शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

धरती का सबसे खतरनाक प्राणी कौन:::अशोकबिन्दु

सत्तावाद, पूंजीवाद, पुरोहितवाद, जातिवाद, मजहबवाद, सामन्तवाद, जन्मजात उच्चतावाद आदि मिल कर धरती, मनुष्य समाज का बंटाधार करने में लगे है। आक्सीजन के अभाव, पेय जल के अभाव आदि की किसे चिंता?धर्म स्थल चाहिए?अपनी जाति पर गर्व चाहिए?

उफ़.....

*अब यदि आप इस लेख को न पढ़ें तो आपकी गलती , लिखने वाले ने तो 2-4 घंटे की मेहनत से लिख दिया*

कल्पना कीजिए उस देश की, जहाँ दुनिया की सबसे ऊँची मूर्ति होगी, जगमगाता हुआ भव्य राम मंदिर होगा, सरयू में देशी घी के छह लाख दीयों की अभूतपूर्व शोभायमान महा आरती हो रही होगी। सड़कों, गलियों और राष्ट्रीय राजमार्गों पर जुगाली और चिंतन में संलग्न गौवंश आराम फरमा रहा होगा। धर्म उल्लू की तरह हर आदमी के सर पर बैठा होगा ।

लेकिन, अस्पतालों में ऑक्सीजन नहीं होगी, दवाइयां, बेड, इन्जेक्शन नहीं होंगे। दुधमुंहे बच्चे बे-सांस दम तोड़ रहे होंगे। मरीज दर-ब-दर भटक रहे होंगे। देश में ढंग के स्कूल-कॉलेज नहीं होंगे, बच्चे कामकाज की तलाश में गलियों में भटक रहे होंगे। कोविड-19 जैसी महामारियां देश पर ताला लगा रही होगी और देश का प्रवासी मजदूर भूखे-प्यासे सैकड़ों मील की पैदल यात्रा कर रहे होंगे, आम जनता घुट-घुट कर जी रहे होंगे और तिल-तिल कर मर रहे होंगे ।

बेटियां  स्कूलों, कॉलेजों, मेडिकल, इंजीनियरिंग संस्थाओं में न होकर सिर्फ़ सड़कों पर दौड़ रहे ट्रकों के पीछे बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के नारों में ही होंगी और न्याय एक महँगा विलासिता की चीज होगा। बेटियों, महिलाओं के हत्यारों, बलात्कारियों और दूसरे जघन्यतम अपराधियों को पुलिस बल गार्ड-ऑफ़-ऑनर पेश कर रहे होंगे। अलग-अलग वेषभूषा में मुनाफ़ाखोर और अपराधी-प्रवृत्ति के लोग देश के सम्मानित और गणमान्य नागरिक होंगे और मीडिया उनका जय-जयकार कर रही होगी ।

 विश्व स्तर के उत्कृष्ट शिक्षा संस्थान नहीं होंगे,अस्पताल नहीं होंगे, बेहतरीन किस्म की शोध संस्थान और प्रयोगशालाएं भी नहीं होंगी, भूख और बेरोजगारी से जूझती जनता के लिए चूरन होंगे, अवलेह और आसव होंगे, सांस रोकने-छोड़ने के करतब होंगे, अनुलोम-विलोम होगा, काढ़े होंगे और इन सबसे ऊपर, कोई शातिर तपस्वी उद्योगपति होगा, जो धर्म, अध्यात्म, तप-त्याग, और दर्शन की पुड़ियाओं में भस्म-भभूत और आरोग्य के ईश्वरीय वरदान लपेट रहा होगा। परंतु हमारे पास कुछ तो होंगे । हमारे पास गायें होगी, गोबर होगा, गोमूत्र होगा ।

सुव्यवस्थित और गौरवशाली राष्ट्रीयकृत बैंक भी नहीं होंगे, बीमा कंपनियां नही होंगी। महारत्न और नवरत्न कहे जाने वाले सार्वजनिक उपक्रम नही होंगे। अपनी-सी लगती वह रेल भी गरीबों की पहुँच से दूर होगी ।

देश एक ऐसी दुकान में बदल चुका होगा, जिसका शक्ल-सूरत किसी मंदिर जैसा होगा। देश ऐसा बदल चुका होगा जहाँ युवकों के लिए रथयात्राएं, शिलान्यासें और जगराते होंगे। गौ-रक्षा दल होंगे, और गौरव-यात्राएं होंगी। मुंह में गुटके की ढेर सारी पीक सहेजे बोलने और चीखने का अभ्यास साधे सैकड़ों-हजारों किशोर-युवा होंगे, जो कांवर लेकर आ रहे होंगे या जा रहे होंगे, या किसी नए मंदिर के काम आ रहे होंगे और खाली वक्त में जियो के सिम की बदौलत पुलिया में बैठे IT Cell द्वारा ठेले गए स्रोत से अपना ज्ञान बढ़ा रहे होंगे।

शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक-सामाजिक उन्नति के हिसाब से हम 1940-50 के दौर में विचर रहे होंगे। तर्क, औचित्य, विवेक से शून्य होकर पड़ोसी की जाति, गोत्र जानकर किलस रहे होंगे अथवा हुलस रहे होंगे। हम भूखों मर रहे होंगे परंतु अपने हिसाब से विश्वगुरु होंगे । हमारा आर्थिक विकास इतना सुविचारित होगा कि दुनिया का सस्ता डीजल, पेट्रोल हमारे यहां सबसे महंगा होगा। कोविड-19 जैसे महामारी के दौर में भी हम मास्क, सैनेटाइज़र और किट पर जीएसटी वसूल रहे होंगे।

हमारी ताक़त का ये आलम होगा कि कोई कहीं भी हमारी सीमा में नहीं घुसा होगा, फिर भी हमारे बीस-बीस सैनिक बिना किसी युद्ध के वीरगति को प्राप्त हो रहे होंगे। दुश्मन सरहद पर खड़ा होगा और हम टैंकों को जे.एन.यू. सरीखे विश्वविद्यालयों में खड़े कर रहे होंगे।

कोई खास मुश्किल नहीं है। बस थोड़ा अभ्यास करना होगा, उल्टे चलने और हमेशा अतीत की जुगाली करने और मिथकों में जीने की आदत डालनी होगी। शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली, पानी, रोजगार, न्याय, समानता और लोकतंत्र जैसे राष्ट्रद्रोही विषयों को जेहन से जबरन झटक देना होगा। अखंड विश्वास करना होगा कि धर्म, संस्कृति, मंदिर, आरती, जागरण-जगराते, गाय-गोबर, और मूर्तियां ही विकास हैं। बाकी सब भ्रम है। यकीन मानिए शुरू में भले अटपटा लगे, पर यह चेतना बाद में बहुत आनंद देगी। मैंने अभ्यास प्रारम्भ कर दिया है ।

*लेख लिखने वाले सज्जन को दिल से सलाम*

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शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

24जुलाई -पार्थ सारथी राजगोपालाचारी जी जन्म दिन पर विशेष/उनकी नजर में शिक्षा::अशोकबिन्दु




हमारा पूरा जीवन शिक्षा जगत में ही बीत गया,बीत रहा और बीतेगा। हमने बीएड सत्र के दौरान एस एस कालेज, शाहजहांपुर से आकुल जी से पढ़ा था कि शिक्षा तो व्यक्ति की संभावनाओं को विकसित करना है।विवेकानंद ने कहा है-शिक्षा है अंतरनिहित शक्तियों का विकास। इन दिनों में सहज मार्ग में सन्त व  ऋषि श्री पार्थसारथी राजगोपालाचारी की याद व उनके साहित्य के अध्ययन में हैं। वे शिक्षा पर क्या महसूस करते थे?इस पर हम कुछ व्यक्त करने का प्रयत्न कर रहे हैं।


इस समय हमारे हाथ में है उनकी पुस्तक युवावस्था प्रतिज्ञा और प्रयास का समय भाग 2 एक निर्देशित जीवन।

 इस पुस्तक में उनकी उन की उन वार्ताओं का संकलन प्रस्तुत किया गया है जो भारत और विदेश के विभिन्न स्थानों पर उनके और युवाओं के मध्य हुई युवाओं के जोश और ही आवश्यकता और प्रयासों को ध्यान में रखते हुए इन्होंने सारे विश्व के युवाओं को परिवर्तन और भविष्य के नव निर्माण के लिए प्रेरित किया है श्री रामचंद्र मिशन में सहज मार्ग प्राकृतिक मार्ग अध्यात्म के प्रशिक्षण की एक व्यावहारिक पद्धति प्रस्तुत करता है वस्तुतः सर्व ज्ञात राज योग की पुरानी पद्धति है जिसे आधुनिक जीवन की आवश्यकताओं के अनुरूप हाल कर सरल कर दिया गया है इसका दे आंतरिक पूर्णता या ईश्वर साक्षात्कार है श्री रामचंद्र जी की शिक्षाओं के अनुसार ईश्वर अनंत किंतु सरल है इसलिए उस तक पहुंचने का मार्ग भी सरल होना चाहिए एक पहुंचे हुए समर्थ गुरु की सहायता एवं मार्गदर्शन में मन का नियमन करके अभ्यासी उच्चतम अवस्था प्राप्त कर सकता है यह अवस्था गुरु प्रणाहूति अर्थात योगिक संप्रेषण द्वारा देता है और हृदय में देवी ऊर्जा का संचार करते अभ्यासी के अंतर त मां को परिष्कृत कर देता है सहज मार्ग की एक खास विशेषता है की श्री रामचंद्र जी की महासमाधि के बाद भी आज उनकी जगह एक समर्थ सद्गुरु श्री पार्थ सारथी राजगोपालाचारी जी के रूप में हमें उपलब्ध होने के बाद अब श्री कमलेश डी पटेल दाजी जिनकी सहायता पाकर कोई भी व्यक्ति कुछ समय तक इस प्रणाली का अभ्यास करके प्रार्थी का अनुभव कर सकता है श्री पार्थ सारथी राज गोपालाचारी का कहना का कहना था किसी भी मनुष्य की बाहर क्षमता तभी प्रकट हो सकती है जब वह अपने उस मन का नियमन करने की योग्यता अर्जित कर ले जो उसे प्राप्त उपकरणों में से सर्वाधिक परिपूर्ण है वह कैसा बनेगा इस बात से तय होगा की वह अपने मन का प्रयोग कितने अनुशासन और नियमन से करता है क्या वह ऐसा मजदूर बनने जा रहा है जो केवल लोहा काटने की आरी यक्षी मशीन को ठीक से चलाना जानता है या वह कोई वैज्ञानिक बनने जा रहा है या वह उच्चतम उदाहरण बनेगा मानवीय पूर्णता का एक संत ।

