तब अपने ऊपर सौंपे हुए छोटे-मोटे दैवी कार्य करने की स्थिति में हो जाता है  उसका कार्य क्षेत्र उस अवस्था में एक छोटा स्थान होता है जैसे एक कस्बा एक जिला अथवा कोई और बड़ा खंड । उसका कार्य अपने क्षेत्र के अंतर्गत सभी क्रियाशील वस्तुओं की प्रकृति की मांग के अनुरूप उचित व्यवस्था करना है । वह अपने क्षेत्र में वांछित तत्वों का सन्निवेश करता है और अवांछित तत्वों को हटाता है ।
उसे ऋषि कहते हैं और उसका पद वसु होता है ।
उससे ऊंची स्थिति एवं पद ध्रुव का है  ।.... उसकी श्रेणी मुनि की होती है।" इसके आगे भी अनेक पद हैं।


98 प्रतिशत से भी ज्यादा लोग अपने अहसास से,अपने अस्तित्व से ही नहीं जुड़े हैं।आत्मा का ही अहसास नहीं करते है।अपनी चेतना का ही अहसास नहीं Lकरते है।तो आस पास की चेतना का,आत्मा का अहसास क्या करने? परम् आत्मा की ओर होना दूर की बात।सभी शारिरिक व इंद्रिक आवश्यकताओं,इच्छाओं में डूबे रहते हैं। "उसके बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता"-पर बखान देने वाले भी इसे महसूस नहीं करते या इस भाव में अपना आचरण नहीं रख पाते।अपने को खुदा का बन्दा कहने वाले भी छोटी छोटी बात पर खुद निर्णय लेने को तैयार हो जाते हैं। अनेक लोग बहस बाजी करते मिल जाते हैं लेकिन जो अनुभव का विषय है, महसूस होने का विषय है ,वह बहस बाजी से नहीं, ग्रंथों को रटने से प्राप्त नहीं होता।

हमारे अंदर आत्मा है, वही से हम परम् आत्मा की ओर अग्रसर हो सकते है।उसके सहयोग से जो इसमें हमारे वर्तमान सहयोगी है। इसके लिए हमे अब अन्य कर्मकांड, नाम जाप, धर्म स्थलों आदि की आवश्यकता नहीं है। 








आखिर दिल पर ध्यान क्यों:::अशोकबिन्दु

प्रश्न. चिकित्सा विज्ञान के लिहाज से मेडिटेशन क्यों जरूरी है?
उत्तर. जन्म लेने से मृत्यु तक दिल लगातार काम करता है। दिल रोज़ाना सात हजार लीटर रक्त पम्प करता है। इसमें 70 फीसदी रक्त दिमाग में जाता है बाकी 30 फीसदी पूरे शरीर में।
प्रश्न. दिल इतने सक्षम और प्रभावशाली तरीके से कैसे काम कर लेता है?
उत्तर. दिल इतने प्रभावशाली तरीके से इसलिए काम कर लेता है क्योंकि यह अनुशासित रहता है। सामान्य स्थितियों में दिल को सिकुड़ने में 0.3 सेकेन्ड लगते हैं और रिलैक्स होने में 0.5 सेकेन्ड।
इस तरह दिल को एक बीट पूरा करने में 0.3+0.5=0.8 सेकेंड लगते हैं। यह एक चक्र हुआ।
इसका सीधा मतलब यह हुआ कि एक मिनट में दिल 72 बार धड़कता है। इसे सामान्य हार्ट बीट माना जाता है।
0.5 सेकेन्ड के रिलैक्सिंग फेज़ (चरण) में अशुद्ध रक्त फेफड़ों से होकर गुजरता है और सौ फीसदी यानी पूरी तरह शुद्ध हो जाता है।
तनाव होने पर शरीर कम समय में ज्यादा खून चाहता है और इस स्थिति में दिल का रिलैक्सिंग पीरियड 0.5 सेकेन्ड से घटकर 0.4 सेकेन्ड हो जाता है। इस तरह इस मामले में दिल एक मिनट में 82 बार धड़कता है और सिर्फ 80 फीसदी खून ही शुद्ध हो पाता है।
और ज्यादा माँग बढ़ने पर रिलैक्सिंग टाइम और भी कम होकर 0.3 सेकेन्ड हो जाता है। तब सिर्फ 60 फीसदी खून ही शुद्ध होता है।
जरा सोचिए हमारी धमनियों में जब कम ऑक्सीजनयुक्त खून दौड़ेगा तो क्या होगा!
खून में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ाने में गहरी साँसें काफी कारगर होती हैं।
दिमाग की गतिविधियों को प्रभावित करने वाले कारक कई हैं:
1. 25%-30%  हमारी डाइट के कारण होता है।
2. 70%-75%  हमारी भावनाओं, प्रवृत्तियों, स्मृतियों और दिमाग की दूसरी प्रक्रियाओं के कारण होता है।
इस प्रकार दिमाग को शान्त करने और दिल में ज्यादा से ज्यादा खून पंप करने की मांग को कम करने के लिए दिमाग को आराम देने की ज़रूरत होती है।
ध्यान अशान्त मन को शान्त करने का सबसे उपयोगी उपकरण है।
जब हम आँखें बन्द करके बैठते हैं तो हमारा दिमाग शान्त हो जाता है, दिल को सुकून पहुँचता है। इस तरह यह हमें दिल और दिमाग की बीमारियों से अलग कर देता है।
ध्यान ही असल हीलिंग की कुंजी है।
हमारे पूर्वजों ने इसके बारे में हजारों साल पहले ही सोच लिया था। आज कितनों को यह हकीकत पता है?


