रविवार, 6 जून 2021

भेद किधर से आता है?!.....अशोकबिन्दु

 भेद किधर से आता है? एक ब्राह्मण परिवार, समाज की नजर में 'ब्राह्मण परिवार'..?! "तथाकथित ब्राह्मण परिवार"?!मुखिया भंगड़ी अर्थात भांग के नशे में व्यस्त। बड़ा लड़का धीरे-धीरे बड़ा हुआ ,उसने लैबरी, साइकिल पिक्चर मरम्मत आदि के सहारे गृहस्थी को आगे बढ़ाना शुरू किया।उसके छोटे-छोटे अन्य पांच भाई, बड़ी बहने, जैसे-जैसे बहनों की शादी निपटा दी। भाइयों को लिख पढ़ लेने भर तक का पढ़ाकर शादियां कर दी। लेकिन अब सभी भाइयों की पत्नी?! उसके पत्नी नहीं उसकी शादी नहीं। रिश्ते आए थे तो कुल देखना, ऊंच-नीच देखना। अब कोई कुल नहीं, कोई ऊंच-नीच नहीं ।बस ,कोई मिल जाए जो घर में टिक जाए ।खाना बनाकर खिला दे। ऊंच-नीच कब नहीं? कुल मर्यादा कब नहीं ?और हिंदू भी यार मुस्लिम भी यार... व्यापार,दारु मीठ, मतलब ...आदि,न हिंदू न मुस्लिम ....लँगोटी यार..?!मौका लगे तो एक दूसरे की बिरादरी की लड़कियों और औरतों से शारीरिक मतलब निकालने की भी कोई कसर न छूटे। लेकिन मजहबी करण कहां पर? और क्यों मानवता के लिए एक नहीं हो सकते? प्रकृति संरक्षण और धरती को बचाने के लिए, विश्व बंधुत्व के लिए एक नहीं हो सकते? भेद क्यों? जब दुनिया को खुदा ने बनाया है तो खुदा की बनाई दुनिया में नफरत, भेद ,हिंसा क्यों? हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला में कोई लोक और कुल मर्यादा नहीं ।न जात पात न छुआछूत । भक्त मीरा की भक्ति में न कोई कुल मर्यादा न ही लोक मर्यादा। सूरा 01,अल-फातिहा (मक्का में उतरी-आयतें 07) अल्लाह के नाम से; जो बड़ा कृपा शील, अत्यंत दयावान है। 01.प्रशंसा अल्लाह ही के लिए जो सारे संसार का रब(प्रभु, पालनकर्ता)है। 02.बड़ा कृपाशील,अत्यंत दयावान है। 03.बदला दिए जाने के दिन का मालिक है। 04.हम तेरी ही बन्दगी करते हैं और तुझी से मदद मांगते हैं। 05.हमें सीधे मार्ग पर चला। 06.उन लोगों के मार्ग पर जो तेरे कृपापात्र हुए। 07.जो न प्रकोप के भागी हुए और न पथ भ्रष्ट। इस साथ आयतों से हमें क्या संदेश मिलता है ? हमारी वर्तमान समझ( समझ के भी अनेक स्तर हैं वर्तमान समझ से पहले हमारी समझ के अनेक स्तर थे भविष्य में भी अनेक होंगे) से हमें इन सात आयतों से संदेश मिलता है। सिर्फ ईश्वर ही प्रशंसा के योग्य है,इसके सिवा कोई नहीं। वही बड़ा कृपाशील, अत्यंत दयावान है।अर्थात हमें सदा उसी की शरण में रहना चाहिए। समाज और समाज में किसी व्यक्ति स्त्री आदि से कोई उम्मीद नहीं रखना चाहिए । बरन सुप्रबंधन और कर्तव्य निष्ठा के लिए जीवन जीते रहना चाहिए। वह ईश्वर ही बदला लेने वाला है, बदला लेने का मालिक है, वही ही बदला दिए जाने के दिन का मालिक है। इसकी प्रेरणा हमें मोहम्मद साहब के जीवन के उस घटना से मिलती है, जिसमें उनपर कूड़ा फेंकने वाली औरत का वर्णन है। यह संसार तो कर्म भूमि है, संसाधन और माध्यम है। हम तो उस ईश्वर से ही मांग सकते हैं। परम + आत्मा = परम आत्मा ! हम अपने अंदर की दिव्य शक्तियों को अवसर देंगे । हे ईश्वर ! हम तेरी ही बंदगी सिर्फ करने का संकल्प लेते हैं ।तुझसे ही हम सिर्फ प्रार्थना कर सकते हैं। जीवन पथ सहज है ,सरल है ,शाश्वत है। जो सीधा है। नैसर्गिक है ।