 श्री पार्थ सारथी राजगोपालाचारी के गुरु बाबूजी महाराज से जब एक बार पूछा गया की वास्तव में शिक्षित कौन है तब उनका कहना था जब कोई व्यक्ति शिक्षित हो जाता है तब उसके अधिकार खत्म हो जाते हैं उसके कर्तव्य बच जाते हैं वास्तव में शिक्षित व्यक्ति के सामने सिर्फ उसके लिए कर्तव्य है शिक्षक या प्रशिक्षक के कर्तव्य और भी बड़े हैं शिक्षक या प्रशिक्षक शिक्षा जगत में ज्ञान के आधार पर अनेक प्रयोग निरीक्षण आचरण रखने का आवश्यक कर्तव्य रखता है।


श्री पार्थ सारथी राजगोपालाचारी कहते हैं- जब तक आप अपने अंतर में अस्तित्व की दशा में परिवर्तन नहीं करते आप सुखी नहीं हो सकते विज्ञान और तकनीक कोई नई नहीं है इनके प्रति पूरा आदर भाव रखते हुए मैं कहूंगा की ए नई नहीं है क्योंकि वह इतनी पुरानी है जितना खुद भारतवर्ष या जितना यह संसार यदि कोई हमारी रामायण और महाभारत पर विश्वास करें तो तब ऐसे ऐसे शस्त्र हुआ करते थे जिनके सामने आज के हाइड्रोजन बम भी कुछ नहीं है मैं उन्हें कल्पना शक्ति की उड़ान नहीं मानता क्योंकि कल्पना भी किसी ना किसी असलियत पर आधारित होती है तब . . ..  .  आपका मन उस वास्तविकता को विस्तार दे देता है तो यह सब बातें नई नहीं है । आराम-- क्यों नहीं ? लेकिन आपको यह नहीं सोचना चाहिए हमारा सुख आराम पर निर्भर करता है। लेकिन आराम की स्थिति में मैं चिंतन मनन कर सकता हूं और अपने में ऐसी दशा निर्मित कर सकता हूं जिसके परिणाम स्वरूप मुझे सुख मिल जाए यदि ईटों की एक लारी पर भी मैं आराम से बैठ सकता हूं तो क्या हर्ज है दुर्भाग्य से हमारे देश में आरामदायक जीवन और तपस्वी तपस्वी जीवन में अंतर अथवा विभेद किया गया है जो मेरे विचार से मूलभूत धमधा कीलों के बिस्तर पर सोना अग्नि के ऊपर चलना जानबूझकर शरीर को कष्ट देना स्वाभाविक आवश्यकताओं से वंचित रहना यह सब अनावश्यक था परिणाम स्वरूप मानवता का अधिकांश भाग योग साधना से दूर होता गया क्योंकि वे डरते थे हम से नहीं होगा साहब ऋषिकेश या बद्रीनाथ में गंदा के बीच कमर तक पानी में खड़े रहना इस शब्द का क्या अर्थ है क्या हम लकड़ी के लगते हैं? इसके विपरीत योग कहता है संवेदनशीलता को विकसित करो परंतु उसे किसी ऐसी वस्तु पर लगाओ जो शासित है जो कभी परिवर्तित नहीं होती होगी क्योंकि जो परिवर्तनीय है वह शाश्वत नहीं हो सकती शाश्वत अर्थात अपरिवर्तनीय तो यदि अब मुझे किसी पर विश्वास रखना है तो वह ऐसा कुछ होना चाहिए जो सास्वत हो अपरिवर्तनीय हो क्योंकि मेरी तुलना में बेहतर लेगा नहीं।


. ..... मैं जो कह रहा हूं वह बात है की पद्धति का मूल्यांकन उसकी प्रभाव उत्पादकता से करें। "आनो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वत:'- अर्थात -"बुद्धिमत्ता कहीं से भी मिले उसे ग्रहण करो।" यदि गधे के  ढेंचू ढेंचू आपको अपने घर में चोर के आने से सावधान कर देती है आपको उस गधे का आभारी होना चाहिए ।.......  ब्रह्मसूत्र, गीता और उपनिषद मिलकर प्रस्थानत्रयी कहलाते हैं ।ये तीन स्तंभ हैं जिन पर सनातन धर्म टिका है। लोगों ने इसके एक तिहाई भाग की बिल्कुल उपेक्षा कर दी और शेष दो तिहाई के बारे में वे नहीं जानते कि उनकी उपेक्षा करें यह स्वीकार करें? किसे पता है- ब्रह्म सूत्र क्या है ?किसे पता है उपनिषद क्या है? मंदिर में सबसे बड़ा लाभ यह है भगवान वहां है और वहां जाकर मैं जो चाहूं वैसा कर सकता हूं ।वापस आकर मंदिर के बाहर जो समझ में आए कर सकता हूं।

......ज्ञान, मानवता, आध्यत्म आदि के आधार पर च
लने की जिम्मेदारी किसी की नहीं?हम(अशोकबिन्दु) सोंचने लगे। हां, फिर आगे----

पार्थ सारथी राजगोपालाचारी इस पुस्तक में एक जगह कहते हैं आज भारत में सबसे आवश्यक कार्य है युवा पीढ़ी के ध्यान को विश्व युद्ध भौतिकता पर आधारित लक्ष से हटाना भारत में जो सबसे बड़ी बनती है वह यही है की शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य है नौकरी पाना इन भारतीय प्रबंधन संस्थानों में पूरे देश में सैकड़ों हजारों युवा अपना भाग्य आजमा ते हैं क्योंकि मुझे बताया गया है आई आई एम के एक सामान्य स्नातक को पढ़ाई के दौरान कैंपस में ही चुन लिया जाता है और ढाई से तीन लाख सालाना वेतन तय हो जाता है वह इस के योग्य नहीं है मेरे विचार से कोई भी स्नातक इतने भारी वेतन की योग्य नहीं है आप क्या हैं केवल एक स्नातक अपनी योग्यता तो आपको अभी साबित करनी है लेकिन उनको लुगाया जाता है उनको प्रस्तुति दी जाती है यह बिल्कुल ऐसा है मानो एक लड़की अपनी टांगे दिखा रही है और ऐसे समाज में जहां सफलता का मापदंड केवल आर्थिक सफलता भौतिक सफलता माना जाता है हमारे युवा इसी के पीछे दौड़ रहे हैं क्योंकि उन्हें सफलता चाहिए इसलिए समाज में केवल अमीर लोग हैं जो हंसी के पात्र हैं दयनीय है।   ......... अतः शिक्षा में सबसे महत्वपूर्ण है अपने युवाओं को यह समझाना की अपने आप को शिक्षित करो कुछ तथ्यों को रखकर परीक्षा पास कर लेने से नहीं चलेगा।. ... .. जैसा कि गीता में कहां है ब्राह्मण का विवाह ब्राह्मण से बेस्ट का विवाह बेस्ट से होना चाहिए मैं इससे सहमत नहीं हूं आज के जमाने में ए सही नहीं है मिलावट करने का मतलब है मिलाना तेल में मिला ना मिलावट है दूध में पानी मिलाना मिलावट करना है कंकर पत्थर के छोटे छोटे गोल टुकड़ों पर रंग लगाकर दाल जैसा बनाकर मिला देना मिलावट करना है (लेकिन एक इंसान का इंसान से संबंध मिलावट नहीं है)।


सन्तुलित जीवन के लिए शिक्षा!


