बुधवार, 26 अगस्त 2020

मानव से महामानव की ओर::अशोकबिन्दु

 "यद्यपि मैं पिछले 25 वर्षों से बोलता आ रहा हूं, मैंने पाया है कि जब हम बोलते हैं तो प्रायः जो बोला जाता है वह ऐसे कानों तक पहुंचता है जो उसे अनसुना कर देते हैं ।कम से कम उनमें से अधिकांश ।और कुछ ऐसे कानों तक पहुंचता है जो सुनने के तो इच्छुक हैं लेकिन समझते नहीं। देखिए यदि एक या दो लोग भी ऐसे हैं जिन्होंने सुना है समझा है आत्मसात किया है तो वह निश्चय ही मेरे ऐसे लंबे जीवन का पारितोषिक होगा। जिसमें मैंने अपने मालिक की शिक्षकों और उनके द्वारा दिए गए अनुभवों को व्यक्त करने का प्रश्न किया है।"


श्री पार्थ सारथी राज गोपालाचारी जी,

अंधकार में प्रकाश,प्रस्तावना

पुस्तक-'वे, हुक्का और मैं'

10 मार्च,2007ई0



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विश्व शिक्षक दिवस को 25 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं।

हमारे द्वारा शिक्षण कार्य करते हुए 25 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं।


ऐसा हम भी महसूस करते रहे हैं। हम सुनील वाजपेयी, अरविंद मिश्रा से कहते आये हैं कि यदि कोई दो भी अपने जीवन के लिए हमें धन्य मानता है तो हम उत्साहित होंगे। हमने महसूस किया है कि विभिन्न संस्थाओं के सत्संगों,कथा वाचकों के प्रवचनों आदि में उमड़ी भीड़ में से कितने जागे हुए हैं? रात्रि में जागरण कराने वालों में कितने जागे हुए है ? रात्रिभर जागरण में जागने वाले जीवन में कितना जागे हुए हैं?ऐसा ही हम विद्यार्थियों, शिक्षकों, शिक्षितों के सम्बंध में भी कहते हैं?कितने ज्ञान की धारा में बह रहे हैं? हमें प्रति दिन दो लोग ध्यान से सुनते हैं, हम उससे उत्साहित हैं लेकिन जिधर भीड़ दौड़ी चली जा रही है सुनने को ,उधर से कितना सुना जा रहा है?कितनों के द्वारा सुना जा रहा है?


हमारे आदि ऋषियों, नबियों का जो मकसद था-पशु मानव को मानव बनना, मानव से महामानव बनना, देव मानव बनना.....ऐसा कौन चाहता है?


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