जगत और ब्रह्मांड में हम मनुष्य को छोड़कर सभी नियम पर हैं । हमें भी उसी सीधे मार्ग पर चला जो स्वतः, निरंतर है ,सदा है । जिस पर चलकर जो तेरे कृपा के पात्र हुए ,हमें उस मार्ग पर चला । उस मार्ग पर चलने वाले किसी भी प्रकोप के भागी नहीं होते और न ही पथभ्रष्ट ।हमारे हाड मास शरीर में स्थित अल्लाह का नूर....!! कुर आन में अल-बकरा की 8वीं आयत में जो कहा गया है, उसका हिंदी में मतलब है- " कुछ लोग ऐसे है जो कहते हैं कि हम ईश्वर और अंतिम दिन पर ईमान रखते हैं हालांकि वे ईमान नहीं रखते हैं ।" आगे नवमी आयत में -"वे ईश्वर और इमान वालों के साथ धोखेबाजी कर रहे हैं । हालांकि धोखा वे स्वयं अपने आप को ही दे रहे हैं परंतु वे इसको महसूस नहीं करते ।" 16 वीं आयत कहती है-" यहीं वे लोग हैं जिन्होंने मार्गदर्शन के बदले में गुमराही मोल ली किंतु उनके इस व्यापार ने न कोई लाभ पहुंचाया और न ही वे सीधा मार्ग पा सके ।" इन आयतों को पढ़ने के बाद हम में चिंतन आया- आज हम वह नहीं हैं जो सृष्टि के वक्त थे अंतिम दिन अर्थात मृत्यु के वक्त या कयामत के समय पर हम क्या होंगे? गीता में श्री कृष्ण ने कहा है कि मृत्यु (हाड मास शरीर की मृत्यु) वक्त हम नजरिया से और दिल से जो होते हैं वही के आधार पर हमारा अगली यात्रा का या अगले जीवन का फैसला होगा ।हम अपने इस शरीर में स्थित आत्मा और आत्मा के गुणों से कितने दूर हो चुके हैं? ऐसे में ये हाड़ मास शरीर की मृत्यु के बाद भी अपने सूक्ष्म शरीर के माध्यम से नरक योनि, भूत योनि, पितर योनि आदि भोगते हैं। मोक्ष की लालसा रखने के बावजूद भी तब मोक्ष नहीं पाया क्योंकि उन्होंने सृष्टि के वक्त की अपनी मूल अनंत प्रवृत्तियों से संबंध को तोड़ इंद्रियों, हाड मास शरीरों,कामनाओं में अपने को लगा दिया।अनेक तो कहते हैं कि बुढ़ापे पर ईश्वर को याद कर लेंगे लेकिन बुढ़ापा आने से पहले ही आदतें मन में इतनी गहरी हो गई कि छोड़ें छुट्टी नहीं जो आंख बंद कर या कैसे भी ईश्वर की याद में रहकर कार्य करते हैं ,आचरण करते हैं, उनकी मजाक करते रहे ।घर बार छोड़ सन्यासी होने का उपदेश देते रहे। लेकिन अब बुढ़ापे पर वही अच्छे लगने लगे जो जवानी में ही और किशोरावस्था में ध्यान ,योग आदि करने लगे थे मालिक की याद में रहने लगे थे । अब बुढ़ापे पर महसूस होता है कि हम स्वयं अपने को धोखा देते हैं। उनको हम ढोंगी पाखंडी मांगते रहे जो ईश्वर की याद में जीते थे या मेडिटेशन आदि करते थे ।जाति मजहब को नहीं मानते थे। कुल और लोक मर्यादा को भक्त मीरा की भांति भूल गए। वे सारा संसार,हर प्राणी और वनस्पति में ईश्वर का प्रकाश, संवेदना,चेतना महसूस करने की ओर बढ़ चले थे। प्रकृति और ब्रह्म दो रूप में ही उनका सिर्फ द्वैतवाद था ।आगे चलकर - सागर में कुंभ कुंभ में सागर का भाव। कैसी हिंसा? कैसा भेद? कैसी नफरत? जब दुनिया को बनाने वाला है कोई या हमारे और दुनिया के अस्तित्व का कारण है कोई तो उसके सामने हमारी क्या औकात? हम कौन होते हैं? अपने स्वार्थ ,इच्छाओं के लिए हिंसा, द्वेष, भेद फैलाने वाले हम कौन होते हैं? सबका अलग-अलग स्तर है। हर कोई अपने स्तर के आधार पर आचरण करता है। हम उनके आचरणों में खो कर अपने विकास को क्या अवरुद्ध नहीं कर लेते ?ऑल (अल,all,सम्पूर्णता) से जुड़ने का अवसर क्या खो नहीं देते?अपनी चेतना के विस्तार का अवसर क्या खो नहीं देते?


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