श्री पार्थ सारथी राजगोपालाचारी जी आगे कहते हैं चिंता का विषय है कि आजकल हमारे किशोरों को क्या पढ़ाया जा रहा है लोग भूल गए हैं प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में शिक्षा का भी एक समय होता है जो 2 वर्ष की उम्र में सीखना चाहिए वह 60 वर्ष की उम्र में नहीं लिखना चाहिए और जो 18 या 20 वर्ष की उम्र में सीखना चाहिए वह 6 वर्ष की उम्र में नहीं पढ़ाया जाना चाहिए अतः समय सही समय, स्थान सही स्थान विषय सही विषय समस्या तो हमेशा से रही है मेरा मानना तो यहां तक है ऐसा समय आना चाहिए जब विद्यार्थी स्वयं समझे उन्हें क्या चाहिए और माफ करें स्कूल उन्हें वह प्रदान करें जिसके उन्हें जरूरत है यहां मेरा अपरा भोजन यूनिफॉर्म या इस तरह की चीजों से नहीं है बल्कि एक अत्यंत आवश्यक मार्क्स है क्योंकि यहीं बैठी है जो हमारे युवाओं के लिए हमारे बच्चों के लिए उनके ज्ञान के उधर के लिए एक नई रहा प्रशस्त करेगी हमारे देश की एक त्रासदी यह भी है कि हम चाहे किसी भी उम्र के क्यों ना हो नहीं जानते कि हम क्या चाहते हैं आज किसी भी आम विद्यार्थी की चाहे वह स्कूल का हो कॉलेज का हो या कहीं भी उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहा हूं एक ही समस्या है यदि आप उनसे पूछें आप क्या चाहते हैं उन सभी का जवाब एक होगा सफलता मैं जीवन में सफल होना चाहता हूं और यदि आप पूछें जीवन में सफलता से आप का मतलब क्या है उन्हें नहीं मालूम सफलता क्या है बेबस अपने किसी दोस्त अंकल या आंटी की तरफ इशारा करेंगे जो बहुत अमीर हैं जिनके पास बहुत पैसा है दो तीन गाड़ियां हैं बढ़िया वातानुकूल शयन कक्ष कीमती कपड़े हैं और बे कहेंगे यही वह सब है जो हम चाहते हैं।....... युवाओं को बताया जाना चाहिए कि हम विकसित हो रहे हैं जीवन के मौलिक रूप अमीबा जैसे एक कोशिका वाले जीव से शुरू होकर पिछले लाखों-करोड़ों वर्षों से हम निरंतर विकसित होते आ रहे हैं बायोलॉजी या जीव विज्ञान की कक्षाओं में आप इनके बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे और मनुष्य होने के नाते हमें आगे भी विकसित होना है विकास के अनेक पहलू है उनमें से एक है जीव रूप में मनुष्य का विकास।.   .....  जब हम बाहरी दुनिया को देखते हैं तो आलोचना की प्रवृत्ति या प्रलोभन में फंस जाते हैं यह अच्छा नहीं है वह सुंदर नहीं है यह बदसूरत है वह लंबा है वह छोटी है इत्यादि अर्थात हर बात का फैसला तुलनात्मक मूल्यांकन से है आंतरिक दुनिया में कोई मूल्यांकन प्रणाली नहीं है क्योंकि यहां जो कुछ बाहर है उससे हम अपने अंतर की खोज की ओर बढ़ते हैं और एक ठीक भी है क्योंकि हर चीज का मूलाधार हमारे अपने हृदय में ही है और हमारी आंतरिक दुनिया बाहर की दुनिया से बहुत अधिक विस्तृत है तो वास्तव में हमारी शिक्षा ऐसी हो नहीं चाहिए कि वह हमें दोनों तरीकों से चीजों को देखना सिखा सके एक है बाहर से देखना जैसे सामने की इमारत कितनी सुंदर है उसकी कार्य कारीगरी में इस्तेमाल किया गया माल उसकी मजबूती उसकी इंजीनियरिंग इत्यादि विभिन्न वनस्पति अथवा जीव आदि को देखकर उन्हें पहचानना उनके महत्व को समझना उनकी कदर करना देखे बिना भी जानकारी रखना जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण कहलाता है।........ पहले आप शिक्षित होते हैं उसके बाद चीजों के प्रकट ना की प्रक्रिया शुरू होती है तब आप चीजों को बिना सीखें उन्हें समझने के काबिल हो जाते हैं ... ..तो केवल बौद्धिक क्षमता ही नहीं बल्कि इस प्रकार की संवेदनशीलता भी स्कूलों में विकसित होनी चाहिए।


इस पुस्तक में काफी कुछ है।आज इतना ही।वास्तव में शिक्षा में क्रांति की आवश्यकता है। आज का शिक्षित शिक्षक हुई समाज के व्यक्तियों वस्तुओं घटनाओं के प्रति वही भावना वही विचार रखता है जो एक आम आदमी रखता है यह अफसोस की बात है सामने वाले व्यक्ति को अशिक्षित व्यक्ति भी इंसान समझने की जरूरत नहीं करते बरन जाति मजहब लोह लालच आदि के आधार पर इंसानों से आचरण में उतार चढ़ाव रखते हैं यह सोच तो रखना बहुत ही दूर की बात --सागर मे कुंभ कुंभ में सागर . ...उदारचरितानाम तू वसुधैबकुटुंबकम...आदि आदि।


समाधि अथवा एकाग्रता की अवस्थाओं के तीन रूप:अशोकबिन्दु

 अपनी अपनी अन्तर्दशा के साथ वह अनुभव कि 'उसके मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता।"



समस्याएं प्रकृति में मानव समाज के बीच हैं।

हम  अपने होश संभालते मंदिर में जाकर प्रकृति के बीच जाकर मेडिटेशन करने लगे थे या फिर मौन होकर आसपास के वातावरण को अंदर ही अंदर महसूस करने की कोशिश करने लगे थे ।


मनुष्य की अज्ञानता का हम क्या कहें? उन दिनों हम कक्षा सात के विद्यार्थी थे ।मंदिर जाना सुबह शाम सहपाठियों के साथ लेकिन हम मूर्तियों के सामने केवल अंतर नमन कर लेते थे। जब मेडीटेशन करना शुरू किया तो हमारे हालात अंदर से काफी तेजी से बदलने शुरू हुए। हम मूर्ति पूजा को शुरू करते उससे पहले ही हमसे मूर्ति पूजा छूट गए। सहपाठी नास्तिक तक कह देते।


अनेक बार ऐसे हालात पैदा हुए कि हम कहीं खोए खोए से रहते ।काम सब होते ,बाजार जाते, सामान खरीद कर लाते ,आना जाना होता। सब कुछ चलता रहता हमें ताज्जुब होता हम कहीं खोए हैं हम संसार में नहीं हैं लेकिन तब भी हमारे द्वारा सांसारिक कार्य हो रहे हैं। समस्या कब हुई है? समस्या तय हुई है जब अचानक हम भीड़ में सड़क पर और इस दशा से निकले हैं तो कुछ समय के लिए हम संतुलित होने कुछ सेकंड लगाएं है इन सेकंड में हमारी हालत काफी गड़बड़ हुई सामंजस्य की कला भी जरूरी है मनुष्य समाज के बीच एवं भीड़ में शारीरिक इंद्रिय क्षमताओं पारिवारिक आवश्यकताओं लोगों की विभिन्न उम्मीदों आदि से टकराव हुआ है मालिक के भरोसे सब कुछ छोड़ देने पर ही सब कुछ अच्छा हुआ है यह भी सत्य है अनेक बार ऐसे समय से गुजरे हैं जब जिंदगी जीना मुश्किल लगा है लेकिन वक्त गुजरा तो सब कुछ बेहतर था अनेक शंकाएं अनेक भ्रम मात्र बकवास निकले अनेक बार हमने महसूस किया वास्तव में जीवन को चलाने वाला कोई और है इस धरती पर माता पिता यह बढ़कर कोई नहीं लेकिन माता-पिता से बढ़कर भी कोई है प्रकृति अभियान एवं ब्रह्म अभियान।


 एक दिन हम सत्य का उदय पुस्तक का अध्ययन कर रहे थे जिसमें अध्याय 9 साक्षात्कार । इस अध्याय में हमने पढ़कर जो महसूस किया उससे हम अनेक शंकाओं और भ्रम से उभरे । इस अध्याय में बाबूजी महाराज कहते हैं --समाधि अथवा एकाग्रता की अवस्थाओं के तीन रूप होते हैं।
 इनमें से प्रथम तो वह है जिसमें मनुष्य अपने को खोया हुआ या डूबा हुआ महसूस करता है  उसकी इंद्रियां ,भाव तथा आवेग कुछ समय के लिए ऐसे निलंबित हो जाते हैं मानो वे उस समय के लिए निर्जीव हो गए हैं  वह घोर निद्रा में सोए हुए मनुष्य की भांति होता है ।जिसे किसी बात की चेतना नहीं रहती ।

 दूसरा रूप वह है जिसमें यद्यपि मनुष्य एक बिंदु पर पूर्णता एकाग्र चित्त है फिर भी उसमें अपने को वस्तुतः डूबा हुआ महसूस नहीं करता इसे अवचेतनता मैं चेतनता अवस्था कहां जा सकता है। स्पष्टता उसे किसी बात की इतना नहीं रहती फिर भी उसके अंदर चेतनता विद्यमान रहती है। यद्यपि केवल छाया रूप में ही एक मनुष्य।
किसी  पर गहरे तौर से सोचता हुआ सड़क पर चलता जाता है। वह उस समस्या के चिंतन में इतना डूबा हुआ है कि अन्य सभी वस्तुओं के प्रति अचेतन है और न तो वह रास्ते में कोई वस्तु देखता है न आस पास की कोई आवाज या बातें सुनता है । वह मन की एक अचेतन अवस्था में चलता जाता है फिर भी सड़क के किनारे किसी पेड़ से बेहतर आता नहीं और ना उस रास्ते में आने वाली किसी मोटर से ही दब ता है वह अपनी अचेतन अवस्था में अनजाने ही इन सभी आवश्यकताओं के प्रति सजग रहता है और अवसर के अनुसार कार्य करता है किंतु उसे उन कार्यों की  कोई चेतना नहीं रहती यह चेतन में चेतन की अवस्था है। इस मन: स्थिति में अन्य वस्तुओं की चेतना सुक्त प्राय रहती है और उसकी छाप नहीं पड़ती।


