शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

श्रद्धा, नजरिया व तथाकथित कायरता:प्यार व मृत्यु के बीच ::अशोकबिन्दु

गीता में श्री कृष्ण ने कहा है कि मुझे पाने के लिए कुछ भी नहीं करना।
कर्म तो संसार की वस्तुओं को पाने के लिए करना है।हमे पाने के लिए सिर्फ श्रद्धा व नजरिया ही काफी है।

श्रद्धा एक है,वह सबकी अलग अलग नहीं होती।दिल एक है, वह न हिन्दू है न मुसलमान न अन्य। वहीं से सम्वेदना है।वहीं से आत्मियता है।
डॉ जगदीश चन्द्र बसु कहते हैं।पेड़ पौधों में भी सम्वेदना है।
जो सभी प्राणियों में उपस्थित है। जिसे लोगो ने आत्मा कहा है।वह को ज्ञान या वेद भी कहा गया है।यही कारण है कि मनुष्य के बिना  7उसमें सभी जीते हैं। ज्ञान या प्रकाश को दो तरह में रखा गया है,अंतर व बाह्य।विद्यार्थी जीवन को इसलिए ब्रह्मचर्य जीवन कहा गया है।प्राचीन काल में जब विद्यार्थी आश्रम में शिक्षा ग्रहण करने जाते  थे तो उन्हें पहले अपने शरीर का ज्ञान दिया जाता था।अपने को प्रशिक्षित ,विकास का मतलब है-पहले अपने को जानना।हम तीन स्तर पर हैं-स्थूल, सूक्ष्म व कारण। इन तीनों स्तरों के अहसास के लिए ही योग की शुरुआत थी। जहां से हम जगत को जानने की भी प्रक्रिया से भी जुड़ते थे।दुनिया भर किताबें रट लेने से हम ज्ञानी नहीं हो जाते।न ही आस्तिक।हम अनुभव क्या करते हैं?महसूस क्या करते हैं? ये महत्वपूर्ण है। अपने को,अन्य को व जगत को किस श्रद्धा व नजर से देखते हैं?


समाज व संस्थाओं में कुछ लोगों के द्वारा कुछ लोगों के बारे में सुनने को मिल जाता है कि-अरे, वह तो न ही में है शी में।कभी कोई कहता है-अरे, वह तो किधर का भी नहीं है।उसकी भी कोई बात?कोई कहता है-वह तो कायर है।इस तरह की अनेक बातें सुनने को मिलती हैं। लेकिन जमाना उसके स्तर, समझ, नजरिया, श्रद्धा से अंजान होता है,जिसके बारे में ऐसी बातें कही जाती हैं।

क्रांति बीज, ओशो कहते हैं-श्रद्धा व्यक्ति को समाज की नजर में कायर बनाती है।अन्तर्मुखीता व्यक्ति को कर्महीन


व आलसी बनाती है। इस कायरता व आलसीपन में वह साहस छिपा होता है जो समाज, सामाजिकता व आम आदमी में नहीं होती। अट्ठानबे प्रतिशत से भी ज्यादा का साहस सिर्फ अपने हाड़ मास शरीर,इन्द्रियक आवश्यकताओं के लिए होता है। न कि इसलिए कि वह अपनी आत्मा में डूबने की कोशिस कर रहा है।अपनी आत्मा में डूबने ही अंतर्मुखी होना है।आस्था चैनल, अनेक कथावाचक कार्यक्रम में कहा जाता है-ज्ञान के लिए अन्तर्मुखीता आवश्यक है।इस लिए कुछ लोगों ने विद्यार्थी जीवन को ,साधक जीवन को ब्रह्मचर्य जीवन कहा है।



योग के आठ अंग है।पहला अंग है-यम।यम को भी किसी ने मृत्यु कहा है।आचार्य को योगी को किसी ने मृत्यु कहा है। ओशो कहते हैं-मैं मृत्यु सिखाता हूँ। बाबू जी महाराज कहते हैं-अनन्त से पहले प्रलय है। या वे कहते है कि इस शरीर मृत्यु से पूर्ब इसे लाश की तरह बना लो। पार्थ सारथी राजगोपालाचारी जी कहते है-प्रेम का मतलब है मृत्यु। आत्मा में डूबने के मतलब ही को हम (लेखक) प्रेम कहते हैं । जिसमें लगे रहने से हम परम्+आत्मा की ओर बढ़ते है, आगे फिर अनन्त यात्रा की ओर....., समझे कुछ?!यहाँ से फिर सन्त परम्परा शुरू होती है, सनातन यात्रा शुरू होती है।कहने से क्या कि हम तो सनातन को मानते हैं ,आज कल के गुरुओं उनकी संस्थाओं के चक्कर में नहीं पड़ता।ये कुछ नया क्या कर रहे है?तुम क्या महसूस कर रहे हो?कि बस किताबे रट लिए हो?अपने अहंकार को बचाने के चक्कर में पड़े हो?

