शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

समाधि अथवा एकाग्रता की अवस्थाओं के तीन रूप:अशोकबिन्दु

 अपनी अपनी अन्तर्दशा के साथ वह अनुभव कि 'उसके मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता।"



समस्याएं प्रकृति में मानव समाज के बीच हैं।

हम  अपने होश संभालते मंदिर में जाकर प्रकृति के बीच जाकर मेडिटेशन करने लगे थे या फिर मौन होकर आसपास के वातावरण को अंदर ही अंदर महसूस करने की कोशिश करने लगे थे ।


मनुष्य की अज्ञानता का हम क्या कहें? उन दिनों हम कक्षा सात के विद्यार्थी थे ।मंदिर जाना सुबह शाम सहपाठियों के साथ लेकिन हम मूर्तियों के सामने केवल अंतर नमन कर लेते थे। जब मेडीटेशन करना शुरू किया तो हमारे हालात अंदर से काफी तेजी से बदलने शुरू हुए। हम मूर्ति पूजा को शुरू करते उससे पहले ही हमसे मूर्ति पूजा छूट गए। सहपाठी नास्तिक तक कह देते।


अनेक बार ऐसे हालात पैदा हुए कि हम कहीं खोए खोए से रहते ।काम सब होते ,बाजार जाते, सामान खरीद कर लाते ,आना जाना होता। सब कुछ चलता रहता हमें ताज्जुब होता हम कहीं खोए हैं हम संसार में नहीं हैं लेकिन तब भी हमारे द्वारा सांसारिक कार्य हो रहे हैं। समस्या कब हुई है? समस्या तय हुई है जब अचानक हम भीड़ में सड़क पर और इस दशा से निकले हैं तो कुछ समय के लिए हम संतुलित होने कुछ सेकंड लगाएं है इन सेकंड में हमारी हालत काफी गड़बड़ हुई सामंजस्य की कला भी जरूरी है मनुष्य समाज के बीच एवं भीड़ में शारीरिक इंद्रिय क्षमताओं पारिवारिक आवश्यकताओं लोगों की विभिन्न उम्मीदों आदि से टकराव हुआ है मालिक के भरोसे सब कुछ छोड़ देने पर ही सब कुछ अच्छा हुआ है यह भी सत्य है अनेक बार ऐसे समय से गुजरे हैं जब जिंदगी जीना मुश्किल लगा है लेकिन वक्त गुजरा तो सब कुछ बेहतर था अनेक शंकाएं अनेक भ्रम मात्र बकवास निकले अनेक बार हमने महसूस किया वास्तव में जीवन को चलाने वाला कोई और है इस धरती पर माता पिता यह बढ़कर कोई नहीं लेकिन माता-पिता से बढ़कर भी कोई है प्रकृति अभियान एवं ब्रह्म अभियान।


 एक दिन हम सत्य का उदय पुस्तक का अध्ययन कर रहे थे जिसमें अध्याय 9 साक्षात्कार । इस अध्याय में हमने पढ़कर जो महसूस किया उससे हम अनेक शंकाओं और भ्रम से उभरे । इस अध्याय में बाबूजी महाराज कहते हैं --समाधि अथवा एकाग्रता की अवस्थाओं के तीन रूप होते हैं।
 इनमें से प्रथम तो वह है जिसमें मनुष्य अपने को खोया हुआ या डूबा हुआ महसूस करता है  उसकी इंद्रियां ,भाव तथा आवेग कुछ समय के लिए ऐसे निलंबित हो जाते हैं मानो वे उस समय के लिए निर्जीव हो गए हैं  वह घोर निद्रा में सोए हुए मनुष्य की भांति होता है ।जिसे किसी बात की चेतना नहीं रहती ।