 तीसरा रूप सहज समाधि का है। एकाग्रता का सर्वोत्तम रूप है ।इस स्थिति में मनुष्य अपने कार्यों में व्यस्त रहता है  मन उस में लगा रहता है परंतु उसका अंत: स्थल उसी सत्य वस्तु पर स्थिर रहता है अपने चेतन मन से तो वह बाहर कार्यों में व्यस्त रहता है पर उसका अवचेतन मन दैवी विचारों में व्यस्त रहता है ।
प्रत्यक्ष रूप से सांसारिक कार्यों में व्यस्त रहते हुए भी वह सारे समय समाधि की दशा में रहता है । यह समाधि का उच्चतम रूप है और इस स्थिति में मनुष्य के स्थाई रूप में प्रवेश करने के उपरांत करने के लिए बहुत थोड़ा ही शेष रह जाता है। साधना के क्रम में प्राप्त होने वाली विभिन्न आध्यात्मिक स्थितियों की विशेषता है प्रकृति के कार्यों के लिए विशिष्ट शक्ति एवं क्षमता की प्राप्ति सबसे नीचे का क्षेत्र  पिंड देश है जो वक्ष स्थल में स्थित विभिन्न छोटी छोटी ग्रन्थियों से मिलकर बना है। यह पंचाग्नि विद्या का केंद्र है जिसका उल्लेख प्राचीन हिन्दू धर्म शास्त्रीं में अधिकतर हुआ है। जब मनुष्य इस क्षेत्र का ज्ञान प्राप्त कर लेता है तो उसमें भौतिक तत्व के विज्ञान का सहज ज्ञान स्वता विकसित हो जाता है जिसे वह समुचित अभ्यास एवं अनुभव के उपरांत अपनी इच्छा अनुसार प्रयोग में ला सकता है पर जहां तक आध्यात्मिकता का संबंध है यह उपलब्धि उसके किसी काम की नहीं अतः एक उचित प्रशिक्षण विधि में उन सभी भौतिक शक्तियों के प्रति साधक को अ सावधान कर दिया जाता है तथा गुरु की ध्यान शक्ति द्वारा उन्हें पार करने में सहायता दी जाती है जिससे उसका मन केवल शुद्ध आध्यात्मिक विषय के अतिरिक्त अन्य किसी और आकृष्ट ना हो वह तब अपने ऊपर संपन्न हुए छोटे-मोटे दिव्य कार्य करने की स्थिति मैं हो जाता है उसका कार्य क्षेत्र उस अवस्था में एक छोटा स्थान होता है जैसे एक कस्बा एक जिला अथवा कोई और बड़ा खंड उसका कार्य अपने क्षेत्र के अंतर्गत सभी क्रियाशील वस्तुओं की प्रकृति की मांग के अनुरूप उचित व्यवस्था करना है वह अपने क्षेत्र में वांछित तत्वों का सर निवेश करता है और अवांछित तत्वों को हटाता है उसे ऋषि कहते हैं और उसका पद बसु होता है।



इसको पढ़ने के बाद हम विचार करने लगे सूक्ष्म जगत में भी अनेक पद हैं ऋषि या बसु के बाद ध्रुव पद या मुनि इससे आगे भी अनेक पद उपस्थित हैं।




गुरुवार, 23 जुलाई 2020

जताऊं क्यों ?बताऊं क्यों:::.......अशोकबिन्दु

जताना हमें आता नहीं, बताना हमें आता नहीं.......अशोकबिन्दु!!
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हमने धर्म स्थलों में आश्रमों, गुरुद्वारों को ही चाहा है।
हमें वहां देखा है कि बस कुछ लोग लगे रहते हैं-सेवा, सद्भावना में।जताना नहीं बताना नहीं।

हजरत किबला मौलवी हाजी अली अहमद खान साहब रायपुर ई के शिष्य श्री रामचंद्र जी महाराज फतेहगढ़ की याद में शाहजहांपुर की धरती पर सन 1945 में श्री रामचंद्र मिशन की स्थापना करने वाले बाबूजी महाराज ने कहा है शिक्षित व्यक्ति के अधिकार खत्म हो जाते हैं उसके तो सिर्फ कर्तव्य कर्तव्य रहते हैं।

हमने विभिन्न संस्थाओं में देखा है कुछ लोग संस्था के प्रमुखों ,व्यवस्थापको के सामने ना जाने क्या क्या जताते रहते हैं लेकिन किसी ने कहा है अपना बड़प्पन हांकना अपनी हरकतों को जताना आदि व्यक्ति की आंतरिक कमजोरी को ही दर्शाता है मुख्य रूप से अपने आत्मिक विकास के लिए आध्यात्मिक विकास के लिए।

हम इस पर विचार करते हैं कि बाबूजी महाराज ने जो कहा है की शिक्षित व्यक्ति के अधिकार खत्म हो जाते हैं सिर्फ कर्तव्य कर्तव्य रहते हैं, यह वास्तव में महत्वपूर्ण कथन है हम कहते रहे हैं शिक्षित होना एक क्रांतिकारी घटना है और दुनिया में सबसे बड़ा कलंक वर्तमान के शिक्षित व्यक्ति हैं जिनके रहते दुनिया की व्यवस्थाएं सुधर नहीं पा रही हैं सोलवीं सदी से जिस विकास की शुरुआत हुई है उस विकास ने मनुष्य को मनुष्य से दूर कर दिया है मनुष्य ने स्वयं को अपने से दूर कर लिया है मनुष्य ने अपने को अंतर्ज्ञान से दूर कर लिया है मनुष्य ने अपने को मन प्रबंधन प्रकृति प्रबंधन से अलग कर लिया है उसका विकास सिर्फ निर्जीव वस्तुओं के लिए निर्जीव वस्तुओं को एकत्रित करने के लिए निर्जीव वस्तुओं को एकत्रित करने के लिए अध्यात्म मानवता प्रकृति संविधान आदि को नजरअंदाज करने के लिए मात्र रह गया है।

आज की तारीख में बस कुदरत की नजर में नहीं विधाता की नजर में नहीं जीना चाहता।







हम बड़ा क्यों न चाहें?हमारी शारीरिक व इंद्रिक आवश्यकताओं से बड़ा कुछ भी नहीं क्या ::अशोकबिन्दु

सहस्र!हम वर्तमान क्षमता से भी सहस्र गुना क्षमता अपने अंदर छिपाए बैठे हैं..................अशोकबिन्दु

मन  स्थिर करने का मतलब क्या हो सकता है ?
हमारा अनुभव तो कहता है मंन स्थिर होने की स्थिति में भी गतिशीलता है ।
लेकिन हकीकत गतिशीलता एक चक्रवात की भांति है। सुना जाता है किसी चक्रवात का केंद्र स्थिर होता है, जिस प्रकार किसी बैलगाड़ी में पहिए की धूरी स्थिर होती है उसी तरह से हमारी आत्मा से जब मन जुड़ जाता है तो यही हालत होती है ।

यह बात सरासर गलत है कि मन को मार लो मन को मारकर बैठना खतरनाक है। यहां मन को मारने का मतलब है मन में संसार को न बैठाना । मन में शारीरिक और ऐंद्रिक आवश्यकताओं में न बैठालना।

 अब हमें हमें महाभारत लिखने के समय वेदव्यास और गणेश के बीच शर्तों का रहस्य समझ में आने लगा है। हमारी शारीरिक इन्द्रिय सामर्थ्य की एक हद होती है। जिसके आगे हमारा मन मात खा जाता है और हम विभिन्न रोगों विकारों से ग्रस्त हो जाते हैं ।
मन की गति तीव्र होती है । मन की गति के तुलना में हमारे इंद्रियों शारीरिक आवश्यकताओं की सामर्थ एवं गति मात्र हजार वां भाग या इससे भी कम होती है। ऐसे में हम जीवन में  भटके हुए मुसाफिर से बन जाते हैं। इससे हटकर यदि मन हमारा मन शारीरिक एवं आंतरिक आवश्यकताओं के प्रति तटस्थ रहता है या नियंत्रित रहता है और हम आत्मा की ओर अग्रसारित  हो जाते हैं तो हमारी स्थिति चमत्कारिक हो जाती है, रहस्यमयी हो जाती है।जिसे हम ही महसूस कर सकते हैं।  जिन  हालातों में लोग दुखी हताश निराश से दिखते हैं,उन्ही हालत में कुछ लोग सुखी देखे गये हैं या तटस्थ देखे गए हैं।

एक अनुसंधानकर्ता का कहना है - गौतम बुद्ध की पगड़ी में जो गांठे हैं ,उन गांठों की संख्या 1000 है। इन 1000 गांठों का मतलब क्या है ? वर्तमान दशा से जब हम आगे बढ़ते हैं और कंठ चक्र से ऊपर बढ़ते हैं । ब्रह्मांड मंडल में प्रवेश करते हैं तब हमारी क्षमता वर्तमान क्षमता से हजार गुना होने की ओर अग्रसर होती है । फिर इससे आगे तो साधना करते करते जब हम आगे बढ़ते हैं और अनंत यात्रा में प्रवेश करते हैं तब कोई छोर ही नहीं ।यही कारण है अनेक साधक लोग कंपकपाते देखे गए हैं जब उन्होंने अपने अंदर शक्ति का एहसास होता है।