 हजरत क़िब्ला मौलबी फ़ज़्ल अहमद खान साहब रायपुरी के शिष्य लाला जी महाराज कहते हैं- क्रोध से मुक्ति पाने के लिए हमें स्वयं को विनम्र और तुच्छ समझना चाहिए इतना ही नहीं हमें स्वयं को ऐसा बनाने की कोशिश करनी चाहिए यही धारणा हमारे शरीर के रोम रोम में समा जाए आध्यात्मिकता में शांत और ठंडे मिजाज कीजिए जरूरत होती है ह्रदय इतना कोमल हो जाना चाहिए किक हवा के मामूली झोंके से झूलने लगे जब हम कुछ ऊंचाई पर पहुंचते हैं तो हमारी नजर उतनी ही नीचे भी पहुंचती है प्रकाश जी का रहस्य है यदि मालिक से जुड़े रहकर हम ऊपर उठते हैं तो फिर भी खुद को नीचे महसूस करते हैं तो क्या यह वही हालत नहीं है जिसका जिक्र मैंने अभी किया है हमारा जुनून यही होना चाहिए जो कुछ भी है सब तेरा है और जब ऐसा है तो किसी पछतावे की गुंजाइश ही कहां?



पार्थ सारथी राजगोपालाचारी एक पुस्तक प्यार और मृत्यु में कहते हैं वस्तुतः प्रेम का मतलब है मृत्यु जब प्रेम में हमारा अस्तित्व विलीन हो जाता है सर यह सोचना कि मुझे जिंदा रहना चाहिए जिससे मैं प्रेम का आनंद ले सकूं उसमें नहा सको डूब सकू मनोविज्ञान की भाषा में आत्ममुग्धता है और कुछ नहीं और एक विनाशकारी है मेरी राय में तो हे कहना की प्रेम और मृत्यु एक दूसरे से जुड़े हुए हैं इससे भी ज्यादा यह कहना उपयुक्त है की प्रेम ही मृत्यु है।


प्रेम एक प्रकार से वह डूब जाना है जो हमें अपनी आत्मा में दुआ देती है जहां हम अपने अस्तित्व का एहसास करते हुए आगे चलकर अपने अस्तित्व को भी भूल जाते हैं और परम आत्मा की ओर खो जाते हैं अनंत यात्रा का हिस्सा हो जाते हैं स्थिति हो जाती है सागर में कुंभ कुंभ में सागर प्रकाश में हम हम में प्रकाश सागर में लहर लहर में सागर आदि आदि ऐसे में जो भी कुछ होता है सब प्रसाद हो जाता है प्रसाद एक सिद्धांत है यहां पर फिर हमारे कर्म महत्वपूर्ण नहीं रह जाते हमारा नजरिया हमारा श्रद्धा महत्वपूर्ण रह जाता है हमारा सारथी तो कोई और हो जाता है तब हमें इस बात का भी अनुभव होने लगता है की उसके बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता तुम्हारे यह कहने से कुछ भी नहीं होता कि हम तो सनातन को मानते हैं हम तो ईश्वर को मानते हैं हम तो खुदा को मानते हैं महत्वपूर्ण बात यह है कि हम जानते क्या हैं महसूस क्या करते हैं अनुभव क्या करते हैं कमलेश डी पटेल दाजी ठीक कहते हैं महत्वपूर्ण यह नहीं है की आप आस्तिक हैं नास्तिक महत्वपूर्ण है कि आप महसूस क्या करते हैं अनुभव क्या करते हैं यह महसूस करना यह अनुभव करना ही वास्तव में आपका निजी ज्ञान है आपका ज्योतिष है ज्योति ईश है।


#अशोकबिन्दु


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