मंगलवार, 27 अप्रैल 2021

अकेला ही काफी है, आचार्य है मृत्यु योगी है मृत्यु::अशोकबिन्दु

 हम स्वयं क्या है?

हम स्वयं में अनन्त प्रवृतियों से जुड़े है।

हम आत्मा के रूप में स्वयं आत्मियता है, विद्या हैं ,ज्ञान हैं, अनन्त क्षमता हैं, अनन्त प्रवृति हैं, स्वतः हैं ,निरन्तर हैं.... हमारा जीवन अनन्त काल तक है।

ये तन सीमित काल, सीमित क्षमता तक है।

योग है जोड़, घटना नहीं।

उसका पहला अंग यम है-मृत्यु!

आचार्य है मृत्यु, योगी है मृत्यु....?!

इस तन से आत्मा अलग खड़ी हो जाये तो ये तन स्वयं क्या है? सिर्फ लाश...?!

अब भी वक्त है सम्भल जाओ!!

ये तन ही एक दिन कफ़न हो जाएगा...

जयगुरुदेव का कहना है, अभी बहुत कुछ सहना है।।


#दिल्ली की गद्दी से देश का भला नहीं होगा?

#दिल्ली भूतों का डेरा है।

#अतीत व पूर्वाग्रहों से जीने वाले देश व समाज का भला न कर सकेंगे।

#वर्तमान दल व नेता समाधान में असफल होंगे।

#90 प्रतिशत भी वोटिंग करने वाले राजनीति में सक्रिय रहने वाले आज के लोग भी समाधान खोजने में असफल होंगे।

#समाधान शेष बचे 10 प्रतिशत लोग देंगे।

#मुहम्मद तुगलक के राजधानी परिवर्तन की योजना का राज स्वयं वह ही जानता था।

#नेता जी सुभाष चन्द्र बोस भी भविष्य में देश की राजधानी परिवर्तन पर हल्का सा फोकस डाले थे।

#भविष्य में दक्षिण भारत एक द्वीप के रूप में बदल जाएगा, वह दुनिया के लिए महत्वपूर्ण होगा।पंजाब, गुजरात तो वर्तमान हालात में खास होगा सिर्फ।

#जागो तभी सबेरा।

#दुनिया में कोई समस्या नहीं है।समस्या स्वयं मानव व मानव समाज है।

#दुनिया में खतरा सिर्फ वह प्राणी है जो  इंसान का जाता है लेकिन उसमें इंसानियत है नहीं।

#दुनिया में सबसे बड़ा भ्र्ष्टाचार शिक्षा है।

अन्य.....

@अशोक कुमार वर्मा 'बिन्दु'












https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=3636129019945536&id=100006454216984&sfnsn=wiwspwa


शनिवार, 24 अप्रैल 2021

श्री महावीर जयंती:: महाव्रत प्रकृति अभियान/यज्ञ से सम्बद्ध होने का आगाज::अशोकबिन्दु

 


जब वीर की बात चलती है।

हमारा ध्यान जैन पर जाता है,जिन पर जाता है।

वीर हमारी नजर में  दो तरह के हैं-अंतर्मुखी व बहिर्मुखी।

महावीर का महाव्रत योग के अंगों में से पहले अंग है-सत्य, अहिँसा,अस्तेय, अपरिग्रह व ब्रह्मचर्य।

एक बार महावीर जैन अपने संघ के साथ एक गांव के बाहर देव स्थान पर आकर रुके। वहां वे साथ आठ दिन रहे और सद्चर्चा की।

वे रोज अपना भिक्षा पात्र लेकर गांव जाते और खाली ही भिक्षा पात्र लेकर वापस आ जाते।

गांव में कौतूहल होता, स्वामी को घर घर लोग भिक्षा देने के लिए तैयार लेकिन तब भी वे खाली पात्र लेकर गांव से वापस चले आते।


इस तरह  अनेक दिन बीत गए। 

लोगों ने एक दिन देखा कि इस बार पात्र खाली नहीं है। वास्तव में भिक्षा पात्र खाली न था।

