शनिवार, 13 जून 2020

सनातन यात्रा का नाम-भारत::अशोकबिन्दु

हमें जीवन जीने से मतलब है।
जीवन जीना ही जीवन है। जन्म मृत्यु जीवन की शुरुआत नहीं है अंत नहीं है ।एक बीज होता है,धरती पर पड़ा रहता है।वक्त पर अंकुरित हो उठता है। ये वक्त बड़ा महत्वपूर्ण है।इच्छाएं महत्वपूर्ण नहीं हैं। वक्त महत्वपूर्ण है।वह बीच इच्छा में नहीं जीता।वह वक्त का पाबंद है।वह प्रकृति अभियान में है। हमारे अंदर, जगत में व ब्रह्मांड में प्रकृति अभियान निरन्तर है।इसका मतलब ही है-उसकी मर्जी  के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता।प्रकृति में मनुष्य ही है जो उसकी मर्जी के बिना हिलता है,हिलता ही नहीं चलता है।वह अपनी इच्छाओं के लिए छोंढ़ो अपनी या अपने पूर्वजों द्वारा निर्मित कृत्रिमताओं में लिप्त
होकर प्रकृति को कुचलता भी है। प्रकृति अभियान का साक्षी होना अलग को बात। ऐसे में वह सनातन यात्रा से भटक जाता है।

'पुरुष:च अधिदैवतं '- प्रकृति  से परे जो परम पुरूष है,वही अधिदैव अर्थात सम्पूर्ण देवों का अधिष्ठाता है। उस तक अपनी चेतना व समझ के स्तर को ले जाना  दूर की बात फिर क्यों है? मतलब हम भारत में नहीं हैं।भारत के विपरीत खड़े हैं।भारत सनातन यात्रा है। 'अक्षरम ब्रह्म परमं'-जो अक्षय है ,जिसका क्षय नहीं होता, वही परम ब्रह्म है।प्रकृति उसकी दासी है।सहचर्य है।भोग को नहीं। ब्रह्म विस्तार है जो अनन्त यात्रा में डूबा है।जीव उसका शुरुआती बिंदु है।वह बिंदु जहां से वह संकुचित हो नरकीय
स्थिति, भूतगामी स्थिति तक पहुंच सकता है।98.80 प्रतिशत का हाल यही है।इंद्रियों, हाड़ मांस शरीर की आवश्यकताओं ,कृत्रिमताओं आदि में डूब जाना।अतीत में पहुंच जाना, भूत में पहुंच जाना। क्षर हो जाना, वह असुर हो जाना जो सुर से नीचे है।
अग्नि कुंड में आहुतियां दिए जा रहे हैं, धर्म स्थलों का रोज चक्कर लगा रहे हैं, मूर्तियों-तस्बीरों के सामने घण्टों बैठे रहते हैं ,ग्रन्थों को रट लिए हैं लेकिन......?!समझ का स्तर?!सामने वाला में आत्मा भाव होना दूर की बात मानव भाव ही नहीं।मानव भाव आना तो दूर की बात,हर कोई की पहचान के लिए जातियां, मजहब खड़े कर दिए हैं।जो क्षर है उसके लिए जिए जा रहे हैं।
श्री मद्भगवद्गीता,अष्टम अध्याय, श्लोक-चार में क्या कहा गया है?उससे मतलब नहीं। रोज चीखेंगे-कृष्णा कृष्णा, आरती बगैरा करेंगे लेकिन श्रीकृष्ण के आदेशों पे चलने वाला पागल, धर्म विरोधी।


हम कक्षा 05-06 से श्रीमद्भागवद्गीता का अध्ययन करते रहे हैं, लेकिन अपने लिए नहीं।आपके लिए।हमें तो अपने हाड़ मास शरीर, आत्मा की आवश्यकताओं में जीना है सिर्फ। अपने तीनों स्तरों-स्थूल, सूक्ष्म व कारण के लिए जीना।इसके लिए हमें आपके जातिवाद, पुरोहितबाद, मजहब वाद, सामन्तवाद, पूंजीवाद आदि की आवश्यकता नहीं है। हमने महसूस किया है ,आत्मा ही सनातन है।आत्मा का प्रकाश ही सनातन है।अंतर दिव्यता ही सनातन है। भारत है भा+रत अर्थात प्रकाश में रत।

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