शनिवार, 3 अप्रैल 2021

प्राणाहुति परंपरा और ऊर्जा शरीर ऊर्जा,चेतना कुम्भ ,ज्योतिर्लिगों के पीछे का रहस्य::अशोकबिन्दु



 अपनी व जगत के प्रकृति की पूर्णता की समझ और एहसास ही वास्तव     में ज्ञान    है जो   ही वास्तव में     सनातन की और ले जाता है।

ऋषि या नबी परम्परा के नीचे यदि कोई बेहतर परम्परा है तो वह है आचार्य होना।साधकों, विद्यार्थियों व समाज के लिए जो अभ्यासी होने,विद्यार्थी होने, नम्रता व शालीनता में रहते हुए समर्पण व शरणागति में रहने की प्रेरणा देता है।

महाभारत युद्ध के बाद हम इस हेतु पहली खामोश रूहानी क्रांति हजरत इब्राहीम (ई0पूर्व 2000) को मानते हैं। जो सिंधु नदी के पश्चिम में कलियुग में अनेक व्यक्त अव्यक्त रूहानी क्रांति की शाखाओं को स्फुटित किया जो कि मजहबी ,साम्प्रदायिक, जातीय, कर्मकांडीय आदि न था। 

महाभारत के बाद सिंधु नदी के पूर्व में जैन(जिन) व बुद्ध के रूप में ये क्रांति सम्भव हो सकती।ब्रह्मपुत्र नदी के उत्तर में लाओत्से व कन्फ्यूसियस के माध्यम से। 



मानव चेतना का विकास हो सकता है।ऐसा वह कर सकता है।जो इस धरती पर आदियोगी या शिव शंकर की तरह पूर्ण हो सकता है। सप्त ऋषियों,नबियों  के बाद 15000 वर्षों पूर्व एक सन्त था, जो इस हेतु एक ऊर्जा शरीर बनाना चाहा--मैत्रेय।


ऊर्जाओं को बांधना कैसे?उसकी तीव्रता सामाजिक स्तर पर जांची नहीं जा सकती। परिस्थितियों को ठीक से कैसे संभाला जाए? प्राण प्रतिष्ठा / प्राणआहुति/प्राण सम्मान/आत्म सम्मान  के लिए कैसे तैयार किया जाए ? तंत्र को कैसे समझा जाए ?तंत्र को कैसे उसके हिसाब से ही सहज रखा जाए ? हमारे अंदर और जगत की प्रकृति में जो स्वत:, निरंतर, शाश्वत व्यवस्था है - प्राकृतिक अभियान है ; उसको उसके ही आधार पर कैसे सहज रखा जा सके ? योगी समीरा का सपना भी अधूरा रह गया क्योंकि ऐसा किसी प्राणी में करना असंभव था। ऐसे में ज्योतिर्लिंग/शिवलिंग के माध्यम से प्राणाहुति के लिए प्रयत्न किए गए। लेकिन इसके लिए बेहतर प्रयत्न ऋषियों, नबियों ने स्वयं के प्राणों, चेतना, आत्मा के माध्यम से ही किया। राजा दशरथ से 72 पीढ़ी पूर्व जो परम्परा थी उसको ऋषियों, नबियों,सूफी संतों में देखा गया। 

हजरत क़िब्ला मौलवी फ़ज़्ल अहमद खान साहब रायपुरी व उनके शिष्य रामचन्द्र जी फतेह गढ़ ने इसे आगे बढ़ाया। वर्तमान में इसे लेकर अनेक चल रहे हैं।लेकिन इसे समाज, सम्प्रदाय, स्थूलताएँ नहीं समझ सकती।इसके लिए खामोशी ,अन्तरमुखिता चाहिए।जो अंतर व्याप्त व सर्वव्यापी है उसे ध्यान व योग के माध्यम से ही समझा जा सकता है।चेतना व प्राण जगत को सांसारिक कर्मकांड,जातिवाद, साम्प्रदायिकता,मानव की भौतिक लालसाएं आदि नहीं समझा सकती। कमलेश डी पटेल दाजी कहते हैं कि तुम अपने को नास्तिक कहते कहते हो या आस्तिक, सनातनी कहते हो या गैरसनातनी ,ब्राह्मण समझते हो या गैर ब्राह्मण आदि आदि यह महत्वपूर्ण नहीं है।महत्वपूर्ण ये है  कि तुम महसूस क्या करते हो, अनुभव क्या करते हो?
कुम्भ मेलों, ज्योतिर्लिगों की स्थापना आदि का भी यही उद्देश्य था,यज्ञ का भी यही उद्देश्य था कि हम प्रकृति अभियान, प्राण जगत को समझें, चेतना जगत को समझे।

वर्तमान में हम सब श्री रामचन्द्र मिशन & हार्टफुलनेस आदि के माध्यम से इस हेतु खामोशी से लगे हुए हैं । हमें अफसोस है कि विद्यार्थी, शिक्षकों,शिक्षितों की भीड़ की भीड़ में हम हैं लेकिन पिसे चले जा रहे हैं।उनकी भी समझ, चेतना का स्तर आगे नहीं बढ़ पा रहा है।हम भी सिर कोशिस ही कर पा रहे हैं।अतीत क़ा प्रभाव बड़ा सघन है।
#अशोकबिन्दु


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