शनिवार, 30 मई 2020

मन गति बनाम जुबान गति::अशोक बिंदु

हम किशोरावस्था से ही महसूस कर रहे हैं, मन की गति से काफी कम है जुबान,हाथों एवं अन्य स्थूल अंगों की गति। 
हम कक्षा08 से लेखन कार्य कर रहे हैं। प्रतिदिन जो चिंतन, मनन, कल्पना आदि होती थीं उसको हम एक माह में भी नहीं लिख पाते थे न ही लिख पाते है।हमारे शरीर की जो स्पीड या कार्य क्षमता होती है उससे हजार गुना क्षमता मन की होती है।मन का राजा तो आत्मा है या आत्मा के समकक्ष कोई है, जो अनन्त प्रवृतियाँ रखता है।

वेद व्यास व गणेश के बीच महाभारत लिखने को लेकर जो अनुबंध हुआ वह हमें अब समझ में आता है।उसका मनोविज्ञान हमें अब समझ मे आता है। हमें एक दो अंतर्मुखी ऐसे भी देखे हैं जिनके बोलने की स्पीड इतनी तेज हो जाती है कि वे कम से कम समय में शब्दों को कह जाते हैं और सामने वाले को वह समझ में नहीं आता ।उन शब्दों को वही समझ सकता है जो उसी स्तर का हो। मन की स्पीड से स्थूल शरीर का चलना मुश्किल हो जाता है।इसलिए अंतर्मुखी होने वालों को निरन्तर योगाभ्यास व ध्यान की जरूरत होती ही है।आहार बिहार का भी ख्याल रखने की जरूरत होती है।शरीर में हल्कापन महसूस होना शुरू होता है।शरीर की भी स्पीड बढ़ती है। कुछ अपवादों को छोंड़ कर।


एक सूफी संत हुए हैं-जब्बार। मेडिटेशन करते करते वे इस दशा में पहुंच गए थे कि आम आदमी उनकी भाषा को समझ ही नहीं पाता था।वे इतनी तेज स्पीड में बोलते थे कि सामने वाले को अनर्गल, अनाप शनाप लगता था। लोगों ने उनकी भाषा को नाम दे दिया था- जिबरिश।

मेडिटेशन करते करते हम अंतर उस स्वतः से जुड़ते हैं जो निरन्तर, शाश्वत, अनन्त के द्वार में हमे प्रवेश कराता है। कभी कभी तो ऐसा लगता है अस्वस्थ शरीर में भी हम अस्वस्थता के प्रभावहीनता में जी जाते हैं।कभी जब हम निम्न बिंदु पर ऊर्जा को पाते हैं तो धरती पर अपने को असमर्थ पाते हैं।लेकिन अन्तर्मुख़िता हमें अनन्त से जोड़ कर ऐसा बना देती है कि आश्चर्य होता है,हमसे वो हो जाता है जिस पर ये दुनिया विश्वास नहीं करेगी। कंठ चक्र के ऊपर ब्रह्मांड जगत शुरू होता है, जहां किसी जीवित गुरु का साथ आवश्यक होता है। क्योंकि हमारे दिमाग की प्रवृत्ति सिर्फ चतुर्मुIखी है आत्मा की अनन्त मुखी। ऐसे में हम अपने कुछ मित्रों में शक्ति अहसास पर शारीरिक कम्पन, ऐंठन आदि में देखते हैं। किसी शोधकर्मी का कहना है कि बुद्ध की एक पगड़ी में एक हजार गांठे इस बात का प्रतीक हैं योग से हम सामान्य दशा से हजार गुना अपना समझ व चेतना का विस्तार कर सकते हैं।

कहावत है जहां न पहुंचा रवि वहां पहुंचा कवि। राजयोग मन का विज्ञान है ।मन ही हमें अनन्त से मिला सकता है।इस स्थूल शरीर की उतनी क्षमता कहाँ?हम असीमता को सीमितता से नापने की असफल कोशिस ही कर सकते है। हम तो ये भी कहेंगे कि धर्म, आध्यत्म, आत्मा, बुद्धि ,दिल को हम स्थूल क्रियाकलापों से स्वतंत्र  रूप से नहीं नाप सकते। हमने अनेक विकलांग, मूक ,अंतर्मुखी आदि देखे है जो समाज, संस्थाओं या तक कि उनके अपने परिवार की नजर में भी उपेक्षित होने के बाबजूद दिल दिमाग से ,अंतर से दिव्यता की ओर देखे हैं।किसी न किसी प्रतिभा से युक्त देखे गए हैं।



जब्बार सन्त को हम उस दशा में पहुंचा हुआ मानते थे जहां पर उन्हें वह गति प्राप्त थी जहां पर उनकी जुबान की गति शब्दो को काफी कम समय लेती थी ।जिसे आम आदमी समझ नहीं पाते थे।एक शब्द आम आदमी जितने समय में बोलता है, उस समय का हजारवां अंश को ये समाज समझना तो दूर पागलपन ही कहेगा।


#शेष





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