गुरुवार, 23 जुलाई 2020

हम बड़ा क्यों न चाहें?हमारी शारीरिक व इंद्रिक आवश्यकताओं से बड़ा कुछ भी नहीं क्या ::अशोकबिन्दु

सहस्र!हम वर्तमान क्षमता से भी सहस्र गुना क्षमता अपने अंदर छिपाए बैठे हैं..................अशोकबिन्दु

मन  स्थिर करने का मतलब क्या हो सकता है ?
हमारा अनुभव तो कहता है मंन स्थिर होने की स्थिति में भी गतिशीलता है ।
लेकिन हकीकत गतिशीलता एक चक्रवात की भांति है। सुना जाता है किसी चक्रवात का केंद्र स्थिर होता है, जिस प्रकार किसी बैलगाड़ी में पहिए की धूरी स्थिर होती है उसी तरह से हमारी आत्मा से जब मन जुड़ जाता है तो यही हालत होती है ।

यह बात सरासर गलत है कि मन को मार लो मन को मारकर बैठना खतरनाक है। यहां मन को मारने का मतलब है मन में संसार को न बैठाना । मन में शारीरिक और ऐंद्रिक आवश्यकताओं में न बैठालना।

 अब हमें हमें महाभारत लिखने के समय वेदव्यास और गणेश के बीच शर्तों का रहस्य समझ में आने लगा है। हमारी शारीरिक इन्द्रिय सामर्थ्य की एक हद होती है। जिसके आगे हमारा मन मात खा जाता है और हम विभिन्न रोगों विकारों से ग्रस्त हो जाते हैं ।
मन की गति तीव्र होती है । मन की गति के तुलना में हमारे इंद्रियों शारीरिक आवश्यकताओं की सामर्थ एवं गति मात्र हजार वां भाग या इससे भी कम होती है। ऐसे में हम जीवन में  भटके हुए मुसाफिर से बन जाते हैं। इससे हटकर यदि मन हमारा मन शारीरिक एवं आंतरिक आवश्यकताओं के प्रति तटस्थ रहता है या नियंत्रित रहता है और हम आत्मा की ओर अग्रसारित  हो जाते हैं तो हमारी स्थिति चमत्कारिक हो जाती है, रहस्यमयी हो जाती है।जिसे हम ही महसूस कर सकते हैं।  जिन  हालातों में लोग दुखी हताश निराश से दिखते हैं,उन्ही हालत में कुछ लोग सुखी देखे गये हैं या तटस्थ देखे गए हैं।

एक अनुसंधानकर्ता का कहना है - गौतम बुद्ध की पगड़ी में जो गांठे हैं ,उन गांठों की संख्या 1000 है। इन 1000 गांठों का मतलब क्या है ? वर्तमान दशा से जब हम आगे बढ़ते हैं और कंठ चक्र से ऊपर बढ़ते हैं । ब्रह्मांड मंडल में प्रवेश करते हैं तब हमारी क्षमता वर्तमान क्षमता से हजार गुना होने की ओर अग्रसर होती है । फिर इससे आगे तो साधना करते करते जब हम आगे बढ़ते हैं और अनंत यात्रा में प्रवेश करते हैं तब कोई छोर ही नहीं ।यही कारण है अनेक साधक लोग कंपकपाते देखे गए हैं जब उन्होंने अपने अंदर शक्ति का एहसास होता है।




हम क्यों नहीं समझते कि हमारे अंदर व बाहर सर्वत्र वह प्राण उपलब्ध हैं जो अनन्त, शाश्वत, निरन्तर से सम्बद्ध है।



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