हम क्यों नहीं समझते कि हमारे अंदर व बाहर सर्वत्र वह प्राण उपलब्ध हैं जो अनन्त, शाश्वत, निरन्तर से सम्बद्ध है।



बुधवार, 22 जुलाई 2020

ऋषियों मुनियों की परंपरा का विश्व गुरु भारत:अशोकबिन्दु

              सहज मार्ग का उद्देश्य है-हर घर केंद्र व हर व्यक्ति स्वयं प्राणाहुति लेने में सक्षम।

              भारत है- प्रकाश में रत।

भारतीय है-प्रकाश रती, हम सब में मौजूद प्रकाश।
प्रकाश में हम हम में प्रकाश।



 यहां किसी को जाति, मजहब, सम्प्रदाय, आदतों आदि नजरअंदाज कर निरपेक्ष हो चिंतन करने की आवश्यकता है।
हमें 2500वर्ष पहले जाने की जरूरत है।जब काबा-काशी  में सभी  का आना जाना था।वर्तमान जाति, मजहब, पंथ,क्षेत्र,भाषा
में मानव नहीं बंधा था, बीजा-पासपोर्ट में न बंधा था।मानव प्रकृति के काफी नजदीक था।


देश को यदि मजबूत करना है तो प्रत्येक परिवार, घर,व्यक्ति  स्तर पर शासन को योजनाएं बनाने की जरूरत है।
देश स्वयं क्या है? देश व विश्व की समस्याएं स्वयं क्या हैं?ये मानव कुप्रबन्धन है।स्वयं देश व विश्व क्या? उसकी कोई समस्या नहीं है, यदि हम प्रकृति की नजर से देखते हैं।सारी कायनात की नजर से देखते हैं।समस्या तो मानव के जीवन मे है या मानव के कारण है।





सोमवार, 20 जुलाई 2020

धर्म क्या है?::अनिल गंगवार

------------------------ धर्म  क्या है ? ------------------------
          ' जहाॅ सभी धर्मो का अन्त होता है , वहाँ से आध्यात्मिकता का प्रारंभ होता है। जहाँ आध्यात्मिकता का अन्त होता है , वहाँ से सत्य का उदय होता है । जहाँ सत्य का अन्त होता है, वहाँ से आनन्द की शुरुआत होती है । '
                                                            - बाबूजी
          धारयति इति धर्माः अथार्त जो धारण किया जाता है वही धर्म कहलाता है । अब यह सबाल उठता है  क्या धारण करना चाहिए ?  क्योंकि धारण करना सही भी हो सकता है और गलत भी। सत्य , अहिसा , दया , क्षमा , संतोष , तप आदि  सदगुणों को धारण करना ही मानव धर्म है । मनु ने धर्म के दस लक्षण बताए हैं:-
              धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
              धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम्।।
अर्थात -
1 . धृति - धैर्य
2 . क्षमा - दूसरो के अपराध को माफ करना।
3 . दम - अपनी वासनाओ पर नियन्त्रण करना।
4. अस्तेय -चोरी न करना।
5. शोच - आंतरिक एंव बाहरी सफाई करना।
6. इन्दिय निग्रहः - अपनी इन्द्रियों को वश मे रखना।
7. धी - बुद्धिमता का प्रयोग करना।
8. विधा - अधिक से अधिक ज्ञान अर्जित करना।
9. सत्य  - मन , वचन और कर्म से सत्य का पालन करना।
10. अक्रोध - क्रोध न करना।
            धर्म का मूल स्वभाव खोज है । जब भी हम धर्म  के बारे में  चिन्तन करते है तो ऐसा प्रतीत होता होता कि हमे ईश्वर को खोजना है । मनुष्य इन दस सदगुणों को धारण कर सहजता से ईश्वर साक्षात्कार कर सकता है ।  मानवता मे इन लक्षणों का जब ह्रास होने लगता है  तब स्वयं परमात्मा को इस धरा पर आना  पडता है । जैसा कि भगवान श्रीकृष्ण ने गीता मे कहा है -
           यदा - यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
          अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम ।।
          अर्थात- जब-जब पृथ्वी पर धर्म की हानि होती है और अधर्म आगे बडता है , तब - तब मै इस पृथ्वी पर जन्म लेता हूँ ।
          अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि इन दस सदगुणों को धारण करने को ही धर्म कहते है । न कि हिन्दू , मुस्लिम , सिख , ईसाई आदि को । यह तो सम्पदाय या समुदाय है । सम्पदाय का अर्थ होता है-  एक ही  परम्परा को मानने वालो का समूह ।
          इस लिए बाबूजी ने कहां है - जहाँ धर्म का अन्त होता है वहाँ से आध्यात्मिकता का प्रारंभ । जब हम इन दस सदगुणों को अपने जीवन में आत्मसात कर लेते हैं । तब हम आध्यात्म के क्षेत्र में प्रवेश कर जाते है । इनको गृहण करने का सबसे उपयुक्त साधन गुरू के दिशा- निर्देशन मे अपनी साधना करना है । हम गुरु की कृपा और ईश्वर की भक्ति से ईश्वर साक्षात्कार कर सकते है । जो कि सभी सम्प्रदायों का मुख्य उद्देश्य रहाँ है और इसी कारण से सम्प्रदायों की उत्पत्ति हुई ।
          जब साधक आध्यात्मिकता क्षेत्र में प्रवेश कर ईश्वर साक्षात्कार कर लेता है तब वह सत्य के निकट पहुँच जाता है । क्योंकि सिर्फ ईश्वर ही एक मात्र सत्य है वाकी सब मिथ्या है । इस लिए बाबूजी ने कहाँ जहाँ आध्यात्मिकता का अन्त होता है वहाँ से सत्य का उदय होता है ।
          जब सत्य का अन्त होता है । वहाँ से आनन्द की शुरूआत होती है । अथार्त आत्मा परमात्मा मे विलीन हो जाती है । तब आत्मा का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है । यही आदि काल से मानव का उद्देश्य रहाँ है।




                                           - अनिल गंगवार, बहेडी

शनिवार, 18 जुलाई 2020

हम किसी व्यक्ति का विरोध क्यों करें?किसी से बोलना बन्द क्यों करें?:::अशोक बिंदु

सन्त परम्परा ही वास्तव में जीवन के करीब हमें लाती है।
सन्त परम्परा में रहा है-न काहू से दोस्ती न काहू से बैर।
जब सागर में कुम्भ कुम्भ में सागर ,तो किससे बैर किससे दोस्ती?
सनातन तो अभेद है,अद्वेत है। वह एक दशा है,स्थिति है।जो हमारे अंदर व जगत के अंदर है। जो स्वतः है,निरन्तर है,विकासशील है।



सनातन में विरोध की बात हमारी नजर में बेईमानी है।सबका अलग अलग स्तर होता है,समझ होती है।ऐसे में न विरोध न समर्थन।सिर्फ कर्तव्य, सेवा, मानवता, प्रेम....


हर स्तर पर सबके अलग अलग मत होते हैं।अलग अलग समझ का स्तर होता है।मास्टर का कार्य सभी को ऐसा माहौल देना, जिससे सब बन्ध सके।


एक स्कूल होता है।अनेक क्लास होते हैं।हर क्लास इसलिए मतभेद रखें कि हमारे क्लास में ये है ,तुम्हारे क्लास में है।और संघर्ष को अंजाम दे?सरासर मूर्खता है।

विरोध कैसा?जब स्तर ही अलग अलग...


कुदरत का ही हिस्सा हम है।कुदरत में विविधता, विभिन्नता होती ही है।लेकिन इस विविधता, विभिन्नता के बाबजूद भी एकता है।अनेकता में जो एकता महसूस करता है,वह विरोध में नहीं जा सकता।

वास्तविक ज्ञान तो हमारा अनुभव व अहसास है।आगे चल आत्मा हैं ...इससे भी आगे  परम्आआआत्मा है... इससे आगे भी है....निरन्तरता है, विकासशीलता है। विकसिता नहीं।  ऐसे में विरोध किसका।जो जिस स्तर जिस बिंदु पर है ,उस पर वही की बात कर रहा है। किसी ने कहा है कि निजता अपनी आत्मा है।निजता अपनी स्व तन्त्रता है। कोई हमारे विरोध में खड़ा है,सब हमारे विरोध में खड़े हैं। इससे क्या? हम अपनी निजता आत्मा  को क्या भूल जाएं?


               हम जो सोंचते हैं, यदि वह सम्पूर्ण कायनात, सम्पूर्ण प्रकृति  को नजर में लाकर है तो फिर ऐसे में यदि आप सिर्फ अपने हाड़ मास शरीरों  व उसके आचरण ,भौतिक संसाधन के लिए जीते हो तो हममें आपमें विरोध क्यों? प्रथम ग स्नातक क्लास में विरोध क्यों?तुलना क्यों?विविधताओं में विविधताओं से टकराना क्यों? विविधता में एकता के  दर्शन क्यों?