लोगों ने पूछा।

दरअसल, महावीर गांव क्षेत्र में प्रवेश करते मन ही मन संकल्प लिए थे कि जिस घर के दरबाजे पर कोई स्त्री काले  कपड़े पहले हमें भिक्षा देने लिए खड़ी होगी,तभी हम उससे भिक्षा ग्रहण करंगे।


हमारा विश्वास कहाँ पर टिका है?नब्बे प्रतिशत लोग भूत योनि की संभावनाओं में ही जीते हैं।


हम अपनी पूर्णता में जीते कब है ? हमसब के अन्दर दिव्यताओं की संभावना हैं, हम सब प्राकृतिक मूर्ति है।हममे प्राकृतिक प्राण प्रतिष्ठा है। हम उसको कब अवसर देते हैं?

संकल्प व अंतर शक्तियों की आजमाइश में हम कब रहते हैं?जड़ भरत व ऋषभदेव का महाव्रत है, संकल्प व अन्तरशक्तियों को अवसर देना।यह कहने से काम नहीं चलता कि हम आस्तिक हैं, हम सनातनी हैं।हम आजमाइश किसकी करते हैं ?यह महत्वपूर्ण है।

किसी ने कहा है योगी है मृत्यु।आचार्य है मृत्यु। विश्वास है ,आस्तिकता है-आत्मा या अंतर्चेतना, या अंतर व्याप्त स्वतः, निरन्तर पर विश्वास। जो जगत में मृत्यु से कम नहीं है।


चारो ओर अंधेरा ही अंधेरा है, जंगल है, प्रकृति है।अफसोस सब बनावटों, पूर्वाग्रहों  में विश्वास करते हैं।आत्मा व आत्मा के गुणों, आत्मा के वातवरण  को स्वीकार किया नहीं अर्थात आत्मियता, आत्म बल, आत्म प्रतिष्ठा, आत्म सम्मान, आत्म धर्म को जिया नहीं परम् आत्मा को क्या जिएगा? इसलिए कमलेश डी पटेल दाजी का कहना है कि  तुम आस्तिक हो या नास्तिक ये महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है कि तुम।महसूस क्या क्या करते हो?तुम्हारी समझ व चेतना का स्तर क्या है?


हम कहते रहे हैं कि लोग बुद्ध व जैन को अनीश्वरवादी मानते है लेकिन हम नहीं।  वैसे भी दुनिया उनके खिलाफ रही है जिनमें धर्म पैदा होने के लिए लालाइत रहाहै। दुनिया तो पाखण्ड।में।रही है।

#अशोकबिन्दु

सोमवार, 19 अप्रैल 2021

20 अप्रैल 2021/दुर्गाष्टमी !!एक स्त्री का शिष्य/सिक्ख होना::अशोकबिन्दु

 संभवत 90% सृष्टि् का कारण का कश्यप ऋषि हैं । मानव समाज अनेक वर्ग,भेद आदि में फ़ंस गया। इसका कारण उनकी माताएं अलग अलग होना है । एक स्त्री का मानव सभ्यता में बड़ा योगदान रहा है ।

कश्यप ऋषि की जो पत्नियां थीं, उनकी उपस्थिति बताती है कि सभी कश्यप बंशी भी नहीं हैं। 
पेरू की सभ्यता में मिले अवशेषों ,अन्य से ज्ञात होता है किI मातृ सत्ता महत्वपूर्ण थी। जो कबीले अपना पूर्वज दूसरी धरती लुन्धक से आया मानते हैं ,वह #मत्स्यमानव  स्त्री था कि पुरुष ये रहस्य है।