लेखक:अज्ञात
Heartfulness!!

रविवार, 2 अगस्त 2020

तुम्हारे आस्तिक या नास्तिक होने से कोई फर्क नहीं पड़ता:अशोकबिन्दु

 हम जिधर भी निगाह डालते हैं हमें उधर कुदरत नजर आती है ।

इस कुदरत के बीच में हमें मनुष्य द्वारा निर्मित बनावटी कृत्रिम चीजें भी देखने को मिलती हैं।

 इस सबसे हटकर कुछ और भी है, जो सर्व व्याप्त है। जो हम में भी है तुम्हारे में भी है। कुछ लोगों ने इस दुनिया में प्राणियों को विशेषकर मनुष्यों को सुर और असुर में बांटा है। यह सुर और असुर क्या है?
जिन्हें असुर कहा जाता है-वे भी हवन करते थे।ब्रह्मा, विष्णु, महेश के लिए आराधना, तपस्या आदि करते थे।हम सब भी ये करते हैं।मूर्ति के व्यपारियों द्वारा मूर्ति खरीद कर उसे मन्दिर आदि में स्थापित कर उसको पूजते हैं, हवन करते हैं। दिन रात हम किस में, किन भावनाओं,आचरणों में व्यस्त रहते हैं?

हमारी नजर में, प्राण सर्वत्र व्याप्त हैं।प्राण ही सुर है।जो उसके अहसास में नहीं है, वह क्या असुर नहीं है? हम किस लिए जी रहे हैं?हाड़ मास शरीर, इन्द्रियक आवश्यकताओं के लिए सिर्फ।हमारे अंदर जो प्राण हैं, आत्मा है उसके लिए क्या करते है?विश्वास किस पर है?आत्मा पर?प्राण पर?


अपनी अपनी आस्था ...? अपनी अपनी आस्था कैसे?!हम तो यही कहेंगे कि आस्था एक ही होती है, दिल एक ही होता है। हां,आस्था का स्तर अलग अलग हो सकता है।दिल का स्तर अलग अलग हो सकता है। प्रतिदिन मन्दिर जाते हो, मस्जिद जाते हो?क्या फर्क पड़ता है ?यदि अपने धर्म स्थल से निकलने के बाद फिर -"अरे, सब चलता है।" फिर कर्म कैसे?सोंच कैसी?भाव कैसा?नजरिया कैसा?दुनिया को देखने की प्रतिक्रिया कैसी? चाहत कैसी? लक्ष्य कैसा?   प्रेम की दशा का स्तर  क्या? 

अपने इंद्रिक व शारीरक इच्छाओं के लिए झूठ-प्रपञ्च, षड्यंत्र, हिंसा, मनमानी, कुप्रबन्धन, अपराध...... सुरता.... कि... असुरता..?!अब अपने को कहीं का तीरंदाज समझो।जन्मजात  उच्चता के घमण्ड में जिओ। अपने जाति, धन, पद,हाड़ मास तन बल आदि पर गर्व का मतलब क्या? अपने स्वार्थ के लिए दूसरों को कष्ट?अपनी ऊंची हांकने के लिए दूसरों बातों ही बातों नीचे गिरना? हम अब ऐसे में क्या कहें-सुरत्व या असुरत्व में? बात ये नहीं कि किस जाति, किस मजहब के?बात ये नहीं कि किस घर से,किस संस्था से,किस देश से?किन आराध्यों,महापुरुषों की तश्वीरों - मूर्तियों के बीच?

शनिवार, 1 अगस्त 2020

विश्व बंधुत्व से मानव कल्याण व विश्व शांति की ओर:अशोकबिन्दु

14,15 व16 अगस्त2020ई0!

विश्व शांति व विश्व कल्याण की ओर पथ....
 ऐसा क्यों? खाने के लिए घर में नहीं चले विश्व शांति की बात करने?
हम कहाँ पर हैं?हमारी चेतना कहाँ पर है....

इस दुनिया का क्या?वह जिस के पीछे दौड़ रही है, वे व उनके समकक्ष ही तन्त्र में हाबी हैं, कितना निपटा ली समस्याएं?

अध्यात्म व मानवता ही सभी समस्यायों का समाधान है।

आत्मा से ही परम् आत्मा की ओर सफर है। परिवार भाव  में पूरी दुनिया को देखना परम् आत्मा की ओर देखने का  रास्ता है।

शेष सब तुम्हारा हमारे लिए  किस काम का?

फ्रांस की क्रांति, रूस की क्रांति से हमें क्या सीख मिलती है? सबको साथ लेकर चलने से ही जगत का कल्याण है मानवता का कल्याण है विश्व शांति संभव है अन्यथा फ्रांस की क्रांति रूस की क्रांति के जो कारण थे बे कारण क्या वे अब भी मौजूद नहीं हैं?

सरकारें व दल समस्याएं निपटाने से रहे।
8वी-15 वीं शताब्दी में जो हुआ वह किस कारण हुआ?जो हुआ उसके लिए क्या विदेशी ही दोषी थे?

पूंजीवाद, पुरोहितवाद, सामन्तवाद, जन्मजात उच्चतावाद, जातिवाद, माफ़ियावाद आदि की एक हद भी है।उस हद के बाद क्या होता है?इतिहास गबाह है।

सुकून मानवता व आध्यत्म से ही सम्भव है।

आओ हम सब आध्यत्म व मानवता को स्वीकार करें।
विश्व बंधुत्व, बसुधैव कुटुम्बकम को स्वीकार करे।