सनातन तो अद्वेत है, भेद मुक्त है।ऐसे में हमारा मिशन क्या है?::अशोक बिंदु

ज्ञान?
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गीता के अध्याय 4 में 19 श्लोक के माध्यम से योगेश्वर श्री कृष्णा ने बताया है कि जिस पुरुष द्वारा संपूर्णता से आरंभ किया हुआ नित्य कर्म का आचरण क्रमशः उत्थान होते-होते इतना सूक्ष्म हो गया की कामना और संकल्प को सर्वथा शमन हो गया।

 उस समय जिसे वह जानना चाहता है उसकी पहचान होती हो जाती है। उसी अनुभूति का नाम ज्ञान है।
 13 अध्याय में ज्ञान को परिभाषित किया है। आत्मज्ञान में एक रस स्थिति और तत्व के अर्थ स्वरूप परमात्मा का प्रत्यक्ष दर्शन ज्ञान है। क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ के भेद को विदित कर लेने के साथ ही ज्ञान है।

गीता के अध्याय 4 इस लोक 19 में पुरुष द्वारा संपूर्णता से आरंभ किया हुआ कर्म का आचरण इसी को सहज मार्ग में दूसरी तरह से पेश किया गया है। हम सब अभ्यासी जिस पर अमल करने की कोशिश करते हैं। आखिर में संपूर्णता क्या है ?
हम व जगत के तीन स्तर हैं- स्थल, सूक्ष्म व कारण। हर वक्त हमें संज्ञान रहना चाहिए ये। लेकिन बड़े बड़े ब्राह्मण ,पण्डित ,कथावाचक आदि ही इस आधार पर जीवन नहीं जीते। सहज मार्ग में ये नजरिया अति आवश्यक है।

 हजरत किबला मौलवी फजल अहमद खान साहब रायपुर के शिष्य श्री रामचंद्र जी महाराज फतेहगढ़ की याद में सन 1945 में शाहजहांपुर की धरती पर स्थापित श्री राम चंद्र मिशन श्रीमद्भागवत गीता के यज्ञ अर्थात प्रकृति अभियान के आधार पर है हम अपने आस-पड़ोस में देखते हैं कुछ लोग अपने ग्रंथों पर चिंता नहीं करते अपने ग्रंथों का अध्ययन नहीं करते लेकिन वे श्री रामचन्द्र मिशन की आलोचना करते रहते है । वे स्वयं किस स्तर के है या किस स्तर की विचारधारा रखते है या वे सनातन की वकालत करते नजर आते है क्या सनातन सोच रखते है?


ग्रंथो से स्पष्ट होता है कि आत्मा ही सनातन है।हमारे करीब में जो भी है, उनमें आत्म ही सनातन है। वही आत्मीयता है।वही जगदीश चन्द्र बसु की संवेदना है। अपने को सनातनी कहने की वकालत करने वाले श्री राम चंद्र मिशन का विरोध तो करते हैं लेकिन ग्रंथों में सनातन किसे कहा गया है बे इससे अनजान हैं उन्हें इस पर भी आपत्ति है कि कोई मुसलमान सहज मार्ग में संत है ऐसे लोग सनातनी कैसे कोई एक व्यक्ति कहता है जो कुछ भी दिख रहा है सब कुदरत है हम सब जीव जंतु सब कुदरत है इस सबके बीच हमारे अंदर जगत के अंदर कुछ है जो सोता है निरंतर है वही सनातन है सागर में कुंभ कुंभ में सागर ऐसी दशा में जाने की कोशिश करता है वह सनातनी है कि नहीं इस पर भी चिंता नहीं करते प्रकृति को भेज में खड़ा करने वाले अपने को सनातनी कहते हैं अनेकता में एकता महसूस ना करने वाले अपने को सनातनी कहते हैं वसुधैव कुटुंबकम की बात करने वाले स्वयं संसार को भेद की नजर में देखते हैं सागर में कुंभ कुंभ में सागर की स्थिति का विरोध करने लग जाते हैं अनजाने में उनका सनातन कैसा?



गीता के अध्याय 14 में योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं- अर्जुन उन बयानों में भी परम उत्तम ज्ञान को मैं फिर भी तेरे लिए कहूंगा। योगेश्वर उसी की पुनरावृति करने जा रहे हैं। भली प्रकार चिंतन किया हुआ शास्त्र भी बार-बार देखना चाहिए। इतना ही नहीं जो जो आप साधना पथ पर अग्रसर होंगे ज्यों-ज्यों जो उस ईस्ट में प्रवेश पाते जाएंगे त्यों त्यों ब्रह्म में से नवीन नवीन अनुभूत मिलेगी।
 यह जानकारी सद्गुरु महापुरुष ही देते हैं।

 जीवन तो निरंतर है ।शाश्वत है ।
वहां कुछ भी विकसित नहीं।
 विकसित होकर भी कुछ भी विकसित नहीं।
 विकासशील है .....निरंतर है ...यात्रा है।

 इसीलिए हम कहते हैं -हम अभ्यासी हैं। हम प्रयत्न शील हैं ।हम अभ्यास पंथ से हैं।

 जो लोग कहते हैं तुम्हारा मिशन क्या है?
 उन्हें स्वयं चिंतन मनन करना चाहिए ,अध्ययन करना चाहिए।
 अध्यात्म तर्क करने की चीज नहीं है ।अध्यात्म महसूस करने की चीज है ।

गीता के अध्याय 4 में बताया गया है जिस पुरुष द्वारा संपूर्णता से आरंभ किया हुआ नियत कर्म ।

आखिरी संपूर्णता क्या है?

 अभी तो हमारी कोशिश है संपूर्णता को विचारों कल्पना चिंतन मनन आज के माध्यम से जीवन के प्रत्येक लम्हा हरियाणा उससे जुड़े रहना।

वही सम्पूर्णता योग है।अल है।all है। हमारे व जगत के तीनों स्तरों-स्थूल, सूक्ष्म व कारण में संतुलन व अहसास।

कमलेश डी पटेल दाजी कहते हैं महत्वपूर्ण नहीं है कि आप आस्तिक हैं कि नास्तिक महत्वपूर्ण यह है कि आप अनुभव क्या करते हैं महसूस क्या करते हैं?





शुक्रवार, 17 जुलाई 2020

हाथ झाड़े और एजुकेशन से निकल लिया ::अशोकबिन्दु

दुनिया में हमें सिर्फ शिक्षित व्यक्तियों से शिकायत है

 जब शिक्षित व्यक्ति ज्ञान के आधार पर न चले तो और कौन चले?

 बाबूजी महाराज ने कहा है शिक्षित व्यक्ति वही है जिसके अधिकार खत्म हो गए सिर्फ कर्तव्य ही कर्तव्य रहे गए हैं।

 हम बाबूजी महाराज के इस कथन की वकालत करते हैं।

 हम कहते रहे हैं की शिक्षा और शिक्षित एक क्रांति है

क्रांति यानि कि परिवर्तन को स्वीकार करना।

 इस लेख को हम आगे पूरा करेंगे ।

इस पर हालांकि हम पहले भी लिखते रहें हैं।

 हम इतना ही कहना चाहेंगे शिक्षा रूपी घर से लोग हाथ झाड़ कर निकल लेते हैं।
 हाथ में सिर्फ डिग्रियां होती हैं। सोच ,नजरिया, चिंतन ,आचरण से हम एक आम आदमी की तरह ही समाज व समाज की घटनाओं पर प्रतिक्रियावादी होते हैं।आचरणवान होते है।



गुरुवार, 16 जुलाई 2020

ज्योति+ईष = ज्योति संकेत .......अन्तर्मुखीता::अशोकबिन्दु

ज्योतिष!!!
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अभी कुछ दिन पहले एक घटना घट जाने पर एक मतभेदी कह रहे थे ,ज्योतिषाचार्य सब कहाँ चले गए?उन्होंने पहले ही इस घटना होने का जिक्र क्यों नहीं किया?शायद उनका स्तर अभी इस वेदांग खण्ड तक का अहसास कराने में असमर्थ है??

                हमारा वेद कोई पुस्तक नहीं है,पुस्तक तो मात्र  उसका शब्दों में अभिव्यक्ति की कोशिश मात्र है.जो कण कण में व्याप्त  है उसमें व सृष्टि व प्रलय के वक्त जी स्थिति है,उसके अहसास में जीना ही वेद है,लयता है,ज्ञान है,प्रेम है,आकर्षण आदि है.जो हमारी इंद्रियों, दिल दिमाग से परे है.जगदीश चन्द्र बसु ने पेंड पौधों में भी सम्वेदना को पाया.. उन पेंड पौधों में न दिल दिमाग है न इंद्रियां... आज कल भी कहते मिल जाते है कि हम तो सनातनी है,लेकिन वे चिपके जातीय-मजहबी कर्मकांडों, धर्म स्थलों आदि में है..हम अनेक बार कह चुके हैं-वेद की स्थिति में पहुंचने के बाद सनातन का अहसास शुरू होता है...