कुछ विद्वानों ने कहा है कि मानव का शिष्य होना क्रांतिकारी घटना है और किसी स्त्री का शिष्य/शिष्या होना तो काफी बड़ी क्रांतिकारी घटना है।
स्त्री समाज व मानवता का आधार है । वही संस्कार बुनती है। वह पहली शिक्षिका है।
वर्तमान जातियां कश्यप की संतानें हैं लेकिन उनकी माताएं अलग अलग हैं।उन माताओं  के कारण ही मानव समाज में अनेक महाकुल, कुनबा, क़ुरमा, कुलमा बने।इसलिए एक समाज शास्त्री ने कहा है कि कुर्मी कोई जाति नहीं थी वरन जाति पुंज था।जो आदि कुटुंब संस्कृति, आदि मानव झुंड के संवाहक थे।परिवार व्यवस्था के पोषक थे। यहां विषय है-मातृ सत्ता का। उसका प्रशिक्षित होने का।
वैसे तो स्त्री हो पुरुष दोनों का शिष्य होना महान घटना है लेकिन सबसे महत्वपूर्ण घटना है किसी स्त्री का शिष्य/शिष्या होना।

शनिवार, 10 अप्रैल 2021

इंसानों के समाज में इंसान को कुचला जा रहा है ::अशोकबिन्दु

 हम क्या हो रहे हैं?!

अच्छे दिन आ गए?किसके ?!

किसके अच्छे दिन?! 

हो क्या रहा है?!

जातिवाद बढ़ रहा है.. 

सम्प्रदायिकता बढ़ रही है,

बेरोजगारी बढ़ रही है,

नशा व्यापार बढ़ रहा है,

सेक्स व्यापार बढ़ रहा है,

बाबा जी की सरकार है-

मंदिर बन रहा है?!

मोदी की सरकार है-

विदेश नीति बेहतर कर रहा है?!

सब, अच्छा हो रहा है?!

कोशिस है-

मत देखो आधा गिलास खाली है,

देखो-

आधा गिलास भरा है।

किसी के लिए हिन्दू खतरे में है,

किसी के लिए मुसलमान खतरे में है;

कुदरत से पूछो-

इंसानियत से पूछो-

आध्यत्म से पूछो-

कौन खतरे में है?

कुदरत में कोई समस्या नहीं,

समस्या स्वयं मानव समाज में है;

हजार वर्ष बाद-

बची खुची मानवता तुम पर थूकेंगी,

तुम्हारे द्वारा खड़ी की गई मूर्तियों -धर्म स्थलों पर,

 बैठने को पक्षी भी न होंगे,

कुदरत तुम पर हंसेगी।

महाभारत बाद-

द्रोपदी, गांधारी, धृतराष्ट्र की आत्माएं-

अब भी रो रही हैं,

मगर

नये नये किरदार द्रोपदी, गांधारी, धृतराष्ट्र के सजे खड़े हैं,

विदुर पहले जैसा था आज भी बैसा है।

दुनिया का सबसे बड़ा भृष्टाचार है-शिक्षा,

संबसे बड़ी है समस्या-

आज का इंसान इंसान नहीं है,

इंसानों की भीड़ में-

इंसानियत ढूढ़ती पहचान है।

#अशोकबिन्दु


इंसान बनो  इंसानियत स्वीकारो!


शनिवार, 3 अप्रैल 2021

अंगुलिमाल की गलियों में अहिंसा का अस्त्र::अशोकबिन्दु


 चलो ठीक, सामने वाला अपराधी ही हम मान लेते हैं।


लेकिन उसके प्रति हमारा व्यवहार क्या होना चाहिए?

हर व्यक्ति का अपना अपना स्तर होता है। 

आप उसके खिलाफ खड़े हो?! स्वयं आपकी चेतना व समझ का स्तर क्या है? 


हर व्यक्ति का अपना अपना स्तर है।तुलना को विद्वानों ने गलत बताया है। पांचों अंगुलियां एक सी नहीं होती।लेकिन वह हथेली से जुड़ी होती है।हथेली व अंगुलियों का संचालन कहीं और से होता है।हथेलियों सहित अंगुलियों का स्तर भी अलग अलग होता है। तब भी मुट्ठी बनती है। मुठ्ठी बनती है।इन अंगुलियों, हथेली, अंगुलियों सहित हथेलियों आदि के साथ साथ उससे सम्बद्ध हाड़ मास शरीर भी होता है।इस हाड़ मास शरीर में स्वतः, निरन्तर भी होता है, अनन्त से आती ऊर्जा भी होती है। चारो ओर मानव, जीवजन्तु, प्रकृति, जगत, ब्रह्मांड आदि हमारी इच्छाओं की औकात कहाँ तक है? बुद्ध तो इच्छाओं को ही दुःख, कुप्रबंधन, भ्रष्टाचार आदि का कारण बताते हैं।लोग संस्थाओं, समाज, धर्म के ठेकेदार बने बैठे हैं?


