गुरुवार, 4 फ़रवरी 2021

हर जीवित महापुरुष का सम्मान होना चाहिए अन्यथा कुदरत उसकी सजा देगा।अपनी निगाह बनाबटों के पार सूक्ष्म पर भी लेजाने की जरूरत::अशोकबिन्दु

 आध्यत्म में निंदा वर्जित है क्यों?हमारे अनुभव कहते हैं कि जगत में खमोशी ही हमें प्रकृति अभियान, यज्ञ, परम् आत्मा से जोड़ती है।जो खामोश है, अपने काम से काम रखता है।वह कोई प्रतिक्रिया नहीं देता, उसकी मदद ही कुदरत करती है।इस लिए हमारी 'सहज प्रार्थना' में दो पंक्ति आयी है-

"हम अपनी इच्छाओं के गुलाम हैं

जो हमारे जीवन में बाधक है।"


जब 'उसकी मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता' तो खामोशी से अपना काम करते रहना ही उचित है।ऐसे में परम्आत्मा की जिम्मेदारी बन जाती है।


बस, हर कदम हमारा बेहतर हो ,यह कोशिस हो।


एक मनोवैज्ञानिक जानता है कि यह सरासर गलत है कि भय बिन होय न प्रीति!

जहां भय है वहां प्रीति नहीं, जहां प्रीति है वहां भय नहीं।जहां प्रीति होती है वहाँ समर्पण है,शरणागति है,तटस्थता है।


इस लिए एक भाष्य कार ने अर्जुन को अनुराग भी कहा है।जहां अनुराग है उसके साथ ही श्री कृष्ण हैं। दुर्योधन तो संसार के संसाधन चाहता है। 

हर महाभारत के बाद विदुर ही भक्ति में होता है,जो पहले भी भक्ति में था। अर्जुन सिर्फ इस्तेमाल होता है।श्रीकृष्ण जाते है तो अर्जुन शिथिल हो जाते हैं।

हमारी पूर्णता में हमारा जीना ही योग है।जो सत्य(योग के पहले अंग यम के पहले चरण सत्य) से शुरू होता है।


सत्य/यथार्थ

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स्थूल           सूक्ष्म            कारण


आत्मियता का सम्बंध आत्मा से है, आध्यत्म से है।प्रेम का सम्बंध आत्मा से है, आध्यत्म से है।हमारा रुझान, हमारा नजरिया, रुचि, चिंतन मनन ही हमारे दिशा को बताता है।


गीता में श्रीकृष्ण, महाभारत के बाद हजरत इब्राहीम (2000ई0पू0),गुरु गोविंद सिंह आदि के -'प्रिय की कुर्बानी' का मतलब क्या है?मतलब है जगत में जो भी प्रिय है वह का त्याग। तभी हम योगी हैं, तभी हम सन्यासी हैं।भूत योनि से पितर योनि, भूत व पितर योनि से पार....



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