@@ वेदांग@@@

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 वेदांगो की कुल संख्या 6 है, जो इस प्रकार है-

(1)शिक्षा -
वैदिक वाक्यों के स्पष्ट उच्चारण हेतु इसका निर्माण हुआ। वैदिक शिक्षा सम्बंधी प्राचीनतम साहित्य 'प्रातिशाख्य' है।

(2)कल्प -
वैदिक कर्मकाण्डों को ,सम्पन्न करवाने के लिए निश्चित किए गये विधि नियमों का प्रतिपादन 'कल्पसूत्र' में किया गया है।

(3)व्याकरण -

इसके अन्तर्गत समासों एवं सन्धि आदि के नियम, नामों एवं धातुओं की रचना, उपसर्ग एवं प्रत्यय के प्रयोग आदि के नियम बताये गये हैं।पाणिनि की अष्टाध्यायी प्रसिद्ध व्याकरण ग्रंथ है।

(4)निरूक्त -

 शब्दों की व्युत्पत्ति एवं निर्वचन बतलाने वाले शास्त्र 'निरूक्त' कहलातें है। क्लिष्ट वैदिक शब्दों के संकलन ‘निघण्टु‘ की व्याख्या हेतु यास्क ने 'निरूक्त' की रचना की थी, जो भाषा शास्त्र का प्रथम ग्रंथ माना जाता है।

(5)छन्द -

वैदिक साहित्य में मुख्य रूप से गायत्री, त्रिष्टुप, जगती, वृहती आदि छन्दों का प्रयोग किया गया है। पिंगल का छन्दशास्त्र प्रसिद्ध है।

(6)ज्योतिष -

 इसमें ज्योतिष शास्त्र के विकास को दिखाया गया है। इसकें प्राचीनतम आचार्य 'लगध मुनि' है।

   

    यहां पर हम फोकस ज्योतिष पर डालना चाहते हैं.हमारे पास पड़ोस ऐसे व्यक्ति होते रहते है,जो बताते रहते हैं-अरे ये घटना घट गई हमने तो ऐसा ऐसा सपना देखा था..... हम भी इस ओर बढ़ रहे हैं!!हमारे पास पड़ोस, हमारे साथ, हमारे परिजनों के बीच जो घटनाएं घटती रही हैं उसका हम पूर्व आभास पाते रहे हैं..हम स्थूल नेटवर्क से तो जुड़े होते हैं लेकिन अपने  सूक्ष्म जगत से जुड़ने का प्रयत्न भी नहीं करते!!मन व सूक्ष्म प्रबन्धन की यदि शिक्षा पर भी जोर दिया जाय जगत की सभी समस्याएं खत्म हो जाएं.. हम सब कुछ पा लेना तो चाहते हैं लेकिन अभी हम अपनी व अपनी परिजनों की ही सम्पूर्णता(अल/all/आदि) से जुड़े नहीं हैं.इसलिए सन्तों ने कहा है जिसने अपने को जान लिया वह जगत को भी जानने की ओर भी बढ़ जाएगा.. इस प्रेरणा से ही हमने एक fb ग्रुप #खुदयाखुदानजातिनपन्था बनाया. हमारे पिता जी जब स्थूल शरीर छोड़ने को थे तो एक रात हम सूक्ष्म जगत में पाए कि कुछ प्रकाश आकृतियां कह रहीं थी-आपके पिता जी शरीर त्याग दे तो कोई  दिक्कत टी नहीं आपकी?? हम उस वक्त सूक्ष्म से भी आगे की यात्रा पर थे, ऐसे में हम कैसे कह सकते थे-लाभ हानि, अच्छा बुरा की बात??जो है सो है???देवोत्थान एकादशी का आध्यात्मिक मतलब नहीं समझते, देव प्रतिष्ठा आदि का मतलब हम सम्पूर्णता की द्वष्टि से नहीं समझते.. दुनिया हम आचरण के आधार पर व्यक्ति को दो भागों में ही बांटते हैं-सुर व असुर.हम अभ्यासी हैं.न धार्मिक न आध्यात्मिक, न ईश भक्त न जाति पन्थ प्रेमी न  धर्म स्थल प्रेमी आदि....हम अपने अंदर की शक्तियों को तो पहले पहचाने!!!जर्मनी के वुल्फ़समैसिंग ने तो अपनी संकल्प/धारणा शक्ति  को जगा कर काफी कुछ कर डाला और समाज राज्य के दबंगो, तानाशाहों तक को हिला कर रख दिया.. अपनी धारणा से ही दूसरों की धारणा तक बदलने का काम कर डाला..ज्योतिष का मतलब हमारी नजर में ये है कि जो कण कण में व्याप्त है यदि हम उससे जुड़ने का प्रयत्न करने लगें तो हमे पूर्वाभास स्वत: होने लगता है..
#अशोकबिन्दु




फिजिकल डिस्टनसिंग/शारीरिक छुआछूत बनाम सनातन संस्कृति::अशोकबिन्दु


जीवन एक सफर है।इसमें हम उम्मीद नहीं रख सकते कि हर बार खिड़की से दृश्य एक सा ही या मनपसंद ही दिखे। ये वक्त है, गुजर ही जायेगा लेकिन वक्त का हर लम्हा हमारी नियति/भाग्य का जिम्मेदार है।

जब हम सिर्फ हाड़मास शरीर को लेकर ही जीवन भर लगे रहते है, तो फिर हमारी नियति कैसी बनेगी? ये तो हमारा अधूरापन है कि हम सिर्फ अपने हाड़ मास शरीर का व्यापार है। फिजिकल डिस्टनसिंग तो हमारे ऋषि परम्परा के समय से है। हमें अपनी सम्पूर्णता को समझना चाहिए।हम सिर्फ हाड़ मास शरीर नहीं हैं। हम आत्मा भी हैं। हम जीवन भर हाड़ मास शरीर की आवश्यकताओं में गुजार देते हैं। आत्मा की आवश्यकता को महसूस करना दूर, हम अपनी आत्मा को ही महसूस नहीं करते।हम आत्मा को ही जानने की कोशिस नहीं करते। हम तो यही कहेंगे कि अधिकतर सभी मांसाहारी ही हैं। किसी न किसी इन्द्रिय से कोई न कोई मांसाहार में लिप्त है।


उत्तर कांड, रामचरितमानस  में स्पस्ट लिखा केहै कि रोगों व दुख का कारण है काम।यहाँ काम से मतलब है, हाड़ मास शरीर की आवश्यकताओं में जीना।अब चाहें ये हमारे स्तर पर हो या फिर जगत स्तर पर।


विद्यार्थी जीवन में हमारा वास्ता-संस्कृति के समाजशास्त्र व धर्म का समाजशास्त्र से रहा है।जिसके अध्ययन के दौरान हमने जाना कि जीवन का हेतु है-पुरुषार्थ, शादी का उद्देश्य है-धर्म। यहां पर ये नहीं है कि हम हाड़मास शरीर के लिए ही सिर्फ  जिएं। हम यहां पर सोशल डिस्टेंसिंग की बात नहीं करना चाहेंगे हम बात कर रहे हैं फिजिकल डिस्टेंसिंग की गर्भधारण करने के साथ ही मनुष्य मां के शरीर ही नहीं मन मस्तिष्क से भी जो जाता है मां के शारीरिक मानसिक प्रभावों का असर गर्भावस्था में ही उस पर पड़ने लगता है 9 महीने के बाद जन्म के समय भी की परिस्थितियां उत्तरदाई होती हैं इसके बाद आगे उसके शैशव अवस्था में घर के वातावरण परवरिश का भी पड़ता है हमने देखा है की जन्म लेने के बाद बच्चे पर छुआछूत का असर पड़ता है किसी का बाहर से आना और बच्चे का स्कोर छूना एवं घर के अंदर बीमार व्यक्तियों के द्वारा उसको छूना आदि आदि इसके साथ ही हमने देखा है कि कुछ बच्चे जब खाना पीना चालू करते हैं इससे पूर्व बे ठीक होते हैं स्वस्थ होते हैं परिवार के अन्य सदस्यों के साथ खाना-पीना उन पर असर डालता है छुआछूत का पारिवारिक स्तर पर भी असर पड़ सकता है या असर पड़ता है

शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

श्रद्धा, नजरिया व तथाकथित कायरता:प्यार व मृत्यु के बीच ::अशोकबिन्दु

गीता में श्री कृष्ण ने कहा है कि मुझे पाने के लिए कुछ भी नहीं करना।
कर्म तो संसार की वस्तुओं को पाने के लिए करना है।हमे पाने के लिए सिर्फ श्रद्धा व नजरिया ही काफी है।

श्रद्धा एक है,वह सबकी अलग अलग नहीं होती।दिल एक है, वह न हिन्दू है न मुसलमान न अन्य। वहीं से सम्वेदना है।वहीं से आत्मियता है।
डॉ जगदीश चन्द्र बसु कहते हैं।पेड़ पौधों में भी सम्वेदना है।
जो सभी प्राणियों में उपस्थित है। जिसे लोगो ने आत्मा कहा है।वह को ज्ञान या वेद भी कहा गया है।यही कारण है कि मनुष्य के बिना  7उसमें सभी जीते हैं। ज्ञान या प्रकाश को दो तरह में रखा गया है,अंतर व बाह्य।विद्यार्थी जीवन को इसलिए ब्रह्मचर्य जीवन कहा गया है।प्राचीन काल में जब विद्यार्थी आश्रम में शिक्षा ग्रहण करने जाते  थे तो उन्हें पहले अपने शरीर का ज्ञान दिया जाता था।अपने को प्रशिक्षित ,विकास का मतलब है-पहले अपने को जानना।हम तीन स्तर पर हैं-स्थूल, सूक्ष्म व कारण। इन तीनों स्तरों के अहसास के लिए ही योग की शुरुआत थी। जहां से हम जगत को जानने की भी प्रक्रिया से भी जुड़ते थे।दुनिया भर किताबें रट लेने से हम ज्ञानी नहीं हो जाते।न ही आस्तिक।हम अनुभव क्या करते हैं?महसूस क्या करते हैं? ये महत्वपूर्ण है। अपने को,अन्य को व जगत को किस श्रद्धा व नजर से देखते हैं?