महाभारत के बाद द्रौपदी तक अफसोस करती है जो महाभरत के कम उत्तरदायी नहीं है। चलो ठीक है सामने वाला अपराधी है।तो हम क्या करेंगे? द्वेष, ईर्ष्या, अशांति, असन्तुष्टि, भेद ,जबरदस्ती, हिंसा के परिणाम बेहतर होकर भी कितने बेहतर हो सकते हैं?उसके परिणाम शाश्वत, सहज, सरल नहीं हो सकते। एक युद्ध दूसरे युद्ध को जन्म दे देता है क्यों न पहले युद्ध का परिणाम कितना भी कितने समय के लिए भी हमें  बेहतर लगे।जीवन एक पड़ाव, हजार पड़ाव तक सीमित नहीं है।वह अनन्त यात्रा की जिम्मेदारी है।उपदेश, कथावाचक, वर्तमान का सुकून भी कहीं गहराई में उपद्रव छिपाए हुए हो सकता है।हर बिंदु व चक्र पर दो सम्भावनाएं छिपी होती हैं।आज हम विश्व स्तर पर जिन कौमों को विश्व शांति, बसुधैव कुटुम्बकम के रास्ते पर अवरोध मान रहे हैं, वे कारण वर्तमान के नहीं हैं सिर्फ।वे भी अनन्त काल से हैं। मूल तक कभी  जाया ही नहीं गया। श्रीकृष्ण की तश्वीरों के सामने आरती घुमाने वालों की कमी नहीं लेकिन अपने व्यवहारिक जीवन में उनके सन्देशों, महाकाल का विराट रूप आदि की समझ रखने वाले कितने हैं?

चलो ठीक है।सामने वाला अपराधी है।

आपके व्यवहार व कर्म कितने भी बेहतर हों लेकिन उसमें पैदा हुआ आपके प्रति द्वेष, भेद आदि का परिणाम कहाँ तक जाता है?उसका असर क्या पड़ता है?

चलो ठीक है सामने वाला अपराधी है लेकिन  बसुधैब कुटुम्बकम का मतलब क्या है? धार्मिक अनुष्ठानों में गला फाड़ फाड़ ये चीखने का मतलब क्या है--"जगत का कल्याण हो!जगत का कल्याण हो! "

प्राणाहुति परंपरा और ऊर्जा शरीर ऊर्जा,चेतना कुम्भ ,ज्योतिर्लिगों के पीछे का रहस्य::अशोकबिन्दु



 अपनी व जगत के प्रकृति की पूर्णता की समझ और एहसास ही वास्तव     में ज्ञान    है जो   ही वास्तव में     सनातन की और ले जाता है।

ऋषि या नबी परम्परा के नीचे यदि कोई बेहतर परम्परा है तो वह है आचार्य होना।साधकों, विद्यार्थियों व समाज के लिए जो अभ्यासी होने,विद्यार्थी होने, नम्रता व शालीनता में रहते हुए समर्पण व शरणागति में रहने की प्रेरणा देता है।

महाभारत युद्ध के बाद हम इस हेतु पहली खामोश रूहानी क्रांति हजरत इब्राहीम (ई0पूर्व 2000) को मानते हैं। जो सिंधु नदी के पश्चिम में कलियुग में अनेक व्यक्त अव्यक्त रूहानी क्रांति की शाखाओं को स्फुटित किया जो कि मजहबी ,साम्प्रदायिक, जातीय, कर्मकांडीय आदि न था। 