 दूसरा रूप वह है जिसमें यद्यपि मनुष्य एक बिंदु पर पूर्णता एकाग्र चित्त है फिर भी उसमें अपने को वस्तुतः डूबा हुआ महसूस नहीं करता इसे अवचेतनता मैं चेतनता अवस्था कहां जा सकता है। स्पष्टता उसे किसी बात की इतना नहीं रहती फिर भी उसके अंदर चेतनता विद्यमान रहती है। यद्यपि केवल छाया रूप में ही एक मनुष्य।
किसी  पर गहरे तौर से सोचता हुआ सड़क पर चलता जाता है। वह उस समस्या के चिंतन में इतना डूबा हुआ है कि अन्य सभी वस्तुओं के प्रति अचेतन है और न तो वह रास्ते में कोई वस्तु देखता है न आस पास की कोई आवाज या बातें सुनता है । वह मन की एक अचेतन अवस्था में चलता जाता है फिर भी सड़क के किनारे किसी पेड़ से बेहतर आता नहीं और ना उस रास्ते में आने वाली किसी मोटर से ही दब ता है वह अपनी अचेतन अवस्था में अनजाने ही इन सभी आवश्यकताओं के प्रति सजग रहता है और अवसर के अनुसार कार्य करता है किंतु उसे उन कार्यों की  कोई चेतना नहीं रहती यह चेतन में चेतन की अवस्था है। इस मन: स्थिति में अन्य वस्तुओं की चेतना सुक्त प्राय रहती है और उसकी छाप नहीं पड़ती।


 तीसरा रूप सहज समाधि का है। एकाग्रता का सर्वोत्तम रूप है ।इस स्थिति में मनुष्य अपने कार्यों में व्यस्त रहता है  मन उस में लगा रहता है परंतु उसका अंत: स्थल उसी सत्य वस्तु पर स्थिर रहता है अपने चेतन मन से तो वह बाहर कार्यों में व्यस्त रहता है पर उसका अवचेतन मन दैवी विचारों में व्यस्त रहता है ।
प्रत्यक्ष रूप से सांसारिक कार्यों में व्यस्त रहते हुए भी वह सारे समय समाधि की दशा में रहता है । यह समाधि का उच्चतम रूप है और इस स्थिति में मनुष्य के स्थाई रूप में प्रवेश करने के उपरांत करने के लिए बहुत थोड़ा ही शेष रह जाता है। साधना के क्रम में प्राप्त होने वाली विभिन्न आध्यात्मिक स्थितियों की विशेषता है प्रकृति के कार्यों के लिए विशिष्ट शक्ति एवं क्षमता की प्राप्ति सबसे नीचे का क्षेत्र  पिंड देश है जो वक्ष स्थल में स्थित विभिन्न छोटी छोटी ग्रन्थियों से मिलकर बना है। यह पंचाग्नि विद्या का केंद्र है जिसका उल्लेख प्राचीन हिन्दू धर्म शास्त्रीं में अधिकतर हुआ है। जब मनुष्य इस क्षेत्र का ज्ञान प्राप्त कर लेता है तो उसमें भौतिक तत्व के विज्ञान का सहज ज्ञान स्वता विकसित हो जाता है जिसे वह समुचित अभ्यास एवं अनुभव के उपरांत अपनी इच्छा अनुसार प्रयोग में ला सकता है पर जहां तक आध्यात्मिकता का संबंध है यह उपलब्धि उसके किसी काम की नहीं अतः एक उचित प्रशिक्षण विधि में उन सभी भौतिक शक्तियों के प्रति साधक को अ सावधान कर दिया जाता है तथा गुरु की ध्यान शक्ति द्वारा उन्हें पार करने में सहायता दी जाती है जिससे उसका मन केवल शुद्ध आध्यात्मिक विषय के अतिरिक्त अन्य किसी और आकृष्ट ना हो वह तब अपने ऊपर संपन्न हुए छोटे-मोटे दिव्य कार्य करने की स्थिति मैं हो जाता है उसका कार्य क्षेत्र उस अवस्था में एक छोटा स्थान होता है जैसे एक कस्बा एक जिला अथवा कोई और बड़ा खंड उसका कार्य अपने क्षेत्र के अंतर्गत सभी क्रियाशील वस्तुओं की प्रकृति की मांग के अनुरूप उचित व्यवस्था करना है वह अपने क्षेत्र में वांछित तत्वों का सर निवेश करता है और अवांछित तत्वों को हटाता है उसे ऋषि कहते हैं और उसका पद बसु होता है।



इसको पढ़ने के बाद हम विचार करने लगे सूक्ष्म जगत में भी अनेक पद हैं ऋषि या बसु के बाद ध्रुव पद या मुनि इससे आगे भी अनेक पद उपस्थित हैं।




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