समाज व संस्थाओं में कुछ लोगों के द्वारा कुछ लोगों के बारे में सुनने को मिल जाता है कि-अरे, वह तो न ही में है शी में।कभी कोई कहता है-अरे, वह तो किधर का भी नहीं है।उसकी भी कोई बात?कोई कहता है-वह तो कायर है।इस तरह की अनेक बातें सुनने को मिलती हैं। लेकिन जमाना उसके स्तर, समझ, नजरिया, श्रद्धा से अंजान होता है,जिसके बारे में ऐसी बातें कही जाती हैं।

क्रांति बीज, ओशो कहते हैं-श्रद्धा व्यक्ति को समाज की नजर में कायर बनाती है।अन्तर्मुखीता व्यक्ति को कर्महीन


व आलसी बनाती है। इस कायरता व आलसीपन में वह साहस छिपा होता है जो समाज, सामाजिकता व आम आदमी में नहीं होती। अट्ठानबे प्रतिशत से भी ज्यादा का साहस सिर्फ अपने हाड़ मास शरीर,इन्द्रियक आवश्यकताओं के लिए होता है। न कि इसलिए कि वह अपनी आत्मा में डूबने की कोशिस कर रहा है।अपनी आत्मा में डूबने ही अंतर्मुखी होना है।आस्था चैनल, अनेक कथावाचक कार्यक्रम में कहा जाता है-ज्ञान के लिए अन्तर्मुखीता आवश्यक है।इस लिए कुछ लोगों ने विद्यार्थी जीवन को ,साधक जीवन को ब्रह्मचर्य जीवन कहा है।



योग के आठ अंग है।पहला अंग है-यम।यम को भी किसी ने मृत्यु कहा है।आचार्य को योगी को किसी ने मृत्यु कहा है। ओशो कहते हैं-मैं मृत्यु सिखाता हूँ। बाबू जी महाराज कहते हैं-अनन्त से पहले प्रलय है। या वे कहते है कि इस शरीर मृत्यु से पूर्ब इसे लाश की तरह बना लो। पार्थ सारथी राजगोपालाचारी जी कहते है-प्रेम का मतलब है मृत्यु। आत्मा में डूबने के मतलब ही को हम (लेखक) प्रेम कहते हैं । जिसमें लगे रहने से हम परम्+आत्मा की ओर बढ़ते है, आगे फिर अनन्त यात्रा की ओर....., समझे कुछ?!यहाँ से फिर सन्त परम्परा शुरू होती है, सनातन यात्रा शुरू होती है।कहने से क्या कि हम तो सनातन को मानते हैं ,आज कल के गुरुओं उनकी संस्थाओं के चक्कर में नहीं पड़ता।ये कुछ नया क्या कर रहे है?तुम क्या महसूस कर रहे हो?कि बस किताबे रट लिए हो?अपने अहंकार को बचाने के चक्कर में पड़े हो?

 हजरत क़िब्ला मौलबी फ़ज़्ल अहमद खान साहब रायपुरी के शिष्य लाला जी महाराज कहते हैं- क्रोध से मुक्ति पाने के लिए हमें स्वयं को विनम्र और तुच्छ समझना चाहिए इतना ही नहीं हमें स्वयं को ऐसा बनाने की कोशिश करनी चाहिए यही धारणा हमारे शरीर के रोम रोम में समा जाए आध्यात्मिकता में शांत और ठंडे मिजाज कीजिए जरूरत होती है ह्रदय इतना कोमल हो जाना चाहिए किक हवा के मामूली झोंके से झूलने लगे जब हम कुछ ऊंचाई पर पहुंचते हैं तो हमारी नजर उतनी ही नीचे भी पहुंचती है प्रकाश जी का रहस्य है यदि मालिक से जुड़े रहकर हम ऊपर उठते हैं तो फिर भी खुद को नीचे महसूस करते हैं तो क्या यह वही हालत नहीं है जिसका जिक्र मैंने अभी किया है हमारा जुनून यही होना चाहिए जो कुछ भी है सब तेरा है और जब ऐसा है तो किसी पछतावे की गुंजाइश ही कहां?



पार्थ सारथी राजगोपालाचारी एक पुस्तक प्यार और मृत्यु में कहते हैं वस्तुतः प्रेम का मतलब है मृत्यु जब प्रेम में हमारा अस्तित्व विलीन हो जाता है सर यह सोचना कि मुझे जिंदा रहना चाहिए जिससे मैं प्रेम का आनंद ले सकूं उसमें नहा सको डूब सकू मनोविज्ञान की भाषा में आत्ममुग्धता है और कुछ नहीं और एक विनाशकारी है मेरी राय में तो हे कहना की प्रेम और मृत्यु एक दूसरे से जुड़े हुए हैं इससे भी ज्यादा यह कहना उपयुक्त है की प्रेम ही मृत्यु है।


प्रेम एक प्रकार से वह डूब जाना है जो हमें अपनी आत्मा में दुआ देती है जहां हम अपने अस्तित्व का एहसास करते हुए आगे चलकर अपने अस्तित्व को भी भूल जाते हैं और परम आत्मा की ओर खो जाते हैं अनंत यात्रा का हिस्सा हो जाते हैं स्थिति हो जाती है सागर में कुंभ कुंभ में सागर प्रकाश में हम हम में प्रकाश सागर में लहर लहर में सागर आदि आदि ऐसे में जो भी कुछ होता है सब प्रसाद हो जाता है प्रसाद एक सिद्धांत है यहां पर फिर हमारे कर्म महत्वपूर्ण नहीं रह जाते हमारा नजरिया हमारा श्रद्धा महत्वपूर्ण रह जाता है हमारा सारथी तो कोई और हो जाता है तब हमें इस बात का भी अनुभव होने लगता है की उसके बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता तुम्हारे यह कहने से कुछ भी नहीं होता कि हम तो सनातन को मानते हैं हम तो ईश्वर को मानते हैं हम तो खुदा को मानते हैं महत्वपूर्ण बात यह है कि हम जानते क्या हैं महसूस क्या करते हैं अनुभव क्या करते हैं कमलेश डी पटेल दाजी ठीक कहते हैं महत्वपूर्ण यह नहीं है की आप आस्तिक हैं नास्तिक महत्वपूर्ण है कि आप महसूस क्या करते हैं अनुभव क्या करते हैं यह महसूस करना यह अनुभव करना ही वास्तव में आपका निजी ज्ञान है आपका ज्योतिष है ज्योति ईश है।


#अशोकबिन्दु


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रविवार, 5 जुलाई 2020

नाभिकीय संलयन.... नाभिकीय विखंडन के बीच आध्यात्मिकता::अशोकबिन्दु

06 जुलाई2020ई0!
श्रावण प्रारम्भ!शिव तत्व स्मरण!!
नक्त व्रत प्रारम्भ(जैन)!
वीर शासन जयंती!सोमवार,06.30am!



ध्यान के वक्त शुरुआत में ही हम ही- अहसास!
 पटेल जी दाजी ..हम अपने को दाजी साथ महसूस कर रहे थे...( इसके बाद पूरा शरीर दिव्य शक्तियों में भरा हुआ है ऐसा महसूस करना शुरू किया).... पूरे शरीर में अस्तित्व का एहसास .....अमोघ प्रिय आनंदम!..... अमोघ प्रियदर्शनम!!.... अमोघ प्रिय अनंतम !!.....सागर में कुंभ कुंभ में सागर !!....प्रकाश में हम, हम में प्रकाश !....चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश अंदर भी प्रकाश बाहर भी प्रकाश ....चारों ओर अंदर-बाहर दिव्यता ,दिव्य शक्तियां ......सागर में कुंभ, कुंभ में सागर...... हमारा हृदय जहां से दिव्य शक्तियां ,दिव्य प्रकाश पूरे शरीर में फैल रहा है.... अंदर बाहर सब जगह प्रकाश ही प्रकाश हृदय से दिव्य प्रकाश पूरे शरीर में फैल रहा है ....सभी प्राणियों की चेतना के स्पर्श में, संपर्क में  ...   वसुधैव कुटुंबकम, विश्व बंधुत्व  ....….
हृदय में उपस्थित दिव्य प्रकाश पूरे शरीर में फैल रहा है ....पूरा शरीर दिव्य प्रकाश से भरा हुआ है! जो ह्रदय केंद्रित..... नाभिकीय संलयन .......नाभिकीय विखंडन.....

 आज सावन !
स...अवन......?!

 वन...अरण्य जीवन...प्रकृति में रहते हुए सर्वव्याप्त स्वतः... निरंतर के एहसास में !

पहला सोमवार!


 सोम.... वार....!?

 चारों ओर जो प्रकाश उसका एक केंद्र .. ..  शिव तत्व ! आत्म प्रकाश .....!? जो विस्तार लेकर.... सागर में कुंभ कुंभ में सागर !!

पूरा शरीर दिव्य प्रकाश से भरा हुआ जो ह्रदय केंद्रित..... नाभिकीय संलयन..... नाभिकीय विखंडन......



#अशोकबिन्दु
@कबीरा पुण्य सदन