महाभारत के बाद सिंधु नदी के पूर्व में जैन(जिन) व बुद्ध के रूप में ये क्रांति सम्भव हो सकती।ब्रह्मपुत्र नदी के उत्तर में लाओत्से व कन्फ्यूसियस के माध्यम से। 



मानव चेतना का विकास हो सकता है।ऐसा वह कर सकता है।जो इस धरती पर आदियोगी या शिव शंकर की तरह पूर्ण हो सकता है। सप्त ऋषियों,नबियों  के बाद 15000 वर्षों पूर्व एक सन्त था, जो इस हेतु एक ऊर्जा शरीर बनाना चाहा--मैत्रेय।


ऊर्जाओं को बांधना कैसे?उसकी तीव्रता सामाजिक स्तर पर जांची नहीं जा सकती। परिस्थितियों को ठीक से कैसे संभाला जाए? प्राण प्रतिष्ठा / प्राणआहुति/प्राण सम्मान/आत्म सम्मान  के लिए कैसे तैयार किया जाए ? तंत्र को कैसे समझा जाए ?तंत्र को कैसे उसके हिसाब से ही सहज रखा जाए ? हमारे अंदर और जगत की प्रकृति में जो स्वत:, निरंतर, शाश्वत व्यवस्था है - प्राकृतिक अभियान है ; उसको उसके ही आधार पर कैसे सहज रखा जा सके ? योगी समीरा का सपना भी अधूरा रह गया क्योंकि ऐसा किसी प्राणी में करना असंभव था। ऐसे में ज्योतिर्लिंग/शिवलिंग के माध्यम से प्राणाहुति के लिए प्रयत्न किए गए। लेकिन इसके लिए बेहतर प्रयत्न ऋषियों, नबियों ने स्वयं के प्राणों, चेतना, आत्मा के माध्यम से ही किया। राजा दशरथ से 72 पीढ़ी पूर्व जो परम्परा थी उसको ऋषियों, नबियों,सूफी संतों में देखा गया। 

हजरत क़िब्ला मौलवी फ़ज़्ल अहमद खान साहब रायपुरी व उनके शिष्य रामचन्द्र जी फतेह गढ़ ने इसे आगे बढ़ाया। वर्तमान में इसे लेकर अनेक चल रहे हैं।लेकिन इसे समाज, सम्प्रदाय, स्थूलताएँ नहीं समझ सकती।इसके लिए खामोशी ,अन्तरमुखिता चाहिए।जो अंतर व्याप्त व सर्वव्यापी है उसे ध्यान व योग के माध्यम से ही समझा जा सकता है।चेतना व प्राण जगत को सांसारिक कर्मकांड,जातिवाद, साम्प्रदायिकता,मानव की भौतिक लालसाएं आदि नहीं समझा सकती। कमलेश डी पटेल दाजी कहते हैं कि तुम अपने को नास्तिक कहते कहते हो या आस्तिक, सनातनी कहते हो या गैरसनातनी ,ब्राह्मण समझते हो या गैर ब्राह्मण आदि आदि यह महत्वपूर्ण नहीं है।महत्वपूर्ण ये है  कि तुम महसूस क्या करते हो, अनुभव क्या करते हो?
कुम्भ मेलों, ज्योतिर्लिगों की स्थापना आदि का भी यही उद्देश्य था,यज्ञ का भी यही उद्देश्य था कि हम प्रकृति अभियान, प्राण जगत को समझें, चेतना जगत को समझे।

वर्तमान में हम सब श्री रामचन्द्र मिशन & हार्टफुलनेस आदि के माध्यम से इस हेतु खामोशी से लगे हुए हैं । हमें अफसोस है कि विद्यार्थी, शिक्षकों,शिक्षितों की भीड़ की भीड़ में हम हैं लेकिन पिसे चले जा रहे हैं।उनकी भी समझ, चेतना का स्तर आगे नहीं बढ़ पा रहा है।हम भी सिर कोशिस ही कर पा रहे हैं।अतीत क़ा प्रभाव बड़ा सघन है।
#अशोकबिन्दु


