बुधवार, 18 मार्च 2020

भीड़ तन्त्र से परे आत्म केन्द्रण, प्राण प्रतिष्ठा, आत्म प्रतिष्ठा, आत्मसम्मान, प्राणाहुति व संक्रमण.......#अशोकबिन्दु/कबीरा पुण्य सदन

भीड़तन्त्र से परे... आत्म केन्द्रण,प्राणप्रतिष्ठा,आत्मसम्मान व संक्रमण .......

""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""#अशोकबिन्दु कटरा

नगेटिव में भी पॉजीटिव है।

श्री अर्द्धनारीश्वर अवधारणा, गीता के विराट रूप, कुंडलिनी जागरण व सात शरीर.,अनन्त यात्रा पर पुस्तकों...... आदि को भी समझना आबश्यक है।

हमारे अंदर, जगत व ब्राह्मांड एक अंदर कुछ है जो महत्वपूर्ण है।
हम कहीं मेडिटेशन करने जाते हैं तो शुरुआत यहीं से करते हैं-हमारे अंदर भी कुछ है जो निकल जाता है तो ये शरीर लाश है।
उसके लिए हम क्या करते हैं। ईश्वर/खुदा को मानो या मानों ये महत्वपूर्ण नहीं है।महत्वपूर्ण है-आत्मा की याद में रहना, प्रकृति का सम्मान करना।सुप्रबन्धन में जीना।

वर्तमान में हम कोरो-ना के चक्कर में जो उपाय, व्यवस्था, सजगता आदि कर रहे है,कोशिस कर रहे है.... वह एक पायदान मानव व मानवता को अग्रिम स्तर पर लेजाना है।ये आकस्मिक योग है।
जागरूकता व अभ्यास में तो निरंतर रहना चाहिए। हमें भीड़ से बचना चाहिए।योग व आचरण, योगी व आचार्य का जीवन अंदर ही अंदर बिताना चाहिए।उसका समाज व भीड़ में प्रदर्शन नहीं।
भीड़ तन्त्र को नजरअंदाज कर महापुरुषों ,सन्तों के लिए जीवन को स्वीकार करने की जरूरत है।

आपके पैगम्बर, अवतार, भगवान भी संतों के सम्मान में खड़े दिखे हैं।चलो ठीक है हम भटके हुए हैं लेकिन जो शान्त प्रिय, सहज, सत्य में जीना चाहते है, उनके लिए क्या हम व्यवधान बनें?


जीवन को जीवन की दृष्टि से देखिए।अपनी इच्छाओं, शारिरिक लालसाओं, जातीय मजहबी मकसदों आदि के आधार पर नहीं।
हम अपने को जाने।अपने आत्मा से जुड़े।आत्मा के सम्मान की कोशिश करें।



            जो भी जगत में है,वह तीन  स्तर रखता है-स्थूल, सूक्ष्म व कारण। हमें अभी सही रूप से स्थूल ही दिखाई नहीं देता, उस पर पूर्वाग्रह, बनाबटों, संस्कारों ,जटिलताओं आदि का प्रभाव आड़े आ जाता है।हम स्थूल को स्थूल की नजर से नहीं देख पा रहे हैं।प्राचीन जितनी सभ्यताएं है,उनमें पांच तत्व, चन्दमा, सूरज, ग्राम देवता, नगर देवता का जिक्र मिलता। जो कुल मिला कर प्रकृति के सम्मान की ओर संकेत करता था। पुरोहितवाद ने हमें भटका दिया।दरवाजे पर कोई साधु आता है, पूछता है घर में कितनी मूर्ति हैं?मतलब उस घर के व्यक्तियों से होता है।हम सब, जगत आदि सब अनन्त यात्रा, प्रकृति अभियान की यात्रा में मूर्ति ही हैं। ऋषि मुनि, सन्तों ने अपने अंदर जो वेद(दर्शन) अवतरित देखा उसको अपने करीबियों महसूस करने का प्रयत्न किया। ये परम्परा राजा जनक व दशरथ तक चलती रही।फिर गुप्त हो गयी।जिसे सूफी संतों ने स्वीकार किया। सूफी संत हजरत क़िब्ला मौलबी फ़ज़्ल अहमद खां साहब रायपुरी से वह फिर श्रीरामचन्द्र महाराज फतेहगढ़ में आया। योग व आचरण, योगी व आचार्य हमारी मूल परम्परा का खास हिस्सा है। प्राण प्रतिष्ठा मूर्तियों(पत्थर की मूर्ति)तक सीमित रह गयी थी। उसे प्राणाहुति के नाम से फिर प्रबंधित किया गया। आखिर प्राणाहुति क्या है? प्राणाहुति संक्रमण का अपोजिट है। हमें आधा गिलास खाली तो दिखाई दे रहा है लेकिन आधा गिलास भरा हुआ नहीं दिखाई देता।
आओ हम सब प्राणाहुति में डूबे।ये डूब जीवन है।
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