गुरुवार, 1 अप्रैल 2021

वेदांगों में ज्योतिष पर हम केंद्रित होते रहे हैं::अशोकबिन्दु


   शिक्षा,कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, छन्द और निरूक्त वेदांग हैं। हम आज की तारीख तक ज्योतिष को छठ वां अंग ही मानते हैं।ज्योति+ईष अर्थात ज्योति का संकेत। वेद हमारे लिए पुस्तक नहीं वरन दशा है।




  1. शिक्षा - इसमें वेद मन्त्रों के उच्चारण करने की विधि बताई गई है। स्वर एवं वर्ण आदि के उच्चारण-प्रकार की जहाँ शिक्षा दी जाती हो, उसे शिक्षा कहाजाता है। इसका मुख्य उद्येश्य वेदमन्त्रों के अविकल यथास्थिति विशुद्ध उच्चारण किये जाने का है। शिक्षा का उद्भव और विकास वैदिक मन्त्रों के शुद्ध उच्चारण और उनके द्वारा उनकी रक्षा के उदेश्य से हुआ है।
  2. कल्प - वेदों के किस मन्त्र का प्रयोग किस कर्म में करना चाहिये, इसका कथन किया गया है। इसकी तीन शाखायें हैं- श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र। कल्प वेद-प्रतिपादित कर्मों का भलीभाँति विचार प्रस्तुत करने वाला शास्त्र है। इसमें यज्ञ सम्बन्धी नियम दिये गये हैं।
  3. व्याकरण - इससे प्रकृति और प्रत्यय आदि के योग से शब्दों की सिद्धि और उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित स्वरों की स्थिति का बोध होता है। वेद-शास्त्रों का प्रयोजन जानने तथा शब्दों का यथार्थ ज्ञान हो सके अतः इसका अध्ययन आवश्यक होता है। इस सम्बन्ध में पाणिनीय व्याकरण ही वेदांग का प्रतिनिधित्व करता है। व्याकरण वेदों का मुख भी कहा जाता है।
  4. निरुक्त - वेदों में जिन शब्दों का प्रयोग जिन-जिन अर्थों में किया गया है, उनके उन-उन अर्थों का निश्चयात्मक रूप से उल्लेख निरूक्त में किया गया है। इसे वेद पुरुष का कान कहा गया है। निःशेषरूप से जो कथित हो, वह निरुक्त है। इसे वेद की आत्मा भी कहा गया है।
  5. ज्योतिष - इससे वैदिक यज्ञों और अनुष्ठानों का समय ज्ञात होता है। यहाँ ज्योतिष से मतलब `वेदांग ज्योतिष´ से है। यह वेद पूरुष का नेत्र माना जाता है। वेद यज्ञकर्म में प्रवृत होते हैं और यज्ञ काल के आश्रित होते है तथा जयोतिष शास्त्र से काल का ज्ञान होता है। अनेक वेदिक पहेलियों का भी ज्ञान बिना ज्योतिष के नहीं हो सकता।
  6. छन्द - वेदों में प्रयुक्त गायत्री, उष्णिक आदि छन्दों की रचना का ज्ञान छन्दशास्त्र से होता है। इसे वेद पुरुष का पैर कहा गया है। ये छन्द वेदों के आवरण है। छन्द नियताक्षर वाले होते हैं। इसका उदेश्य वैदिक मन्त्रों के समुचित पाठ की सुरक्षा भी है।

         हम न जाने क्यों वेदांगों के जिक्र पर ज्योतिष पर केंद्रित हो जाते हैं? अन्य पांच अंगों पर हम किसी से खुल कर चर्चा भी नहीं कर सकते। लेकिन ज्योतिष को हमने अनेक बार अपने अंदर महसूस किया है। काव्य या पद्य क्या है?मनोभावों  का कल्पनात्मक व भाषाई रूप।लेकिन कल्पना व भाषा के बिना पद्य या काव्य एक स्थिति है जो सर्वव्यापक है। जो हमारी गीता है।
लेखक::अज्ञात
सम्पादित व प्रस्तुति::अशोकबिन्दु